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मैं इसे पछाड़ है, है
'ओह असह्य ! इस पर्वत को मूल से उखाड़ कर, मैं दूंगा । कहाँ, किस पर ? कहीं कोई प्रतिरोध नहीं, कुछ ठोस नहीं ! मैं इन अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों को महाकाल की चट्टान पर पछाड़ दूंगा।' और हठात् सम्राट की आँखों के जाले फट जाते हैं: वे देखते हैं कि वह महाकाल भी इस ब्रह्माण्डीय शरीर के बाहर कहीं नहीं । वह भी मात्र इसी के भीतर से प्रस्तुत इसका वाहन है ।
कोई बात नहीं । श्रेणिक काफी है अपने लिये । वह इस जंगल - शरीरी पर्वत - पुरुष से मल्ल-युद्ध करेगा । वह चुटकी बजाते में इसे, इसी के कपाल पर पछाड़ देगा । और भुवनजयी श्रेणिक भुजाएँ ठोंकता है, जाँघों पर हाथ फटकारता है, और सिंह- छलाँगें भरता हुआ, जैसे उस प्रचण्ड पर्वत काया पर टूट पड़ता है । · · ·लेकिन पर्वत अचल है । वह उसके आक्रमण का जवाब नहीं देता । ये चट्टानें उसे प्रतिरोध नहीं देतीं । फूलों- पत्तों लदी एक गहन मार्दवी छाती उसे अपने में समाती चली जाती है ।
पृथ्वी के अजेय शूरमा भंभासार श्रेणिक का ऐसा अपमान ? कि उससे कोई लड़ने तक को तैयार नहीं ? उसे एक कामिनी की छाती में क़ैद करके, मूर्छित कर देने का कूटचक्र रचा जा रहा है ? धरणी का हरियाला आँचल गहरे से गहरा हो कर, उसे अपनी पत्तों और पटलियों में लपेटे ले रहा है । उसमें एक महाकाम का हिल्लोलन हुआ, कि वह इस कुटिल कामिनी की अन्तिम गोपनता को भेद कर चैन लेगा । और वह लावण्य और सौन्दर्य के उस लोक में आरपार भ्रमण करता चला जाता है ।
“उफनाती लताओं से आवेष्ठित बड़े-बड़े वृक्षों के तने । रंग-बिरंगे फूलों छायी वीथियाँ । उनमें सुरपुन्नाग वृक्षों तले बिछी प्रकृत फूल- शैयाएँ । लाल, नीली, हरी, पीली चोंचों वाले विचित्र रंगी पक्षियों की क्रीड़ा और कूजन । कहीं अलक्ष्य में कोयल टहुक कर टोक देती है । कहीं बादल छाया में नाचता मयूर, किन्हीं घनश्याम केशों के पाश की याद दिला कर, हृदय को चीर देता है । और श्रेणिक एक दुर्वार आकर्षण से उन्मत्त हो, उस अभेद्य लगती हरीतिमा में धँसता चला जाता है, धँसता चला जाता है । हठात् कहीं कोई कमलों छायी सरसी झाँक कर, उसे एक अदृष्ट गहराव से छुहला देती है । वह और भी दुर्मत्त हो कर, उस गोपन आमंत्रण को रौंद जाता है । "
• ओर सहसा ही दुर्भेद्य वनिमा के पन्नीले पटल भिद जाते हैं । और एक विशाल खुलाव सामने आता है । हरियाली का चीर खसका कर सुनग्न और उन्मुक्त लेटी सुन्दरी-सी एक सावनी नदी की उफनाती धारा दिखाई पड़ती है । राजा की नसें बलवा कर उठती हैं । वह आक्रामक की तरह उस पर टूट
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