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'मुझे बूझा, मुझे पकड़ लिया प्रभु ने ।'
'समयसार आत्मा में पाप-पुण्य, और अन्य पदार्थ मात्र, सारांशभूत हो कर तल्लीन हो जाते हैं । वह महासत्ता का साक्षात्कार है । पर वह समयसार समय में प्रसारित हो कर अनेक होता है । नाना भाव, नाना पदार्थ, नाना पुरुष होता है । वह अरूप महासत्ता का, रूपायमान अवान्तर सत्ता में व्यक्तीकरण है । 'एकोऽहं बहुस्याम्' श्रुति-मंत्र है । एक भी, अनेक भी । अभेद भी, भेद भी । व्यक्त मत्ता जीवन है, उसमें भाव के परिणमन अनुसार, पदार्थ और पुरुष परिणाम उत्पन्न करते हैं । असद् भाव अशुभ में मूर्त हो कर दुःख देते हैं, सद् भाव शुभ में मूर्त हो कर सुख देते हैं । यही पाप-पुण्य का द्वंद्व है । परम पुरुष पाप-पुण्य दोनों से परे होता है । तुम्हें वह होना है, हारीत ।'
'पुरुषाद्वैत का अनुभव इतना प्रबल है, भन्ते, मुझ में कि यह द्वंद्व भामता नहीं ।'
‘यह परमार्थिक अवस्था है, तू भव्य है, देवानुप्रिय । तू दिव्य है, आयुष्मान् । पर एकान्त परमार्थ ही सत्य नहीं, प्रपंच भी उतना ही सत्य है । परमार्थ ही प्रपंच में व्यक्त हो कर खेल रहे हैं । अस्ति और आवि: में विरोध नहीं है । भी सत्य है, द्वंद्वातीत भी सत्य है । अनेकान्त देख, जान और हो, भव्यमान् ।'
‘अनेकान्त देख, जान और हो रहा हूँ, मेरे भगवान् ।'
'पुण्यपाप के कोष उतार कर, निर्ग्रन्थ हो जा, हारीत । चिदम्बर हो जा, हारीत ।'
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और अपने तीन सौ शिष्य - परिकर सहित अचल भ्राता हारीत जिनेश्वरी दीक्षा में प्रवजित हो गये । देवराज ने हारीत को नवम गणधर के पद पर अभिषिक्त किया । शिष्यवर्ग परिक्रमा में उपविष्ट हुआ । जयध्वनि गुंजित हुई : 'पाप-पुण्यातीत परम पुरुष जयवन्त हों ।'
'वरुणदेवा के पुत्र, मेतार्य कौडिन्य । शंकित हो कि पुनर्जन्म है या नहीं ?' 'मेरे मन-मनान्तर के द्रष्टा, मुझे पूरा जान लिया । मेरा दर्द छू दिया, स्वामिन् ! जब पुनर्जन्म नहीं, तो जीने का अर्थ क्या ? और वेद आत्मा को केवल पंचभूत की एक विनाशी तरंग मानता है । जब आत्मा ही नहीं, तो पुनर्जन्म कैसा ? मैं हूँ ही नहीं, मेरा कोई भवितव्य नहीं, तो जिया कैसे जाये, भगवन् ? '
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