Book Title: Antarlok Me Mahavir Ka Mahajivan
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation

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Page 10
________________ Second Proof DL.31-3-2016- 10 • महावीर दर्शन - महावीर कथा . आत्माओं ने ही तब मेरी आत्मभावना की धुन-प्रस्तुति में प्राण भर दिये थे। उन के बल ने ही अंतर्लोक में सिध्धात्मा प्रभु महावीर के पदस्थ-पिंडस्थ-रूपस्थ ध्यान के द्वारा उनके रूपातीत शुध्धात्मा-ध्यान में मुझे संलीन कर दिया था और सूर-संगीत में उसकी प्रति-श्रुति झलककर अभिव्यक्त हो रही थी । तात्पर्य कि यह अल्पात्मा एक निमित्त-मात्र था, माध्यम रूप था, सर्वत्र उनका अनुग्रह ही मुझे आलोकित कर रहा था और इस प्रकार उनके अंतस्-ध्यान की महिमा और महत्ता सिद्ध कर रहा था। बहिर्जगत् की तीर्थयात्राओं में अंतर्जगत् की ऐसी अनुभूतियाँ और अभिव्यक्तियाँ, अंतस्-ध्यान ध्यानसंगीत के द्वारा प्रायः सर्वत्र होती रहीं हैं। यह सब परमगुरुओं की ही कृपा है। अंतर्लोक में महाविराट महामानव महावीर का ध्यान कितना 'त्वरित परिणामी' बनकर अंतस्-क्षेत्र की विशुद्धिपरिशुद्धि कर देने में सक्षम है उसकी यह अनेक में से एक प्रतीति है। इतना कुछ विस्तार से, सहेतु निरुपण कर उस काल की निकट वैभारगिरि-राजगृही, नालन्दा, समेतशिखर आदि की एवं तत्पश्चात् के सर्व प्रदेशों की तीर्थयात्राएँ, पदयात्राएँ, विद्यायात्राएँ, विश्वयात्राएँ सारी ही ऐसे महावीर महा-ध्यान, शुध्धात्म ध्यान के अनगिनत नित नये अनुभवों से हरीभरी रहीं, अंतस्-क्षेत्रों को लहलहाती रहीं - स्वयं के एवं सर्व के। . महावीर के महाजीवन का, अंतर्लोक में दर्शन-परिदर्शन-प्रतिदर्शन में ध्यान के अभिगम का, . उतना ही महत्त्व है जितना उनकी भक्ति का और चरित्र-ग्रंथ चिंतन स्वाध्याय का, जो कि महावीर जीवन दर्शन के चित्रणों में अल्प या प्रायः उपेक्षित रहता है। ये सारे अभिगम सही और आवश्यक, प्रभु के तप-त्याग-उपसर्ग-परिषह भी सही और उपादेय, परंतु उन सब के मूल में, उत्स-स्रोत में निहित उनका आत्म-ध्यान ? उनका दीर्धकालीन बाह्यांतर मौन-महामौन ? क्या इसे हमने विगत 2500 वर्षों में प्रायः विस्मृत नहीं किया - उपेक्षित नहीं रखा ? महावीर के बाह्य-भौतिक मंदिरों और मूर्तियों का हम पर अपार उपकार रहा, पर क्या हमने उनके, उनसे भी विराट विशाल अंतस्-ध्यान की सम्पदा को गंवा नहीं दिया? कहाँ है महावीर का सरल सहज ध्यान का अभिगम? कहाँ है उनकी महाप्राणध्यान की जीवनदायिनी प्राणधारा ? महावीर की महान परम्परा के पास ध्यान की यह महा-सम्पदा होते हुए भी हम 'एरों-गैरों-नत्थूखैरों" के पास थोड़े-से ध्यान-दान की भीख माँगते भटक नहीं रहे ? चौदह पूर्वो के ज्ञान के धनी होते हुए भी ज्ञान-विमुख विद्या-विमुख बनी हुई हमारी अवदशा की भाँति ही हम ध्यान-विमुख भी बनकर वास्तविक महावीर से कितने दूर जा रहे हैं ? मंदिरों में, तीर्थों में, तीर्थयात्राओं में अवश्य जायँ और साथ साथ इस अंतर-ध्यान-मंदिर की, अंतर्लोक की तीर्थयात्रा को भी जोड़ें। तभी हमारी तीर्थयात्राएँ पूर्ण होंगी, रत्न-दीपवत् सर्व-प्रकाश्य बनेंगी। परा-अपरा विद्याध्ययनः गुरुकुलों, शांतिनिकेतनादि विश्वविद्यालयों में अनेक जैन मुनियों-संतों-आचार्यों के संग अनेक प्रदेशों की पादविहार यात्राओं, विनोबाजी जैसे महत्-पुरुषों के चलते-फिरते विश्वविद्यालयों की पद-यात्राओं, नादानन्दजी संगीतगुरु एवं महाप्राज्ञ पं. सुखलालजी आदि के श्री चरण-निश्राओं के गुरुकुल वासों, शांति निकेतन से लेकर उस्मानिया, (10)

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