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सच पूछो तो उलटी ही बात थी । जब जमालि और प्रियदर्शना भगवान के सान्निध्य में रहते थे, तब प्रियदर्शना ने एक बड़ी सूक्ष्म बात को लक्ष्य किया था। जब भी जमालि अपने शिष्यों सहित, भगवान को प्रणाम कर उनकी धर्म-सभा से जाने लगता, तो प्रभु बहुत मृदु दृष्टि से प्रियदर्शना को अवलोकते । मानो कि पूछ रहे हों : 'जाओगी ? अच्छा जाओ, सुख से विचरो!' उन कण-कण के अन्तर्यामी से क्या छुपा था। नर-नारी के सारे ही गोपन खेलों में वे उन्मुक्त विचरते थे। उन्हें रोकते-टोकते नहीं थे । उनके स्वतंत्र परिणमन को निर्बाध रूप से परा पीमा तक जाने देते थे। वे अन्तरतम के मालिक जानते थे, कि एक दिन तो हर मी को घर लौटना ही है।
वे आरोपण और बलजबरी से मनुष्य के मन को मोड़ने की चेष्टा कभी न करते । हर व्यक्ति को अपने पथ-निर्णय की स्वाधीनता, उनका विधान था । विधि-निषेध को वे मात्र संघ के अनुशासन की दृष्टि से आवश्यक मानते थे । वह उनके मन एक अनिवार्य बाह्याचार था । पर व्यक्तियों की निजी आत्माओं का जहाँ सरोकार होता था, वहाँ किसी को कभी न कहते कि 'यह कर, वह मत कर।' उनका एक ही आप्त-वाक्य था :
यथा सुखाः
जिसमें तुम्हें सुख लगे, वही करो । यानी अपने सुख के स्वरूप को स्वयं ही क्रमशः जानो । अनुभव की संघर्षयात्रा द्वारा अपने अभिलषित सुख के चरम स्वरूप तक स्वयं ही पहुँचो । दमन से नहीं, समझन से स्वयं को उपलब्ध हुआ जा सकता है । जो वासना व्यक्ति में सर्वोपरि है, उसी की राह चल कर व्यक्ति एक दिन अचूक अपने गन्तव्य पर पहुँच जायेगा । भगवान केवल वस्तु-स्वरूप कहते थे, आत्म-स्वरूप कहते थे । स्थितियों के आवरण हटा देते थे। लेकिन हस्तक्षेप उनके विधान में नहीं था।
· · · इस विधान के चलते, जमालि के अहंकार को खुल कर खेलने का अवसर दिया गया । प्रियदर्शना जैसी अपनी आत्मजा को भी अन्धकार में खो जाने की छुट्टी दे दी गई । अरे, भेज दिया स्वयं । स्वातंत्र्य का अनुत्तर सूर्य था
महावीर।
____ जमालि का प्रताप इस समय चरम पर पहुंच चुका था। श्री भगवान चम्पा के पूर्णभद्र चैत्य में विहार कर रहे थे । तभी एक दिन अचानक जमालि प्रभु के सम्मुख आ खड़ा हुआ । उसने उद्दण्ड हो कर प्रभु को ललकारा :
'आर्य महावीर, तुम्हारा तीर्थकरत्व समाप्त हो चुका। प्रति-तीर्थंकर जमालि नूतन युग-तीर्थ का प्रवर्तन कर रहे हैं । उनके सिद्धान्त का डंका आसमानों पर
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