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वधिक प्रस्तरीभूत जड़ित-से रह गये । कहीं ऊपर अलक्ष्य में वारिषेण की जयकारें गूंजी । अदृष्य में से उस पर फूलों की राशियाँ बरसने लगीं । ___ वधिक विस्मय से विमूढ़ और रोमांचित हो गये। भाग कर उन्होंने सम्राट के पास यह सम्वाद पहुंचाया । शोक-मग्न सम्राज्ञी और सम्राट सुन कर आनन्द से उछल पड़े । वे पर-पैदल ही चलते हुए वधस्थल पर दौड़े आये । वधस्थल की काली-सिन्दूरी चट्टान-वेदी पर वारिषेण को ध्रुव, अचल ध्यानस्थ देख वे आनन्द वेदना से रो आये ।
सम्राट ने विनत हो कर क्षमा याचना की। महारानी माँ दूर से ही इस अनोखे बेटे का अपने अविरल बहते आँसुओं से अभिषेक करती रहीं । बोल उनका फूट न सका । उनके आंचल में अपूर्व ज्वार-से उमड़े आ रहे थे।
सम्राट ने इस महामहिम बेटे से महलों में लौट चलने की विनती की। वारिषेण ने आँख उठा कर भी न देखा । वे पर्वत की तरह निस्पन्द, अटल, निरुत्तर रहे । सम्राट ने बार-बार अपनी विनती दोहराई । वह मानो किसी अगम गुहा में से प्रतिध्वनि बन कर लौट आयी । हार मान कर माता-पिता चुपचाप आँसू ढालते खड़े रह गये । वे मन ही मन अनुनय करते ही चले गये। · · हठात् उत्तर सुनाई पड़ा :
'चोरी और बलात्कार पर टिके राज्य और ऐश्वर्य में अब वारिषेण नहीं लौट सकता। उस रत्नहार पर मगध-सुन्दरी वेश्या का भी उतना ही अधिकार है, जितना सम्राज्ञी चेलना देवी का। सम्राट ने वह हार दे कर अपनी महारानी को प्रीत किया, तो विद्यत चोर भी अपनी गणिका प्रिया को क्यों न उससे प्रीत करे ? हार पर सम्राट ने अधिकार किया है, तो विद्युत चोर उसे चुरायेगा ही।
. . . इस दुश्चक्र का अन्त नहीं, महाराज। मैने गई रात उसे तोड़ दिया। अब मैं उसमें नहीं लौट सकता । स्मशान की चिता में मैंने साम्राज्य को मानवता के एक महामघट के रूप में सुलगते-दहकते देखा । मैं पीड़न और शोषण की निरन्तर हिंसा और हत्या के उस वधस्थान में अब नहीं लौट सकता । मुक्त जीवन का तट मुझे पुकार रहा है । मैं वहीं जा रहा हैं।'
'कुमार वारिषेण, कहाँ है वह तट ? किसी पर लोक में ?'
'नहीं, इसी पृथ्वी पर । इसी मागधी के हरियाले आँचल में । अर्हत् महावीर के समवसरण में । जहाँ का ऐश्वर्य मर्त्य नहीं, चुराया हुआ नहीं, जंजीरों में जकड़ा हुआ नहीं । जहाँ द्रव्य और सता मुक्त साँस ले रहे हैं । आज्ञा दें, माँ और भन्ते तात ।'
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