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सके हो। सत्यवादी के साथ रह कर भी उसे पहचानते नहीं। तो जाओ, और डूब मरो, किसी अंधे कुएँ में !' ___ चीख-चीख कर जमालि यह प्रलाप कर रहा था, कि तभी देवी अववद्या प्रियदर्शना वहाँ आ पहुँची । श्रमण अविचल खड़े थे, और जमालि ज़ोरों से बकवास कर रहा था।
देवी ने बहुत शांत मृदु स्वर में श्रमणों को उलहना दियाः
'एक तो आचार्य की तबियत ठीक नहीं है। ऊपर से उन्हें इस तरह खिजाना क्या उचित है ?'
देवी विरल ही कभी आचार्य के सामने आती थीं। दूर से ही उनका यथाशक्य जतन चलता रहता था। उनकी बोली भी कभी मुश्किल से ही सुनायी पड़ती थी । एक श्रमण ने विनयपूर्वक निवेदन किया :
'लेकिन आयें, इसमें कोई हमारा अपराध हो तो हमें अवश्य दण्डित करें। शैया बिछ ही रही थी, और बिछ जाने को थी, अगले ही क्षण । इतनी प्रत्यक्ष थी यह बात कि जो सत्य था, वही हमारे मुंह से सहज निकल गया। आचार्य के आने तक बिस्तर लग ही जाता, लग भी गया। फिर भी वे अकारण ही क्रोध से भभक पड़े।
'लेकिन इतना तो समझना ही होगा, सौम्य, कि यदि एक तपस्वी पित्तज्वर के असह्य दाह से पीड़ित हो, तो इतना भी विलम्ब कैसे सहन कर सकता
___ 'विलम्ब का तो प्रश्न ही नहीं था, माँ, उनका आदेश पाते ही हम संथारा लगाने लगे थे। लगाने और लग चुकने में अंतर ही कहाँ था। तथ्य ही सत्य रूप में हमारे मुख से निकल गया । आचार्य के समक्ष तो सदा महावीर रम रहे हैं, उसमें हमारा क्या दोष ? हमें सिद्धान्त.का भान था ही नहीं, हमने तो सहज सत्य कहा। और वस्तुत: महावीर भी सिद्धान्त नहीं कहते, प्रत्यक्ष और सहज सत्य कहते हैं। हमने भी अपना स्वतंत्र बोध कहा, उसमें महावीर कहाँ से आ गये ?'
जमालि बीच में ही घायल भेड़िये की तरह दहाड़ उठा :
'धूर्तों, मेरे संघ में रह कर, चालाकी से महावीर का मण्डन करते हो ! हज़ार बार कह चुका और फिर कहता हूँ, कि क्रियमाण को कृत कहने का सिद्धान्त झूठा है। और तुम्हारे ही कर्म ने अभी यह प्रमाणित कर दिया । प्रत्यक्ष को भी झुठला कर, झूठ का पक्षपात करते तुम्हारी जी. क्यों नहीं कट पड़तीं, तुम्हारे मस्तक क्यों नहीं गिर जाते !'
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