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________________ २८४ फिर प्रियदर्शना को लक्ष्य कर जमालि बोला : 'सुनो आर्ये, इसमें न्याय और तर्क का बारीक काँटा लगाने की ज़रूरत ही क्या है । व्यवहार की निहाई पर तुम्हारे पिता का सिद्धान्त टिक न सका । तुम्ही सोचो, जो क्रियमाण को कृत मान लिया जाये, तो मुझ जैसे पीड़ित की कैसी दुर्दशा हो । एक सामान्य शब्दार्थ की सचाई भी तुम्हारे पिता में न हो, तो वे कैसे पदार्थ-ज्ञानी, कैसे सर्वज्ञानी ? अरे कोई तो मेरे प्रत्यक्ष सत्यवाद को समझे । कोई तो उसे साक्ष्य और समर्थन दे !' ___ इस क्षण जमालि के प्रति प्रियदर्शना की समवेदना अजस्र वेग से प्रवाहित थी। एक तो उसकी कुम्हलाई काली पड़ गयी देह, उस पर असाध्य रोग का आक्रमण, और तिस पर वह चारों ओर से हताहत, पराहत और बेसहारा हो गया था। और इस वक्त उसके उद्वेग और क्षोभ का पार नहीं था । प्रियदर्शना की छाती में वह उद्विग्न चेहरा शूल-सा गड़ उठा। वह कातर हो कर बोली : 'समझ रही हूँ आचार्य देव, सत्य आपके पक्ष में है। उसमें किसी पिता के पक्षपात को अवकाश नहीं !' 'बस तो जहाँ सत्य, वहीं सर्वज्ञता !' और जमालि अपनी पराजय की कुण्ठा से मुक्त हो कर उल्लसित हो उठा। उसने राहत की एक गहरी निःश्वास छोड़ी। वह संथारे पर लेटते हुए निश्चल स्वर में बोला : 'प्रति-तीर्थंकर जमालि का ध्रुव स्थापित हो गया। · · · महावीर, तुम हार गये । सत्य मेरे पक्ष में प्रमाणित हो गया !' और उसके मुंह से ज्वर-दाह की एक गहरी कराह निकल पड़ी। देवी प्रियदर्शना ने एक दृष्टि भर आचार्य को एक टक देखा । और वे चुपचाप आर्यिका वास में चली गईं। · · · ठीक उसी समय कई श्रमण भी जमालि के संघ का त्याग कर चुपचाप अपने अभीष्ट की ओर विहार कर गये । अन्य अनेक श्रमण आचार्य की भावी प्रभुता का स्वप्न देखते उन्हीं के साथ विरम रहे । उत्तरोत्तर श्रमण तो अधिकांश जमालि के संघ का त्याग कर प्रभु के पास लौट गये थे । किन्तु श्रमणी एक भी न गई । क्यों कि श्रमणियों के समक्ष आर्या प्रियदर्शना का व्यक्तित्व था, जो इस समय मोहाविष्ट होते हुए भी शान्ति और दान्ति के सौन्दर्य से उज्ज्वल था। उनकी मौन प्रीति से तिर्यंच प्राणी तक वशीभूत थे, तो श्रमणियों की क्या बात । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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