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'अहा, मेरे प्रभु के परिव्राजक मेरे आँगन में पधारे । मेरा तन-मन, घरबाहर सब पावन हो गया ।'
आर्य अम्बड़ को यह स्वर आत्मीय और सुपरिचित लगा। जैसे सुदूर अतीत में कहीं इस कल्याणी को देखा है। इसकी आवाज़ सुनी है । उनके हृदय में महावीर की वीतराग स्मित झलक मार गई । एक अननुभूत गूढ़ संवेदन से वे सिहर आये। _सुलसा ने अपने आँगन के चबूतरे पर अतिथि को पुष्पासन पर बैठाया। और वन्दन करती हुई नमित हो मई । अम्बड़ स्वयं प्रतिवन्दना में झुक-से आये । सुलसा भर आ कर बोली :
'एक अकिंचन नारी पर इतना भार न डालें, आर्य । कृपा हुई, आप पधारे।'
'जिस पर स्वयं अर्हन्त महावीर कपावन्त हैं, उस पर मैं क्या कृपा कर सकता हूँ, भद्रे !'
सुलसा चौंकी । उद्ग्रीव, उत्सुक सुनती रह गई।
'त्रिलोकी में तुम एक ही नारी हो, जिसकी कुशल स्वयं त्रैलोक्येश्वर महावीर ने भरी सभा में पूछी है। जिसे उन परम परमेश्वर प्रभु ने 'धर्मलाभ' कहला भेजा है। श्री भगवान का वही सन्देश मैं देवी सुलसा तक पहुंचाने को आया हूँ। मरा अहोभाग्य! मैंने महावीर की एक परम सती का दर्शन पाया ।'
सुनते-सुनते सुलसा एक अचिन्त्य आत्मराग में लीन-सी हो रही। समाधि लग जाने की अनी पर वह सावधान हुई । कहीं अतिथि की अवमानना न हो जाये। वह डूबे कण्ठ से बोलो :
'आप स्वामी का सन्देश ले कर आये हैं । उन्हीं के प्रतिरूप हैं आप मेरे मन, हे देवार्य !'
सुलसा ने बड़े भक्ति भाव से आर्य अम्बड़ के चरण धोये। मातृवत्सल भाव से उन्हें अपने आंचल से पोंछा। उन पर फल-केशर बरसाये । और उन्हें अपने गृह-चैत्य को वन्दना कराने ले गई। ___.. 'पूजागृह में जीवन्त स्वामी के उस राजसी रूप का दर्शन कर अम्बड़ ऋषि को जगन्नियन्ता ईश्वर का मानो साक्षात्कार-सा हुआ । लगा कि आत्मधर्म
और भागवद् धर्म में कोई विरोध नहीं है । सुलसा को 'धर्मलाभ' उन्हीं परम भागवत प्रेमिक प्रभु ने भेजा है। और उन्हीं अर्हन्त ने उसे असंग अकेली कर दिया है।
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