Book Title: Antarlok Me Mahavir Ka Mahajivan
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation

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Page 64
________________ Second Proof DL. 31-3-2016.64 • महावीर दर्शन - महावीर कथा • (Inti. Effect) यहाँ पर (कई) सीता-द्रौपदी चन्दनबालाएँ...। (- युगराज जैन : 'युगप्रवाह') (प्र. F) गिरे हुए मनुष्य को उठाकर, पापी-पतित-दलित का हाथ थामकर, उसमें ही निहित यह 'नर से नारायण' बनने की जन्मसिद्ध गुप्त क्षमता-सम्भावना बतलाई प्रभु ने - (कवित) "तुम अनंत शक्तिमान हो, आत्म-सामर्थ्य (के) निधान हो।" शुद्ध-बुद्ध-चैतन्यधन, साक्षात् ज्ञान (हो), सिद्धसमान हो ।" (गान M) "सर्व जीव हैं सिध्ध सम, जो समझे, बन जायँ । (BGM गुजराती) सद्गुरु-आज्ञा, जिनदशा, निमित्त कारण माँय ॥ (श्रीमद् राज. आ.सि. सप्तभाषी) (घोष) "तुम ही हो शुध्ध-सिद्ध चिद्रूप, तुम ही हो मोक्षस्वरूप...।" ("तुं छो भोक्ष स्प३५, तुं छो भोक्षस्प३५... तुं छो.)" (प्र. F) पुकार पुकार कर, दिव्य ध्वनि के ढोल बजाकर, डंके की चोट पर प्रभु ने आत्मज्ञान का यह उद्घोष किया और अपने को क्षुद्र, निर्बल माननेवाले मानव को बुलन्दी से कहा कि - (प्र. M घोष) "हाँ कह दे ,अनुभव कर ले कि - तुम देह मात्र नहीं, आत्मा हो, ब्रह्म हो, सकल ब्रह्म हो, शुध्ध-बुध्ध-सिध्ध मोक्षस्वरूप हो ! (कवि से) "दीन-हीन देह-दीन नहीं, विषय-कषाय-प्रमाद में तल्लीन नहीं । इस क्षुद्र-क्षणिक-क्षणभंगुर देह-यंत्र में लीन नहीं; देह और देह-दीनता ही तो भ्रम, तुम हो आत्मा सकल ब्रह्म;... देह-भिन्न चैतन्य स्वरूपी, मोक्ष स्वरूप परब्रह्म, मोक्ष स्वरूप परब्रह्म ।" । (Instrumental Interlude) (प्र. F) आत्मबोध, आत्मसाक्षात्कार करा देनेवाले ऐसे झकझोरते उद्बोधनों के द्वारा प्रभु एक ओर से अंतर्जगत में और जीवन की समस्त समस्याओं के निराकरण-पथदर्शनों के द्वारा दूसरी ओर से बहिर्जगत में, मानव को जगा रहे थे..... (प्र. M) अंतर्जगत और बाह्यजगत् दोनों पर सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सिध्धलोक-गामी प्रभु का प्रभाव था ..... ज्ञान-दर्शन के अक्षुण्ण (अक्षय) भंडार का आंतर्वैभव और चौंतीस अतिशयोंयुक्त अचिंत्य माहात्म्य और सामर्थ्ययुक्त प्रभु का बाह्यवैभव... ! दोनों से प्रवृत्त-प्रवर्तित उनके धर्मचक्र प्रवर्तन के अंतर्जगत् में थे - दान, शील, तप, भाव के चतुर्विध धर्मरूप जिन में बारह भावनासोलह कारण भावना आदि के द्वारा सर्वाधिक महत्ता थी भाव की ! भाव ही धन अपना, भाव, शुध्दभाव (शुभाशुभ भाव परे का शुध्धात्मभाव) ही तो था सर्वस्व !! "आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे !" "पाँच समवाय कारणों" में भी इस आत्मभावयुक्त सत्पुरुषार्थ की महत्ता !!! (64)

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