________________
५४
'मेरे सुख-दुःख, जन्म-मरण के साथी ! इससे अधिक कौन मुझे समझेगा ! हर जीव यहाँ तुम्हें ही तो खोज रहा है।'
'तथास्तु, गौतम ।'
'तो क्या मान लूं, देवार्य, कि वेद और वेदान्त में विरोध है ? और जो ज्ञान अविरोध-वाक् न हो, वह ज्ञानाभास है, और वह त्याज्य ही हो सकता है ?'
विरोध तुम्हारी मति में है, श्रुति में नहीं । विरोध तुम्हारी ऐकान्तिक सीमित दृष्टि में है, वेद और वेदान्त में नहीं । श्रुति का हर कथन अनैकान्तिक होता है। श्रुति में एक बारगी ही, ज्ञान-विज्ञान की नाना कलाएँ प्रकट होती हैं। वह संयुक्त सत्ता को ध्वनित करती है।'
‘सर्वज्ञ अर्हत् जयवन्त हों! और भी प्रबुद्ध हुआ, भगवन् ।'
'यह वेद का विज्ञानघन वह आत्मा ही है, गौतम, जिसमें हर क्षण अनेक ज्ञान-पर्याय प्रकट हो रही हैं । हर क्षण यह कुछ जान रहा है, और उस ज्ञान के आकार में परिणमन कर रहा है। जब यह पंचभूत को भोगता है, जानता है, तो उसमें व्यक्त होता है, प्रकट होता है । रूपायित होता है। प्रतिभासित होता है। फिर स्वयम् में लीन हो जाता है। बाहर कुछ रहता नहीं । उस अनिरुक्त पुरुष के अतिरिक्त कहीं कुछ नहीं । उससे बाहर कुछ नहीं । वेद कहता है : जो एक
और अव्यक्त है, वह अनिरुक्त प्रजापति है। जो व्यक्त और अनेक है, वह निरुक्त प्रजापति है । अस्ति और आविः के बीच विरोध कैसे हो सकता है । समझो, गौतम ।'
'समाधीत हुआ, स्वामिन् ।'
'एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' । यही अनेकान्त है । यही वेदवाणी है । अनेक ऋषि, अनेक दृष्टा, अनेक देवता, एक ही बात अनेक छन्दों और मंत्रों में कह रहे हैं । शब्द में कथन सापेक्ष ही हो सकता है। ग्रहण भी सापेक्ष ही हो सकता है। वृहदारण्यक ने 'स वै अयमात्मा ज्ञानमयः' कह कर उसी ज्ञानघन आत्मा के अनिरुक्त, अन्तस्थ स्वरूप का साक्षात्कार किया है । वेदों ने सत्ता की 'आविः', अभिव्यक्ति, गति, प्रगति का गान किया । उपनिषत् ने सत्ता के अस्ति, अव्यय, अव्यक्त, अन्तभुक्त स्वरूप का साक्षात्कार किया है। एक ही सत्ता के इन दो अनिवार्य पक्षों की अभिव्यक्ति भिन्न हो सकती है, पर उनमें विरोध कैसे हो सकता है। जानो गौतम, सर्वज्ञ वेद और वेदान्त में, एक और अनेक में, स्थिति और गति में कोई विरोध नहीं देखते।'
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org