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'अपने साढ़े तीन-सौ शिष्यों सहित, दिगम्बर हो कर दिक्काल का निरन्तर सुख भोग, काश्यप । दिगम्बर हुए बिना, दिग्जया काम्या का आलिंगन सम्भव नहीं !'
और अगले ही क्षण तीन-सौ इक्यावन मौर्य-पुत्र दिगम्बर हो कर जिनेश्वर के परिव्राजक हो गये। युग-युगान्तरों के आरपार आहती प्रज्ञा का सम्वहन करने के लिए।
जयध्वनि गुंजायमान हुई : 'सर्वस्वर्गेश्वर महावीर जयवन्त हों। गणधर काश्यप मौर्य जयवन्त हों।'
मौर्यपुत्र काश्यप इन्द्र के आवाहन पर सप्तम गणधर के सिंहासन पर आसीन हो गये । शिष्य, शिष्य-मण्डल में समाहित हो गये ।
'जयन्ती-पुत्र अकम्पिक गौतम ! तुम्हारे मन में शंका है कि नरक है या नहीं ?' __ 'मुझे अपना लिया। मुझे आरपार देख लिया। मेरा नवजन्म हो गया, भन्ते !'
'तुम नरक चाहते हो, गौतम ?' 'नहीं चाहता, भगवन् ।' 'तुम नरक से डरते हो, गौतम ?' 'डरता हूँ, भगवन् !' 'जो है ही नहीं, उसका भय क्यों गौतम ?' 'भ्रान्ति भी तो भय उपजाती है, भगवन् ।' 'भय और भ्रान्ति जब तक है, तब तक नरक है हो, गौतम ?
'क्या वह ब्रह्माण्ड में कोई स्थान है, स्वामिन् ? क्या वह कहीं प्रत्यक्ष और मूर्त है ?'
'भय और भ्रान्ति स्वभाव नहीं, विभाव है, गौतम। वह मोह-जन्य है। राग और मोह में से ही संसार परम्परित है, सौम्य ? कपाय के सूक्ष्म कर्मपरमाणु ही स्थूल पुद्गल में मूर्त हो जाते हैं । स्वर्ग, मन्द मोह का मूर्तन है। नरक तीव्र मोह का मूर्तन है। मध्य का मानव-लोक मन्द और तीव्र मोह के मिश्रण और संघर्ष का मूर्तन है। इसी से यहाँ मोक्ष का पुरुषार्थ सम्भव है।
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