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'तो मैं कहाँ जाऊँ, क्या करूँ ?'
प्रभु की विधायक मृदु वाणी सुनाई पड़ी : ___ 'अपना निर्णय आप कर, सौम्य। जिसमें तुझे सुख हो, वही कर। स्वछन्द में रह और स्वच्छन्द विचरण कर।'
नन्दिषेण ने हृदय कठोर करके, प्रभु के आदेश से ही, प्रभु के निषेध की अवज्ञा कर दी। उसने स्वयम् ही दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली। उसने पीछी-कमण्डलु के लिये हाथ पसार दिये। कोई प्रत्युत्तर न मिला।
भगवती चन्दन बाला को उस पर करुणा आ गई। उन्होंने शची के हाथों उसे पीछी-कमण्डलु प्रदान किये। अगले ही क्षण नन्दिषेण वहाँ से निकाल पड़ा। अनाथ, कातर, अशरण वह अपने ही आत्म की खोज में जन और विजन में अविराम अटन करने लगा।
नन्दिषेण मुनि बेखटक स्वतंत्र चर्या कर रहे हैं। उन्हें अपने साथ सदा महावीर की उपस्थिति अनुभव होती है। अनेक वन, कान्तार, पर्वत पार करते, नाना देशान्तरों में विचर रहे हैं। वे किसी भी द्वार पर भिक्षा को नहीं जाते। अयाचित भिक्षा का कठोर व्रत वे धारण किये हैं। अनायास कोई दाता सम्मुख आ जाये, तो उसके दिये आहार को प्रासुक जान ग्रहण कर लेते हैं । इन्द्रियों पर उन्होंने उत्कट निग्रह कर लिया है । चारों ओर से चेतना के द्वार बन्द कर लिए हैं । दुर्द्धर्ष ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे हैं। अनिन्द्य सुन्दरी भी सामने से गुज़र जाये, तो आँख उठा कर नहीं देखते । स्त्री की छाया तक से वे बच कर निकलते हैं । सामने कोई योषिता आ रही हो, तो मुंह फेर कर उलटी दिशा में चल पड़ते हैं।
दिगम्बर पुरुष ब्रह्मचर्य को कवच की तरह ऊपर ओढ़ कर, अपने शीलरत्न को बचाता फिर रहा है। उसके आत्म-दमन और आत्म-संक्लेश का पार नहीं । दारुण तप से उसने अपनी देह को गला दिया है। राज-पुत्र का वह कोमल कान्त सौन्दर्य, निरन्तर आतापना से कठोर और शुष्क हो गया है।
एक दिन तीसरे पहर नन्दिषेण मनि आलंभिका नगरी के एक चौहट्टे से गज़र रहे थे । अचानक किसी अट्टालिका के तिमंज़िले से एक बहत ही महीन, लरज़-भरी गान-लहरी सुनाई पड़ी । तिलक-कामोद की रागिनी में विरह की बड़ी विवश व्यथा निवेदित की जा रही थी । मिलन के लिए जो तड़प उसमें थी, उसमें निःशेष समर्पण : अति आकुल विनती उमड़ रही थी।
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