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________________ २८५ देवी प्रियदर्शना के इंगित पर ही सारे संघ का संचालन होता रहा । आचार्य को अपनी अघोरी साधना से अवकाश ही कहाँ था ? शरीर से स्वस्थ होने पर जमालि अपने संघ सहित श्रावस्ती से विहार कर गया । पर मन से वह अधिक-अधिक विक्षिप्त और वातुल होता जा रहा था। अहम् और प्रतिद्वंद्विता की जो तीव्र कषाय उसकी चेतना को गहरे में मथ रही थी, वहाँ किसी सत्य या विवेक को अवकाश नहीं था। देवी प्रियदर्शना उसे छोड़ जातीं, तो शायद उसका मदज्वर उतर जाता। पर वे उसके संग अचल पग चल रही थीं। और उनकी एक हजार श्रमणियों के बीच जमालि नील पंख पसारे मयूर की तरह इतराता हुआ विचरता था। उसके अहंकार, उन्माद और उद्भ्रान्ति को इससे बड़ा बल मिलता था । जनपदों में विहार करते हुए, वह अपने स्थापित तर्क को बड़ी ओजस्वी घोषणाओं के साथ प्रचारित करता रहता था । महावीर का विरोध ही उसकी एक मात्र जीवन-चर्या थी। भगवान की शामक और उन्नायक वाणी के प्रभाव को, वह सर्वत्र अपने कषाय के धूम्र से मलिन और आच्छादित कर देने की चेष्टा करता रहता था । अज्ञानी लोक-जन को भरमाने में उसने कोई कसर नहीं रख छोड़ी। गौतम ने अनेक बार चाहा कि भगवान जमालि का प्रतिकार करें । उसके विष-वमन को अपने कैवल्य के तेज से रोकें। पर वह महावीर का मार्ग नहीं था। लोकालोक की तमाम दैवी, दानवी, मानवी शक्तियाँ उनकी सेवा में प्रस्तुत थीं। यदि वे उनका उपयोग करना चाहते, तो अपने सारे विरोधियों का क्षण मात्र में उत्पाटन करवा सकते थे। जमालि के तन और मन को तभी कोलित करवा सकते थे, जब उसने विद्विष्ट होकर भगवान से अलग विहार करने का प्रस्ताव किया था। वे स्पष्ट देख रहे थे, कि जमालि उनका दुर्दान्त द्रोही होकर लोक में खड़ा होगा । वह उनकी धर्मदेशना का अपलाप करेगा । लेकिन अर्हन्त विरोधी शक्तियों का प्रतिकार नहीं करते, वे अचल रह कर अपने सत्य के प्रकाश में उन्हें यथा समय गला देते हैं। विरोध की धार पर ही वे अपने विश्वम्भरत्व और अर्हत्व को प्रकाशित करते हैं । प्रियदर्शना तो अपवाद रूप से उनकी प्रिय पात्र रही थी। वह उनकी आत्मा की बेटी थी। वह तीर्थंकर की दुहिता थी । उस अपनी ही प्रभा की एक किरण को अपने में समेट लेना भगवान के लिये क्रीड़ा मात्र थी । लेकिन उससे भी प्रभु असम्पृक्त ही रहे। उसे भी प्रभावित करने या खींचने की कोई चेष्टा उन्होंने कभी नहीं की। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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