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________________ २८२ कांति नष्ट हो गयी थी। प्रबल भूख-प्यास सहने की कष्ट-क्रिया के कारण, और समय-असमय प्रमाण रहित भोजन करने से, उसका सुकुमार शरीर व्याधिग्रस्त हो गया था। फिर उसका सबसे उग्र तप तो उसका अपना ही कषाय था। उसके अंतर में वैर और प्रतिस्पर्धा की आग सदा धू-धू धधकती रहती थी। और उसी में वह निरंतर अपनी आहुति दे रहा था। इसी से उसका वह सुकोमल चेहरा विकृत और विकराल हो गया था । वह एक आतंक और भय की सृष्टि कर के लोक-हृदय पर राज्य करना चाहता था। निरंतर की इस जलन के कारण श्रावस्ती आने पर उसे पित्त-ज्वर ने दबोच लिया। उसके अंग-अंग में दाह उत्पन्न हुआ। बैठना और लेटना तक उसको मुहाल हो गया। उग्र दाह ज्वर में भी वह बेचैन प्रेत की तरह चलता ही दिखायी पड़ता था। पर एक दिन सहन-शक्ति की सीमा आ गयी। तब उसने खिन्न आक्रोश के स्वर में आदेश दिया : 'श्रमणो, संथारा बिछाओ। स्वामी लेटेंगे।' श्रमण आदेश पाते ही फुर्ती से घास की शैया बिछाने लगे। कि तभी जमालि ने पीड़ा से उद्विग्न हो कर फिर पुकाराः 'सन्थारा बिछ गया, श्रमणो ?' एक साधु ने सहज ही उत्तर दिया कि : 'हाँ, सन्थारा बिछ चुका, भन्ते !' यानी बिछ ही रहा था, और आचार्य के वहाँ आने तक वह बिछ ही जाता । जो क्रियमाण था, वह कृत था ही । इसी गहरे ज्ञान-संस्कार में से श्रमण बोला था। जमालि ने आ कर देखा तो शैया अभी लगी नहीं थी, लग रही थी। वह तो हर क्षण महावीर के सिद्धांत का खण्डनकार हो कर ही जीता था । उसे सचोट प्रमाण मिला, कि महावीर की बात ग़लत हो गयी । बिछाने की क्रिया को ही श्रमण ने कृत कह कर, महावीर का समर्थन करना चाहा है । उसके नख से शिख तक आग लग गई। वह भभक कर बोला : 'अरे मिथ्यावादियो, अभी शैया बिछी नहीं, तब भी बिछ गई कहते तुम्हें शरम नहीं आती । एक क्षण की भी जो देर हो, तो संथारा हो गया, ऐसा कैसे कहा जा सकता है । तुम्हारे मन से अभी महावीर की लेश्या गयी नहीं। लेकिन ओ रे अन्धो, प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या ? सरासर बिस्तर लगा नहीं है, और तुमने लग गया कह दिया। लेकिन लगा नहीं है, और महावीर झूठा पड़ गया है । तुम झूठे पड़ गये हो । अरे पाखंडियो, तुम उस मिथ्यावादी जादूगर महावीर को भूल नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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