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Second Proof DL. 31-3-2016.70
• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
(प्र. F) ऐसी महाचिंता को लेकर उन्होंने प्रभु के महानिर्वाण के समय के पूर्व आकर प्रभु से प्रार्थना की - (घोष M) "हे सर्वशक्तिमान प्रभु ! एक क्षण आपका आयुष्य बढ़ा दीजिये, जिससे कि यह क्षुद्र भस्मराशि ग्रह आपकी उपस्थिति में ही आपके जन्मनक्षत्र में प्रवेश करे तो आपकी दृष्टि पड़ने से आपके शासन को कोई बाधा न हो।" (प्र. F) परंतु प्रभु ने कहा - (घोष M) "हे इन्द्र ! ऐसा आजतक न तो कभी भी हुआ है और न भविष्य में होगा कि तीर्थंकर भी अपने आयुष्य को एक क्षणमात्र भी बढ़ा सके !... तीर्थ को बाधा अवश्य होनेवाली है और वह होगी। परंतु 86 छियासी वर्ष के कल्कि राजा का तेरे द्वारा निग्रह होने पर और दो हजार वर्ष के पश्चात् भस्मराशिग्रह मेरे जन्मनक्षत्र में से निवृत्त होने पर एवं तेरे राज्य पर आसीन कल्किपुत्र धर्मदत्त के राज्य से लेकर साधु-साध्वी के पूजा-सत्कार उत्तरोत्तर वर्धमान होंगे।" (- युगप्रधान श्री भद्रबाहु स्वामी : 'कल्पसूत्र') (सूत्रघोष : प्र. F) ग्रंथ साक्षी देकर कहते हैं - (सूत्रघोष : प्र. M) "जिनमत रूपी शेर को कोई भी क्षतिग्रस्त नहीं कर सकेगा, परंतु अपने आंतरिक भेदों के कारण ही वह व्रणग्रस्त हो जायेगा !" (प्र. F) शेर ! प्रभु महावीर का लाक्षणिक 'लांछन' और सर्वोच्च निर्भय एकाकी पुरुषार्थ-सत्तामहत्ता का प्रतीक !! बिना किसी की सहाय के सदा एकाकी विचरण करनेवाला !!! उसे कौन परास्त कर सकता है? (प्र. M) ... पर वह भी, जिनमत रूपी-वीर प्रतीक ऐसा 'शेर' भी, आखिर व्रणग्रस्त हुआ... जिनशासन के भीतरी भेदों से ही वह महाप्राण-प्राणी घायल हुआ... ! प्रभु के स्वयं के आर्ष-वचन सिद्ध हुए... !! इस काल में वेदना-व्यथित वीरशिष्य श्रीमद् राजचन्द्रजी के वचनामृतों ने उनकी साक्षात् प्रतीति दिलवाती साक्षी/गवाही दी.....
(संदर्भ : परिशिष्ट वचनामृत') (वेदना-गान : भैरवी) "आपस के भेदों ने देखो,
शासन को बरबाद किया (CH) जिनशासन को (2)
जिनका था मोहताज़ जमाना, उसे मोहताज़ किया ... । आपस में हम रहे झगडते, गैरों ने आ राज किया; जिनका था मोहताज़ ज़माना, आज उसे ताराज़ किया ।"
(सौजन्य कवि रमेश गुप्ता : प्रतिकाव्य) (सूत्रघोष वचनामृत M) "आश्चर्यकारक भेद उत्पन्न हो गये है xxx इस काल में ज्ञान क्षीण हुआ है; और ज्ञान क्षीण होने से मतभेद अनेक बढ़े हैं xxx मतभेदादि कारण से श्रुत-श्रवणादि नहीं फलते ।" (श्रीमद् राजचन्द्र वचनामृत : 27) -
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