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________________ २८१ जमालि ने जान-बूझ कर भगवान के व्यक्तित्व और वाणी को विकृत और व्यभिचरित किया। वह उनके सारे कथनों को तोड़-मरोड़ कर, उनके पूर्वापर सन्दर्भो से काट कर, उनको ग़लत व्याख्या लोगों के सामने प्रस्तुत करने लगा। उसने महावीर को एक कट्टर सिद्धांतकार के रूप में स्थापित किया। उन्हें वादी के रूप में सामने रक्खा। और उनके सिद्धांत के विरोध में अपना प्रति-सिद्धांत रच कर, उनके प्रतिवादी के रूप में अपने को उजागर करने लगा। उसने अपना कुछ ऐसा बिम्ब खड़ा किया, कि प्रति-तीर्थंकर जमालि आ गया है, और उसने तीर्थंकर महावीर को अपदस्थ कर दिया है। वही अपने काल का सब से बड़ा युगन्धर और युगंकर है। पृथ्वी पर वही इस समय एक मात्र सर्वज्ञ पूर्ण ज्ञानी और अर्हन्त है। वह कहता है कि वह पुरोगामी है, महावीर प्रतिगामी है। वह क्रियावादी है, महावीर अक्रियावादी है । वह आगे ले जाता है, महावीर पीछे ले जाता है। वह प्रगतिवादी है, महावीर अप्रगतिवादी और यथास्थितिवादी है। इस प्रकार के भ्रामक और एकान्तवादी कथन कर के वह भगवान की अनैकान्तिनी वाणी को विकृत कर रहा था। और लोकजनों को भरमा रहा था। भगवान ने जमालि की आत्म-हंता तपस्या की अवगणना कर दी थी । इसका ज़ख्म भी उसके हृदय में कम गहरा नहीं था । उसके आक्रोश और प्रतिशोध भाव की सीमा नहीं थी। हर समय वह उबलता ही रहता था । ___ उसके मन में यह अचल धारणा थी, कि महावीर ने अपने सत्यानाशी तप के बल पर ही जगत को झुकाया है । तो उसने हठ ठान लिया और दावा किया कि वह महावीर से भी अधिक भयंकर और प्रखर तपस्या करेगा । वह अपने तप के प्रताप से त्रिलोकी को थर्रा देगा, और महावीर को हरा देगा। सो अब जमालि अघोरी तपस्या के तमस में छलांग भर गया। उसने सारी नियम-मर्यादा तोड़ दो। वह घूरों पर, मल के ढेरों पर, कर्दम-कीचड़ में बैठ कर, काँटों की झाड़ियों और श्मशान की चिताओं में लेट कर ध्यान करने लगा । हठ और कषाय की एकाग्रता के कारण उसे गहरा और घोर आर्त्त-ध्यान होता था। देह भान चला जाता, और वह खतरों में पड़ा पाया जाता। देह-दमन की पराकाष्ठा तक जा कर, वह महावीर के त्रिभुवन-मोहन सौन्दर्य को निस्तेज और तुच्छ कर देना चाहता था। इसी उन्मत्त दशा में अपने संघ के साथ भ्रमण करता, एक दिन जमालि श्रावस्ती के कोष्टक चैत्य में आ पहुंचा। वह अब पहले का कांतिमान जमालि नहीं रह गया था । अनियत चर्या में लूखे-सूखे, बासी, अखाद्य आहार करने से उसकी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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