Book Title: Antarlok Me Mahavir Ka Mahajivan
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation
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महापीर दुनि-मरापीर कथा की पश्चाद भूमिका :
अंतर्लोक में महावीर का महाजीवन
प्रेरणा के परिबल एवं परम आलंबन परमगुरु
• पूर्व संस्कार
परिवार संस्कार परमगुरु संग-सत्संग का परम आलंबन परिदर्शन : अंतर्लोक में ध्यान, बहिर्लोक में अप्रमत्त प्रतिदर्शन परिशीलन ग्रंथों का : उन्मुक्त गुणग्राही तुलना-चिंतन सह प्रवास पदयात्राएँ, विद्यायात्राएँ, क्षेत्र-संस्पर्शना, तीर्थयात्राएँ, भ्रमण परा-अपरा विद्याध्ययन : गुरुकुलों विश्वविद्यालयों में शांति निकेतनादि
परिसृजन : प्रथम : 'महावीर दर्शन' का : पंथमुक्त महावीर मूल की खोज • प्रस्तुति-विशाल विश्वफलक पर : रिकार्ड रूप, प्रत्यक्ष "कल्पसूत्र" - प्रवचन-स्वाध्याय रूप . एवं कथा-रूप में। "तुं गति तुं मति आशरो, तुं आलंबन मुज प्यारो रे..... गरवा रे गुण तुम तणा श्री वर्धमान जिनराया रे....." . - उपाध्याय यशोविजयजी के ये परा-शब्द, "ते त्रिशला तनये मन चिंतवी, ज्ञान विवेक विचार वधार.. - श्रीमद् राजचन्द्रजी के ये प्रेरक-शब्द, "महावीर स्वामी, नयनपथगामी भवतु मे..." - श्री भागेन्दु के ये अंतर्ध्यान-शब्द, "आलंबन हितकारो, प्रभु तुज ।" - श्री. सहजानंदघनजी-भद्रमुनि के ये परम आलंबन शब्द, एवं ऐसे कई परा-वाणी के शब्द मेरे अंतर्गान के प्राथमिक विषय बने । फिर उन शब्दों के अर्थों, भावों, अनुचिंतनों की मेरी अंतर्-ध्यानसंगीत की सरिता बही - ॐकार की दिव्यध्वनि की - और वह ले चली एक पूर्ण आलोकमय परमपुरुष के पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ ध्यानों के पार के एक महासागर की ओर.....शब्दों, नादों, रूपस्थ सीमाओं के पार अ-शब्द, नीरव-नाद, रूपातीत 'शुध्ध-बुध्ध-चैतन्यधन स्वयंज्योति स्वरूप' का वह महासागर था - अभूतपूर्व परमदृष्टा, पूर्णपुरुष प्रभु महावीर के अनन्य, अनुपमेय महाजीवन का!
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Second Proof DL.31-3-2016-2
• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
व्य)
उसके आनंद-दर्शन का, उसमें अंत-निमज्जन का अनुभव अकथ्य !! आयक्तव्य !!!
उस 'अनुभवनाथ' को भीतर में जगाने की, उसे साक्षात् करने की, उस परम चैतन्य को इन .. जड शब्दों-गानों,से व्यक्त करने की अनुचिंतना और प्रति-फलश्रुति है इस'महावीर दर्शन' - महावीर कथा की एक झांकी वत् प्रस्तुति ।।
महावीर अनुपमेय हैं, अनन्य हैं - विराट हैं, अमाप्य हैं, सर्व से निराले, unique हैं - सबसे बड़े, फिर भी सब से निकट !
उनके महाजीवन की एक झांकी, एक झलक भी पानां हम छद्मस्थों, अल्पज्ञों, सीमाबद्धों के लिये असम्भव है।
परमगुरुओं की अंगुलि पकड़कर एवं अंतर्ध्यान की प्राणसरिता में डूबकर ही उस महाजीवन के महासागर की ओर उनके अंतस्-स्वरूप के महार्णव की ओर किंचित् जाया जा सकता है।
ऐसे अद्भुत अंतर्लोक में महावीर के महाजीवन का अल्प-सा ही दर्शन कराने जा रही है यह 'महावीर दर्शन' - महावीर कथा की शब्दकृति एवं स्वरकृति यह बाह्य भी है, आंतरिक भी, बाह्यांतर
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अंतर्लोक के अनुभव के इस सूक्ष्म उपक्रम का स्थूल आधार तो अंततोगत्वा ग्रंथ साक्ष्य ही होगा 5 परन्तु सदा ही खोज - प्रश्न रहा : ऐसे युगयुगों तक छा जाने वाले एवं लोकालोक को प्रकाशित करने वाले परमपुरुष प्रभु महावीर के महाजीवन का सर्वमान्य-सर्वस्वीकार्य - अधिकृत आधारग्रंथ कौन-सा ? - अंतिम श्रुतकेवाली युगप्रधान आचार्य भद्रबाहु का 'श्री कल्पसूत्र' - 'श्री भगवती सूत्र', 'उवसग्ग दसाओ' आदि आगमग्रंथ
कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य का 'त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र' महापुराण, 'महावीर पुराण', 'वर्द्धमान पुराणादि दिगम्बर-आम्नाय के चरित्रग्रंथों
श्रीमद् राजचन्द्र जैसे वर्तमान युगदृष्टाओं द्वारा लिखित चरित्रादि । - प्रज्ञाचक्षु डो. पंडितश्री सुखलालजी के गहन मौलिक चिंतनों
यो.यु.श्री सहजानन्दघनजी की स्वयं-वाणी-स्वरस्थ कल्पसूत्र प्रवचन ।
ग्रंथ तो अनेक । उन पर भाष्य, टीकाएँ भी अनगिनत । पर प्रतिनिधि, सर्वाधिक सत्य-निकट का, एतिहासिक सर्व स्वीकार्य तथ्यों का अधिकृत आधारग्रंथ कौन-सा ?
जहाँ अनेक मत-वैभिन्य हो, वहाँ आधार शायद दो ही हो सकते हैं :
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Second Proot DL 31-3-2016.3
• महावीर दर्शन - महावीर कथा •
१. सर्वाधिक निष्पक्ष सत्यखोजी-सत्यदर्शी सत्पुरष
"निर्दोष नरर्नु कथन मानो, तेह जेणे अनुभव्यु" - श्रीमद् राजचन्द्र - जो कि भगवान महावीर के अंतिम लघुशिष्य' रहे हैं,जिस तथ्य के अनेक साक्ष्यों में स्पष्ट साक्ष्य है भगवान के "गणधरवाद" का ही साक्षात् प्रतिरुप गुजराती 'आत्मसिध्धि शास्त्र' की अस्खलित अविच्छिन्न धारा के रुप में, एक ही बैठक में, इस काल में की गई संरचना ।गहन तुलनात्मक संशोधन इन दोनों (गणधरवादआत्मसिध्धि) का नया ही तथ्य, सत्य उजागर करेगा । इसी कृति के रचयिता के 'वचनामृतों' के महावीर जीवन सम्बन्धित अल्प भी चरित्रांकन महावीर जीवन-सम्बन्धित अधिकृत जानकारी देते हैं। ये सारे एकत्रित कर परिशिष्ट के रूप में दिये गये हैं और ये सर्व स्वीकार्य हो सकते हैं, होने चाहिये। श्री कल्पसूत्र, त्रिशष्टिशलाका पुरुष चरित्र, आदि की ये पुष्टि भी करते हैं और अपनी निष्पक्ष, निर्दोष सम्मति भी व्यक्त करते हैं, जिसके अनेक उदाहरण खोजे जा सकते हैं, यथाः महावीर जीवन में माता-पिता की आज्ञा का महत्त्व और यशोदा के पाणिग्रहण युक्त उनका विवाहित जीवन, आदि, जो कि "अविवाहित-का-सा" ही है और श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों आम्नायों के मतवैभिन्यों का निरसन कर सकता है - यदि अनेकांतवाद की दृष्टि-उदारता एवं सरल सत्य-स्वीकार-तत्परता अपनायी जाय । प्रसन्नता की बात है कि कलकत्ता के चारों जैन समाज बीच २००१ में प्रस्तुत "महावीर दर्शन" का यह अभिगम दिगम्बरों ने भी माना। २. तटस्थ, निष्पक्ष, विवेकमय सु-चिंतन के पश्चात् स्वयं के अंतर्ध्यान की गहराई में डूबकर निकाला गया निष्कर्ष - 'जिन खोजा तिन पाईया, गहरे पानी पैठ' एवं निम्न प्रेरक उक्ति के द्वारा प्राप्त :
"शुध्ध बुध्ध चैतन्यधन, स्वयंज्योति सुखधाम । बीजं कहिये केटलुं, कर विचार तो पाम ।" (- आत्मसिध्धि 117)
(और कितना, क्या, कहें ? गहन चिंतन करने से पायेंगे अपने शुध्ध बुध्ध स्वयंज्योति स्वरूप को एवं परम सत्य को ।)
तो प्रायः इन दो आधार पर गतिशील हुई है हम अल्पज्ञों के महावीर-महाजीवन के आधारभूत ग्रंथाधारों की महाजीवन यात्रा । फिर भी वह खुली है अंतर-साक्ष्य से एवं अन्य किसी बाह्य ग्रंथ साक्ष्य से साक्षात् करने, उसे अपनाने । वर्तमानकाल के सभी सुज्ञजनों, महावीर-जीवन के खोजी एवं अधिकृत ज्ञाताओं से विनम्र प्रार्थना है इस सम्बन्ध में अपना अनुभव-चिंतन, अपना अभिनव ज्ञान जोड़ने की ताकि महावीर के महाजीवन को अधिकाधिक समृध्ध, सत्याधिकृत, सर्वस्वीकृत रूप में प्रस्तुत किया जा सके। जैसा कि कई वर्तमान खोजी चिंतकों ने ठीक ही कहा है कि त्रिषष्ठि शलाका पुरुषों के अंतर्गत-समाविष्ट श्री ऋषभदेव से नेमनाथ-पार्श्वनाथ से एवं श्रीराम-कृष्णादि से श्री महावीर चरित्र अधिक समीचीन एवं हमारे जीवनकाल के अधिक निकट होकर हमारी जीवनसाधना के आदर्शरूप है । अस्तु । इस लेखक-संग्राहक अल्पात्मा की पश्चाद्भूमिका :
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• महावीर दर्शन
पूर्व संस्कार परिवार संस्कार
मंगलमय प्रभु महावीर का महाजीवन-विशेषकर महामौन एवं ध्यान से भरा हुआ उनका अंतस - स्वरुपी महाजीवन हमें सदा परमप्रिय रहा है, प्रेरणादाता रहा है, आदर्शवत् बना रहा है।
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पूर्वसंस्कार, पूर्वजन्म के संस्कार इस में निःशंक प्रथम निमित्त बने हैं यह उन पुराणपुरुषों की, परमपुरुषों की ही कितनी कृपा अनंत असीम कृपा !
महावीर कथा
फिर नित्य सिद्धचक्र आराधक, बुलन्द कंठ भक्ति-गाता प्रपिता एवं जिन-तत्त्व-संनिष्ठ पिता एवं पालने में से ही 'आत्मसिध्धि' का गान - श्रवण करानेवाली माता इन सभी ने श्रीमद् के पदों के संगीतमय गानों के द्वारा हमारी जिनभक्तिसंगीत की यात्रा बाल्यावस्था से ही प्रारम्भ करवा दी थी । परिवार के इन संस्कारों का यहाँ संकेत मात्र ही । फिर परिवार में ही युवावस्था में उपकारक पिताजी द्वारा "मोक्षमाला" ग्रंथ के प्रदान एवं मरणासन्न साधक क्रान्तिकार लघु-बन्धु (अनुज ) द्वारा एक शासनदेवता - अनुभव प्रसंग में किसी तीर्थंकर चरित्र, महावीर चरित्र के आलंबन का साधनाआदर्श-संकेत- ये सब परिवार संस्कार निमित्तरूप बनते चले ।
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हमारे सोलहवें देह - जन्मदिन पर संप्राप्त श्रीमद् राजचन्द्रजी प्रणीत इस "मोक्षमाला " ग्रंथ ने, उसके तत्क्षण- तत्काल के अमरेली (जन्मभूमि) के राजमहल उद्यान एवं स्मशान स्थान के अध्ययनअनुचिंतन ने, सद्य-जीवन को परिवर्तक मोड़ दिया। यम-नियम-संयमादि बाह्य-साधनों को अपनाने के साथ ही किंचित् अंतर्यात्राएँ भी प्रारम्भ हुईं। ये अध्ययन-अनुचिंतन- अनुशीलन के पश्चात् अंतर्ध्यान के लोक में भी कुछ कुछ गति करने लगीं - वतन के उस उथान स्मशान से प्रारम्भ होकर, बहिर्यात्राओं के बीच की अंतर्यात्राएँ। वे फैलती रहीं पूना की 'पर्वती' पर्वतिका, नालासोपारा - तुलींज की पहाड़ियाँ और भारतभर में कहाँ कहाँ पर, कि जिनका कुछ संस्पर्श आगे हम करने जा रहे हैं। तब श्रीमद्जी एवं भगवान महावीर के महाजीवनों का एक आदर्श दृष्टि-सन्मुख जागा था
"युवावय का सर्वसंगपरित्याग परमपद को प्रदान करता है ।"
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वर्तमानकालीन श्रीमद् राजचन्द्रजी एवं प्राक्कालीन भगवान महावीर दोनों के ऐसे बाह्य संसार जीवन के बीच से चल रहे आंतरिक जीवन के 'सर्वसंग परित्याग की आदर्श-धारा सतत यह गुंज- अनुगुंज जगा रही थी
"अपूर्व अवसर ऐसा आयेगा कभी, कब होंगे हम बाह्यांतर निर्ग्रथ रे,
सर्व सम्बन्ध का बन्धन तीक्ष्ण छेदकर, कब विचरेंगे महत्पुरुष के पंथ रे ?"
तो तब से, पूर्वसंस्कार- परिवार संस्कार वश यह प्रबल खोज चल पड़ी श्रीमद् जीवन- महावीर जीवन के बाह्यांतर रूपों की एवं इन "महत् पुरुषों के पंथ पर चलने की महत् पुरुषों का यह पंथ कौन-सा था यह विशद रूप से तो आगे दर्शन करेंगे। परंतु इस स्वयं खोज ने इन दोनों महत् पुरुषों को मूलाधार बनाकर, उन परोक्ष परमपुरुष परमगुरूओं के वर्तमान में प्रत्यक्ष प्रतिनिधिवत् सद्गुरुओं की शोध एवं संग की ओर आगे बढ़ा दिया ।
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परमगुरु संग सत्संग का परम आलंबन :
इस शोध में पूज्य पिताजी के द्वारा ही प्रथम परिचय हुआ मुनिश्री भुवनविजयजी (आचार्य श्री भुवनरत्नसूरि ) - योगनिष्ठ आ. श्री केसरसूरिजी के शिष्य जैन मुनि का, जिन्होंने अपने प्रभावपूर्ण प्रवचनों और श्रीमद्जी-आनंदघनजी दोनों के मस्तीभरे पदगानों के द्वारा इन दोनों का आतम - रंग हम पर एक नशे-का-सा चढ़ा दिया। इन तत्त्वपूर्ण पदों ने विराट महावीर जीवन और अद्वितीय तत्त्वबोध को पाने की जिज्ञासा बढ़ा दी ।
सद्गुरुओं के संग सत्संग के द्वारा यह जिज्ञासा धारा फिर अनेक रूपों में बहती विकसित होती गई । मुनिश्री संतबालजी "संतशिष्य" नानचंद्रजी, 'नादानंद' बापूरावजी, आचार्य विनोबाजीबालकोबाजी, चिन्नम्मा माता और परमोपकारक प्रज्ञाचक्षु डो. पंडित श्री सुखलालजी, आचार्य गुरुदयाल मल्लिकजी, आचार्य पूर्णानंदसूरिजी - विमलसागरजी निर्मलसागरजी, उपाध्याय अमरमुनिजीमुनिश्री सुशील कुमारजी, साध्वीश्री मृगावतीजी निर्मला श्रीजी, आर्थि का ज्ञानमती माताजी, श्री.जे. कृष्णमूर्ति एवं विदुषी विमलाताई, आदि आदि निकटस्थ दूरस्थ, स्मृत-विस्मृत अनेक खोजी सत्पुरुष1 महावीर के महत् पुरुष पंथ पर चलने वाले । इन सभी के अंत में फिर सर्वाधिक प्रभावपूर्ण उपकारक 'सद्गुरु रहे यो युगप्रधान श्री सहजानंदघनजी एवं आत्मा जगत्माता माताजी धनदेवीजी, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम हम्पी (कर्णाटक) के अधिष्ठाता ।
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा
उन्होंने हमारे जन्मजात, पूर्वोक्त, परमोपकारक परमगुरु श्रीमद् राजचन्द्रजी के प्रति ही अपना जीवन समर्पण कर रखा था स्वयं महावीरवत् ही इस काल में महावीर पथ पर बाह्यांतर दोनों
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रूपों से, अक्षरशः ही चलनेवाले "अप्पणाणेण मुणि होई" के आचारांग सूत्र एवं "आत्मज्ञान वहाँ मुनिपना" के आत्मसिध्धि-प्रतिमानों के अनुसार सच्चे मुनि होते हुए भी ! लघुता में प्रभुताई से भरे इस अहं शून्य समर्पित मुनिश्रेष्ठ का अंतर्भाव था -
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"अनन्य आत्मशरण-प्रदा सद्गुरु राज विदेह । पराभक्तिवश चरण में, धरं आत्मबलि एह ।"
इस गुप्त, मान- विलुप्त सत्पुरुष- सद्गुरुदेव के स्व-लिखित " उपास्यपदे उपादेयता", "अनुभूति की आवाज़", समझ-सार, आनन्दघन पदविवेचन, सहजानंद-सुधा, सहजानंद पत्रावली, परमगुरु प्रवचन- श्री कल्पसूत्र प्रवचन, दशलक्षण धर्म प्रवचन (अंतिम तीन स्वरस्थ ) आदि विशेष दृष्टव्य हैं। फिर उन पर लिखे गये इस पंक्ति लेखक के "दक्षिणापथ की साधनायात्रा", "श्री सहजानंदघन गुरुगाथा " 1 Mystic Master आदि एवं श्री भँवरलालजी नाहटा लिखित 'सिरि सहजानंद चरियं" (प्राकृत हिन्दी), आदि पुस्तक भी कुछ अधिक कहेंगे। परन्तु एक पद में प्रस्तुत उनका यह आत्मपरिचय भी सांकेतिक है -
"नाम सहजानंद मेरा नाम सहजानंद.....
"
अगम देश, अलख नगर वासी में निर्द्वद ।" (सहजानंद सुधाः १२४ )
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा •
ऐसे स्वानुभूत, महावीर के अंतर्मार्ग-ज्ञाता सद्गुरु से, परमगुरु श्रीमद् राजचन्द्रजी के अंतर्बोध को परिभाषित, प्रतिध्वनित करनेवाले तत्त्व को आत्मतत्व को पाने का हमें जो दुर्लभ योग मिला है, वह वर्णनातीत है। आत्म-स्वरुप एवं राजचन्द्रजी-भगवान महावीर दोनों के समान अंतस्-स्वरूप का उन्होंने हमें जो दर्शन कराया है वह अद्भुत है। उन्होंने अत्यंत ही सरल रूप से समझा दिया, प्रतीत करवा दिया कि श्रीमद्जी को समझना, भगवान महावीर को समझना और उन्हें आत्मसात् करना है - उन्हें अंतर्दशन में धारण करना याने अपनी आत्मा को ही समझना और पाना है।
महावीर के इस 'जिन-दर्शन' में उन्होंने बतला दिया अपनी आत्मा का ही दर्शन-निज-दर्शन। आत्मलक्ष्यधारा-प्रतीतिधारा-अनुभूतिधारा के द्वारा उन्होंने "ध्यानलीन" - सतत सर्वत्र आत्मध्यानलीन ऐसा 'महावीर दर्शन' करा दिया । 'महावीर दर्शन' अर्थात् महावीर के अंतःस्वरूप, आत्मस्वरूप का दर्शन, उनकी अनंत महिमामयी भीतरी आत्मसंपदा का दर्शन । उसी में लीन हो जाने का उन्होंने हमें एक दिन एकान्त में, अपनी पाट पर से आदेश दिया था -
"एक स्वयं में स्थित हो जाइये । सब कुछ सध जायगा उससे ।" । -कितना सुंदर उनका यह आदेश-बोध था । कितना तादृश 'महावीर-दर्शन' का निष्कर्ष !!
सद्गुरु-संग का यह परम आलंबन हमें प्राप्त हुआ । कितना सुंदर हमारा यह सौभाग्य !! यही तो बना हमारे 'महावीर दर्शन' का परम-धन, परम आलंबन !! परिदर्शन : अंतर्लोक में ध्यान, बहिर्लोक में अप्रमत्त परिदर्शन
एक आत्म-दर्शन, आत्म-स्वयं-संस्थिति ही बना अब हमारा महावीर दर्शन । उसीका चला परिदर्शन । अंतस् सृष्टि में उसीका ध्यान और बहिसृष्टि में - व्यवहार कार्य में उसका प्रतिफलन। इस तथ्य की ही प्रतीति, पुष्टि और प्रेरणा देता हुआ एक संदेश हमें मिला ।
महावीर जयंती का वह मधुर मंगल प्रभात था। प्रातः ध्यान पश्चात् अचानक, अप्रत्याशित रूप से माउन्ट आबु से कॉल आया । रिसिवर उठाते ही एक प्रबल, प्रांजल, परिचित आवाज़ सुनाई दी
"वीतराग महावीर का दिल में ध्यान लगाइए।
कषाय-मुक्त मुक्तिपंथ पर कदम बढ़ाते जाइए।" झकझोर देनेवाली यह प्रेरक आवाज़ थी - "श्रीमद्जी में पलभर का भी प्रमाद नहीं और रत्तीभर का असत्य नहीं" ऐसा 'अप्रमादयोग' का दर्शन करने-करानेवाली, सदा-सतत घ्यानलीन विदुषी दीदी विमलाजी की।
उनकी इस प्रेरक आवाज़ में "युक्ति थी कषाय-मुक्ति की" जो कि महावीर को अंतस में ध्यान लगाने के उपाय से सहज में ही सिद्ध करनी सम्भव थी।
सहजानंदघनजी एवं विमलाजी - दोनों गुरुजनों की अंतर्लोक में ध्यान की और बहिर्लोक में उसके प्रतिफलन की यह प्रक्रिया फिर एक कुंजी-सी बनकर अंधकार-अज्ञानांधकार से अवरुद्ध
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द्वारों को खोलती गई। अंतस् में ध्यान, बाहर में उसका प्रतिबिंब । प्रथम बंद आंखों से महावीर का, स्वात्मा का ध्यान और बाद में खुली आंखों से भी
"खुले नैन पहिचानो हँसी हँसी
सुंदर रूप निहारो ! साधो सहज समाधि भली" (कबीर)
खुली आंखों के सहजसमाधियत् ध्यान का परिदर्शन का, फिर उदाहरण दिया है सहजानंदघनजी ने श्रीमद्जी की सहज समाधि दशा का वर्णन करते हुए -
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सम्भव था ।..." (परमगुरु प्रवचन- १ )
"व्यापार करते हुए भी सहज समाधि थी उनकी... और व्यापार भी कितना बड़ा झवेरी बाज़ार में व्यापारी बैठे हैं... सभी को व्यापार के जवाब दिये, पर भीतर की सहज समाधि में कोई फर्क नहीं
• महावीर दर्शन
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महावीर कथा
. योगियों को कंदराओं में भी जो असम्भव, वह उन्हें मोहमयी नगरी मुम्बई में बैठकर भी
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तो यह 'परि दर्शन' हमारा भी आधार बन सकता है 'महावीर दर्शन' का महावीर के अंतस्स्वरूप दर्शन का ।
सद्गुरु- परमगुरु- संकेतित, प्रेरित इसे परिदर्शन के विषय में अनेक निष्पत्तियाँ और अनुभूतियाँ हैं, जो स्थल-मर्यादा के कारण यहाँ अधिक सम्भव नहीं । (देखें, "जिनभक्ति की अनुभूतियाँ" ) ग्रंथों का परिशीलन - अध्ययन उन्मुक्त दृष्टि से :
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उपर्युक्त परिदर्शन' की बाह्यांतर ध्यान की दृष्टि पूर्वक हमारा बाह्य साक्ष्य पाने ग्रंथ परिशीलन भी सदा चलता रहा महावीर के विराट महाज़ीवन विषयक । इस उपक्रम में पूर्वेक्ति आधारभूतसर्वाधिक आधारभूत महावीर जीवनी ग्रंथ की खोज लगातार बनी रही। सारे सूचित ग्रंथ और जब जब, जो जो मिलते गये, उन सब की । यह खोज अब भी जारी ही है। किसी अध्येता का, विद्वान महाशय का कुछ भी साहित्य उपलब्ध होता है तो हम सानन्द उसका सार पा लेते हैं - जिज्ञासा, गुणतथ्य-ग्राहकता एवं तुलनात्मक उन्मुक्त चिंतन सह ।
परिभ्रमण, प्रवास, पदयात्राएँ, विद्यायात्राएँ, क्षेत्र - संस्पर्शनायुक्त तीर्थयात्राएँ :
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पुण्ययोग से इन सब के अवसर, अनेक रूपों में, बाल्यावस्था से ही प्राप्त होते रहे । भगवंत के महाजीवन के अध्ययन - परिदर्शन की खोज चली तब से तो एक विशेष दृष्टि बनी रही । सभी क्षेत्र प्रदेशों के सभी तीथों में महावीर जीवन से सम्बन्धित वैशाली, राजगृही, पावापुरी, नालन्दा, आदि आदि प्रभु पदधूलि घूसरित भूमियों का संस्पर्श प्रत्येक बार नित्यनूतन दर्शन कराता रहा, अभिनव अनुभूतियों को जगाता रहा, प्रभु महावीर के अंत: स्वरूप में प्रवेश कराता रहा, नितनये चेतना - संचार कराता रहा । इन बाह्यांतर दोनों प्रकार की यात्राओं से मेरे अंतर्र्लोक में महाध्यानी महावीर का एक अभूतपूर्व विराट, विरल स्वरूप संस्थापित होता रहा । इन अंतरानुभवों की अभिव्यक्ति असम्भव
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
होते हुए भी यदा कदा, कहीं कहीं वह प्रस्फुटित होती रही। इन आनन्दानुभूतियों से युक्त कई कवित्त फूटते रहे, "वन्दन है, हे त्रिशलानन्दन !" एवं "हे वीतराग । हे वर्धमान ॥" एवं "प्रभु वीर ने विदा जब जग से ली थी... ।" - जैसे कई गीत प्रसूत होते रहे, "ध्यानस्थ होते थे जब महावीर" एवं "मेरे मानसलोक के महावीर" जैसे कई गद्यलेख और पावापुरी की पावन धरती से "Mahavira-The Magnificent MasterTeacher of the World", "Universal Visonaries of World-welfare" आदि अनेक निबन्ध भी लिपिबद्ध होते रहे।
ऐसी सारी सृजन-सम्पदाओं के मूल-उत्स में थीं तीर्थों की अनेक क्षेत्रसंस्पर्शनाए । कहीं ये स्पर्शनाएँ केवल तीर्थयात्राओं के रूप में, तो कहीं महावीर जीवन सम्बन्धित परिसंवादों, साहित्य समारोहों, गोष्ठियों, राष्ट्रीय-आंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों, तो कहीं हमारे 'ध्यान-संगीत' - संगीत द्वारा ध्यान-आत्मध्यान-महावीर ध्यान की प्रस्तुतियों के विविध रूपों में चलती रहीं। स्वयं को तो ये सारी "स्वान्तःसुखाय" एवं "सद्यः परिनिवृत्तिये" सिध्ध हुई हीं, परन्तु साथ साथ अन्यों को भी। वर्षों पूर्व के २५०० वे महावीर निर्वाण वर्षान्तर्गत, प्रभुनिर्वाण दीपावली की रात्रि का पावापुरी जलमन्दिर परिसर में प्रस्तुत हमारा रातभर से प्रातः तक चला हुआ सितारवादन-युक्त मस्तीभरा "धूनध्यानसंगीत" श्रोताओं को भी परमात्मा के उस दिव्यलोक की अंतर्यात्रा कराने में सक्षम बना रहा ।यह प्रभु महावीर और उनके पद-पथानुसारी महत्पुरुषों-परमगुरूओं की ही कृपा ।अनेक अ-लिखित अनुभवों में से, तत्कालीन एक श्रोता का यह है चिर-स्मरणीय अनुभव : पावापुरी के जलमन्दिर पर...........
"दिगम्बर-श्वेताम्बर सभी मन्दिर जगमग-जगमग कर रहे थे, छोट-छोटे रंगीन बल्बों के प्रकाश में । सारा वातावरण थिरक रहा था वाद्य-यन्त्रों पर गाये जाने वाले मधुर भजनों की लय पर । जलमन्दिर में प्रवेश करते ही देखा रंगमण्डप के मुख्य द्वार पर बंगलोर से आये श्री प्रतापसिंहजी टोलिया अपनी सितार पर भाव-विभोर कुछ ऐसा गा रहे थे कि सारी सभा बाह्य जगत् को भूलकर अन्तर्जगत् में स्तब्ध थी। कुछ ही देर बैठने पर लगा जैसे हम भी समाये जा रहे थे उसी मोहक समाँ में । जब उन्होंने "देह विनाशी मैं अविनाशी" की पुनरावृत्ति प्रारम्भ की तो कौन ऐसा होगा जो समाधिस्थ न हुआ हो ? उनकी विश्वासभरी भावभरी मधुर आवाजने अभिभूत कर डाला था मेरे समस्त अन्तःकरण को । संगीत समाप्त होते ही ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी अक्षय आनन्दलोक से पुनः उतर पड़ी इसी चिन्ताभरी कोलाहलपूर्ण धरती पर...।" - ध्यानसंगीत की अनजान श्रोता स्व. श्रीमती राजकुमारी बेगानी अपनी पुस्तक
"यादों के आईने में" (1975) आनन्दलोक के अन्तर्जगत में ले जानेवाली प्रभु महावीर के परिनिर्वाण की जलमन्दिर की यह
पावापुस.क.
लमान्दर.पर.....
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा •
पावन-धरा स्वयं परमात्मा के पवित्र देह परमाणुओं के भस्मकणों के उपरान्त ऐसे ही कुछ समाधिमय देहविलय के पावन परमाणुओं से भी धूलि-घूसरित एवं धन्य बनी हुई थी।
वह रोम-हर्षक घटना जो इसी जलमन्दिर की धरती पर घटी थी वह थी १९७५ के इस २५०० वे वीरनिर्वाण से ठीक २२ वर्ष पूर्व की-अगस्त १९५३(श्रावण-शुक्ला १०, बुधवार, वि.सं. २००७) की।
वह असामान्य घटना थी प्रभु महावीर के ही पचिह्नों पर चलनेवाली, "देह विनाशी मैं अविनाशी" की आत्मभावना की धुन को पूर्णतः साकार करनेवाली एक आत्मदृष्टा जैन साध्वी के निराकार परब्रह्म के साक्षात्कार-शुध्ध बुध्ध स्वयंज्योति आत्मा के साक्षात्कार के उपरान्त संप्राप्त समाधि मरण की, 'मृत्यु महोत्सव' की।
इसी जलमन्दिर पर "मैं अविनाशी" की धुन के पश्चात् हमने श्रीमद् परमगुरु-प्रदत्त "आतमभावना भावतां जीव लहे केवल ज्ञान रे" की दूसरी धुन और तत्पश्चात् महायोगी आनन्दघनजी प्रदत्त "अब हम अमर भये न मरेंगे" की तीसरी धुन जो प्रस्तुत कर जमायी थी, उन्हीं धुनों को हम से कईगुना आत्म-मस्ती में जमाया-आद्यान्त दोहराया था और परम हंस दशा की, शुध्धात्मा की, सिध्धात्मा की प्रभु वीर की अंतर्दशा का मानों आधार-आलंबन-सी आत्मावस्थाभरी समाधि-मृत्यु को पाया था - उस साध्वी श्री सरला ने !
तब उसके अंतर्लोक में था प्रभु महावीर प्राप्त आत्म-ध्यान का आदर्श और बहिर्जगत् में था श्रीमद्सद्गुरु की "आतमभावना" धुन के प्रत्यक्ष-प्रदाता सद्गुरु श्री सहजानंदघनजी का सान्निध्य !!
महाभाग्यवान भी कैसी स्वनाम-धन्या यह साध्वी सरलात्मा श्री सरला, कि जिसने आत्मभाव को भाते हुए, अपने सद्गुरु के सन्मुख ही एवं प्रभु महावीर की इस पावन परमाणु धरा पर ही अपना देहत्याग किया ! उनके इस मंगल मृत्यु महोत्सव पर उन्हें अभिवन्दना करते हुए उनके ही इस सद्गुरु ने भी लिखा था0"जिस देह को अवतारी पुरुष भी कायम नहीं रख सके उस देह को ये क्षुद्र-पामर जीव कैसे स्थायी रख सकते हैं? वह जब-तब और जहाँ-तहाँ वस्त्र की भाँति देह से अलग होता है । उसमें सरला ने तो महान योगी पुरूषों की भाँति आत्म-स्थिति जागृत कर देह छोड़ा है। सम्यग् दर्शन जिसकी आत्मा में प्रकाशित हुआ था ऐसी श्री सरला की आत्मा को आत्मभावना से उल्लसित प्रेम से नमस्कार हो । नमस्कार हो !"
- यो.यु.श्री सहजानंदघनजी : 19-8-1953 को लिखित पत्र में । इस सम्यग् दर्शन-आत्मदर्शन को अपनी आत्मा में प्रकाशित करनेवाली की समाधि-मृत्यु एवं इसी आत्मदर्शन को परिपूर्ण रूप से सिध्ध और सु-प्रकाशित करनेवाले परमात्मा महावीर के परिनिर्वाण से सम्बन्धित जलमन्दिर के प्रभु चरणों की धन्य-धरा पर मैं पहुंचा था । अपनी ध्यानसंगीत-धुनध्यान की अंतर्यात्रा आरम्भ करने से पूर्व उस दीपावली की रात्रि को इन महान आत्माओं और अपने परमगुरुओं की प्रेरक आत्माओं का स्मरण-वन्दन किया था । इन सभी आत्म-वैभव संपन्न महान्
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
आत्माओं ने ही तब मेरी आत्मभावना की धुन-प्रस्तुति में प्राण भर दिये थे। उन के बल ने ही अंतर्लोक में सिध्धात्मा प्रभु महावीर के पदस्थ-पिंडस्थ-रूपस्थ ध्यान के द्वारा उनके रूपातीत शुध्धात्मा-ध्यान में मुझे संलीन कर दिया था और सूर-संगीत में उसकी प्रति-श्रुति झलककर अभिव्यक्त हो रही थी । तात्पर्य कि यह अल्पात्मा एक निमित्त-मात्र था, माध्यम रूप था, सर्वत्र उनका अनुग्रह ही मुझे आलोकित कर रहा था और इस प्रकार उनके अंतस्-ध्यान की महिमा और महत्ता सिद्ध कर रहा था।
बहिर्जगत् की तीर्थयात्राओं में अंतर्जगत् की ऐसी अनुभूतियाँ और अभिव्यक्तियाँ, अंतस्-ध्यान ध्यानसंगीत के द्वारा प्रायः सर्वत्र होती रहीं हैं। यह सब परमगुरुओं की ही कृपा है। अंतर्लोक में महाविराट महामानव महावीर का ध्यान कितना 'त्वरित परिणामी' बनकर अंतस्-क्षेत्र की विशुद्धिपरिशुद्धि कर देने में सक्षम है उसकी यह अनेक में से एक प्रतीति है। इतना कुछ विस्तार से, सहेतु निरुपण कर उस काल की निकट वैभारगिरि-राजगृही, नालन्दा, समेतशिखर आदि की एवं तत्पश्चात् के सर्व प्रदेशों की तीर्थयात्राएँ, पदयात्राएँ, विद्यायात्राएँ, विश्वयात्राएँ सारी ही ऐसे महावीर महा-ध्यान, शुध्धात्म ध्यान के अनगिनत नित नये अनुभवों से हरीभरी रहीं, अंतस्-क्षेत्रों को लहलहाती रहीं - स्वयं के एवं सर्व के। . महावीर के महाजीवन का, अंतर्लोक में दर्शन-परिदर्शन-प्रतिदर्शन में ध्यान के अभिगम का, . उतना ही महत्त्व है जितना उनकी भक्ति का और चरित्र-ग्रंथ चिंतन स्वाध्याय का, जो कि महावीर जीवन दर्शन के चित्रणों में अल्प या प्रायः उपेक्षित रहता है। ये सारे अभिगम सही और आवश्यक, प्रभु के तप-त्याग-उपसर्ग-परिषह भी सही और उपादेय, परंतु उन सब के मूल में, उत्स-स्रोत में निहित उनका आत्म-ध्यान ? उनका दीर्धकालीन बाह्यांतर मौन-महामौन ? क्या इसे हमने विगत 2500 वर्षों में प्रायः विस्मृत नहीं किया - उपेक्षित नहीं रखा ? महावीर के बाह्य-भौतिक मंदिरों और मूर्तियों का हम पर अपार उपकार रहा, पर क्या हमने उनके, उनसे भी विराट विशाल अंतस्-ध्यान की सम्पदा को गंवा नहीं दिया? कहाँ है महावीर का सरल सहज ध्यान का अभिगम? कहाँ है उनकी महाप्राणध्यान की जीवनदायिनी प्राणधारा ? महावीर की महान परम्परा के पास ध्यान की यह महा-सम्पदा होते हुए भी हम 'एरों-गैरों-नत्थूखैरों" के पास थोड़े-से ध्यान-दान की भीख माँगते भटक नहीं रहे ? चौदह पूर्वो के ज्ञान के धनी होते हुए भी ज्ञान-विमुख विद्या-विमुख बनी हुई हमारी अवदशा की भाँति ही हम ध्यान-विमुख भी बनकर वास्तविक महावीर से कितने दूर जा रहे हैं ? मंदिरों में, तीर्थों में, तीर्थयात्राओं में अवश्य जायँ और साथ साथ इस अंतर-ध्यान-मंदिर की, अंतर्लोक की तीर्थयात्रा को भी जोड़ें।
तभी हमारी तीर्थयात्राएँ पूर्ण होंगी, रत्न-दीपवत् सर्व-प्रकाश्य बनेंगी। परा-अपरा विद्याध्ययनः गुरुकुलों, शांतिनिकेतनादि विश्वविद्यालयों में
अनेक जैन मुनियों-संतों-आचार्यों के संग अनेक प्रदेशों की पादविहार यात्राओं, विनोबाजी जैसे महत्-पुरुषों के चलते-फिरते विश्वविद्यालयों की पद-यात्राओं, नादानन्दजी संगीतगुरु एवं महाप्राज्ञ पं. सुखलालजी आदि के श्री चरण-निश्राओं के गुरुकुल वासों, शांति निकेतन से लेकर उस्मानिया,
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बनारस एवं गुजरात विश्व विद्यालयों, पूना- हैद्राबाद - अहमदाबाद - ग्वालियर आदि के संगीत विद्यालयों, लीकांचन पूना जसीडीह- कलकत्ता-हैद्राबाद आदि के नैसर्गिक चिकित्सालयों, इत्यादि अनेक स्थानों में हमारी परा अपरा दोनों प्रकारों की विद्या प्राप्ति की जिज्ञासा पूर्ति का सुदीर्घ पुरुषार्थं चला। उसकी भी लंबी कहानी है। परन्तु इन सभी के बीच हमारी आत्मखोज एवं महावीर खोज की कहीं विस्मृति नहीं हुई किसी को इस काल में शायद ही लाभ प्राप्त हुआ है। ऐसा अनेक क्षेत्रों के, अनेक महान गुरूजनों का हमें अपार लाभ प्राप्त हुआ । यह सारा जन्मजात जिनधर्म का, उपकारक माता-पिता का एवं महान उपकारक परमगुरुओं का ही प्रताप और परमोपकार ! इस गुरुगम से संप्राप्त तत्त्वदर्शन, साहित्य, संगीत, निसर्गोपचारादि अनेक परा अपरा विद्याओं के साथ सदा ही उपर्युक्त आत्मखोज और आत्मार्थ दृष्टि सजग बनी रही, बन सकी, यह हमारा अवश्य ही परम सौभाग्य ।
• महावीर दर्शन महावीर कथा
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अध्ययन-काल के पश्चात् महाविद्यालयों के विविध स्थानीय दीर्घ अध्यापन-काल और लेखनसम्पादन काल में भी यह दृष्टि स्थायी रही और ध्यान-धारा भी नित्यनूतन रूपों में प्रवाहित होती रही । इसका भी फिर एक इतिहास है।
इन सभी से फिर निष्पन्न हुई जिनभक्ति, जिन-ध्यान, जैनदर्शन साहित्यादि आधारित संगीतधारा, ध्यान-संगीत धारा : श्री आत्मसिध्धि एवं श्री भक्तामर स्तोत्र से लेकर शताधिक रिकार्डों के निर्माण के रूप में ।
यहाँ भी जिन चरित्र महावीर चरित्र केन्द्रस्थ रहे ।
इसी बीच देश-विदेश में गुरुकृपा से २५ बार हमारा 'कल्पसूत्र' पर्युषण-प्रवचन क्रम चला । परिसृजन प्रथम 'महावीर दर्शन' का, पश्चात् 'दादागुरु दर्शन', 'बाहुबली दर्शन' आदि का पंथमुक्त संप्रदायातीत महावीर मूल की खोज का
उपर्युक्त सारी विद्या-साधनाओं, तीर्थयात्राओं, ग्रंथानुशीलन, गुरुगम मार्गदर्शनों एवं स्वानुभवध्यानों की फलश्रुति रूप एक दर्शन-अंतर्दशन हुआ महावीर के अंतर स्वरूप का उस दर्शन के केन्द्र में सर्वत्र प्रकाशित और ध्वनित होता रहा उनके आत्मज्ञान का सर्वोपरि घोषमंत्र 'जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ " । इसी के ईर्दगिर्द, प्रमुख रूप से श्री कल्पसूत्र एवं श्रीमद् राजचन्द्रजी के आत्मदर्शन आधारित महावीरजीवन एवं दर्शन का सहज रूप से निर्माण होता चला महावीर दर्शन (हिन्दी LP) के प्रथम परिसृजन के रूप में 2500 वे निर्वाणोत्सव समय । तब से हमने कालेज- अध्यापन का (सत्य सांईबाबा कालेज विभागाध्यक्ष कार्य का ) सदा के लिये त्याग कर भगवान महावीर एवं जिनवाणी सरस्वती के चरणों में (जोखिम भरा फिर भी प्रसन्न ) जीवन समर्पण किया। प्रतिकूलताओं के बीच से भी हमारी जीवन यात्रा चली। दिवंगता विदुषी ज्येष्ठ सुपुत्री कु. पारुल ने म.द.का अंग्रेजीकरण किया और जीवनसंगिनी सुमित्राने गुजराती रूपांतरण । 2600 वे महावीर जन्मोत्सव (2001) कलकत्ता से लेकर अब विशाल विश्व फलक पर प्रस्तुत है हमारा महावीर दर्शन महावीर कथा महाजीवन । प्रा. प्रतापकुमार ज. टोलिया (बेंगलोर, 21-3-2016)
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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• महावीर दर्शन
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अंतिमा :
अंत में, इस प्रकार विशाल विश्व स्तर पर महावीर दर्शन महाजीवन कथा प्रस्तुत करने जाते समय हमें थोड़ा-सा विनम्र प्रतिपादन करना है। हमारी स्वयं की इस सृजन की पश्चाद्भूमिका स्पष्ट करते हुए और हमारे भीतर के "अंतलॉक में विराजित सर्वज्ञ सर्वदर्शी, सर्वस्पर्शी महाष्यानी महावीर" की स्वल्प झलक का प्रकट प्रतिदर्शन कराते हुए, सार-संक्षेप के रूप में, हमें जो कहना है वह यह है :
महावीर कथा
हम अल्प होते हुए भी महावीर, महावीर की अंतर्चेतना, महावीर की महाध्यान- सम्पदा, महावीर की आत्मज्ञान- केन्द्रित अलख अलौकिक अनन्य-अद्वितीय साधना हमारे लिये सब कुछ है, आदर्श रूप है। महावीर दर्पण में, महावीर के दर्शन-प्रतिदर्शन में, हमें अपना-अपनी सिद्ध समान शुद्धात्मा को देखना है। वे ही हमारे गति-मति हैं, वे ही हमारे आश्रय-आलंबन -
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"तू गति, तू मति, आशरो, तू आलम्बन मुज प्यारो रे; 'वाचकयश' कहे माहरे, तू जीव जीवन आधारो रे...... गरवारे गुण तुम तणा श्री वर्धमान जिनराया रे
सुणतां श्रवणे अमी झरे, मारी निर्मल थाये काया रे " ( यशोविजयजी)
ऐसे निर्मलता प्रदायक, जीव जीवन आधार रूप हैं महावीर । (ये) महाकरुणावंत महालोकालोक प्रकाशक, महाध्यानी- महाज्ञानी महा तपस्वी महावीर का जीवन-मध्यवर्ती केन्द्र, मर्मरहस्य, सर्वोपरि साध्य क्या था ? आत्मा ! अनंत वीर्य आत्मा !! सर्वकाल सर्व समयों का सार आत्मा !!! इस आत्म-केन्द्रित ध्यानमय अप्रमत्त आराधना थी उनका पुरुषार्थ - साधना । ऐसे सत् पुरुषार्थ सतत सजग पुरुषार्थ से ही वे मानव से 'महामानव' बने । बस ये महापुरुषार्थी महावीर, मानव से महामानव और महामानव से महासिद्ध बनकर ऊर्ध्वलोक-सिद्ध लोक के सर्वोच्च सिद्धपद पर विराजित महावीर हमारे अंतर्लोक में भी सदा-सर्वदा विराजित हैं । हृदयकमल-सिंहासन-आरुढ़ ये अनंत असीम सिद्ध परमात्मा अपने वर्तमान में प्रवर्तमान प्रतिरूपों से हमें नित्य अपने संदेश- आदेशआज्ञा भेजते रहते हैं - उनके ध्यान के द्वारा एवं उनके इन वर्तमान प्रतिरूपों, प्रतिनिधियों के द्वारा उनके ऐसे अनेक प्रतिरूप, प्रतिनिधि स्वरूप हैं उन्हीं की आदेशाशा आरूढ़, उन्हीं के पदचिह्नों पर सतत अप्रमत्त सत्-पुरुषार्थ लिये चली हुई कुछ सिध्धसमान धन्य आत्माएँ, जिनके सिध्ध-स्वराजमय संगीत - साज से यह दिव्यध्वनि झंकृत होती रहती हैं:
"सर्व जीव हैं सिध्ध सम, जो समझे बन जाहिं ।
सद्गुरु आज्ञा, जिनदशा, (दो) निमित्त कारण मांहि ॥"
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(- श्रीमद् राजचन्द्र : आत्मसिध्धि शास्त्र 135 )
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
ऐसी सर्व सिद्ध समान वर्तमान धन्यात्माओं का स्मरण, दर्शन-स्पर्शन, वन्दन करते हुए इस काल में, हमारे जीवन में सर्वाधिक उपकारक, सर्वाधिक निकट बने हुए "परमपुरुष प्रभु सद्गुरु" जन का परम सौभाग्य, परम सान्निध्य, परम उपकार प्रतिवेदित किये बिना हम कैसे रह सकते है ? महापुरुषार्थी महामानव महावीर का ही प्रतिरूप, प्रतिनिधि स्वरूप, प्रति-दर्शन हमने उनमें पाया है यह हमारा महाभाग्य है।
इन अनेक वर्तमानकालीन प्रकट-अप्रकट पूजनीय परमपुरुष परमगुरूओं के प्रत्यक्ष दर्शन, निश्रागत सान्निध्य, समागम-गुरुगम-साक्षात्कार का हमें परम लाभ प्राप्त हुआ है । प्रायः उन सभी में हमें महावीर की अंतरचेतना के सतत अप्रमत्त पुरुषार्थ साधना के ही दर्शन हुए - कहीं आंशिक, कहीं अधिक समग्र संपूर्ण रूप में । नाम कितने गिनायें ?.... उन सभी में महावीर की करुणा और अहिंसा-अपरिग्रही अकिंचनता-अनिकेतता को युगानुरूप नवरूप में प्रकट-प्रतिबिंबित करनेवाले महात्मा गांधीजी-आचार्य विनोबाजी, महावीर के अनेकांतिक अनेकरूपी मर्मों को - रहस्यभरे जीवनदर्शन को अनगिनत ग्रंथों के गहन सागर में जीवनभर डूबे रहकर अनमोल मोती खोज ले आनेवाले महाप्राज्ञ प्रज्ञाचक्षु पंडित श्री सुखलालजी, महावीर के प्रेम, भूपदया, प्रकृतिप्राणीदया, मानवसेवा, विश्वकरुणा को अपने जीवन में उतारनेवाले रवीन्द्रनाथ के अंतेवासी गुरुदयाल मल्लिकजी, आनंदघनजी के आतम-रंग-प्रदाता-पदों के द्वारा पदस्थ-ध्यान की ओर अग्रसर करानेवाले आचार्य श्री भुवनरत्नसूरिजी, तंबूर पर भक्तिसंगीत-मस्ती सिखानेवाले बालकोबाजी एवं सितार पर नादसंगीत शिक्षादाता नादानंद बापूरावजी, फिर "नादानंद", "शब्दानंद" से भी पार "आत्मानंद" का दर्शन करानेवाली ('अन्यलिंगी सिध्धवत्' होकर भी) और महावीर की आत्म- तत्त्व चेतना एवं चिन्तना को चिरंतन बनानेवाली अज्ञात ज्ञानयोगिनी चिन्नम्मा माता; महावीरवत् अनेक गुप्त-तपस्याएँ, प्राणीकरुणा एवं महावीर वत् उपसर्गों-परिषहों बीच आत्मध्यानधारा को अखंड रखकर, आतमभावना भक्ति की प्रसन्न-मस्ती जगाकर, देहभान को स्वयं भूलने अवं सर्व को भुलानेछुड़ानेवाली, "प्रसिध्धि-निस्पृही-निष्कामी" "जगत्माता" आत्मज्ञा धनदेवीजी; महावीर की आत्मभाव-चेतना-ऊर्जा को अपने जीवन में आत्मसात् कर उनके ही निर्वाणस्थान पावापुरी जलमंदिर पर आत्मसमाधिमय देहत्याग करनेवाली साध्वी रत्ना सरलाजी और महावीर के अंतरस्थ ध्यान द्वारा कषाय-मुक्त मुक्तिपथ की मार्गदर्शिका बनकर, अपने जीवनयोग के द्वारा आत्मा का देहातीत स्वरूप साक्षात् कर माउन्ट आबु पर विदेहस्थ बननेवाली विदुषी दीदी विमलाजी-कित कितने नाम लें ? सूची अधूरी ही रहती है !
इन सर्व में हमारे इस जीवन पर सर्वाधिक साक्षात् प्रभाव डालने वाले और महावीर चेतना को अधिकाधिक प्रवाहित एवं पुष्पित करने वाले प्रेरणादाता और ही थे।
वर्तमानकाल में महावीर के सर्व साधना-गुणों को अपने जीवन में उतारनेवाले, जीवन जीने की महावीरवत् ही संपूर्ण साधना-पर्युपासना करने वाले, महावीर-बोध को अधिकारिक रूप से स्वयं आत्मसात् कर व्यक्त करने वाले ये दो सत्पुरुष-सद्गुरु हमें प्राप्त हुए यह हमारा परम सौभाग्य, परम
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
पुण्योदय । दूरस्थः काल-दृष्टि से 2500 वर्ष पूर्वस्थ एवं क्षेत्र-दृष्टि से ऊर्ध्वलोकस्थ ऐसे 'महतोऽपि महीयान' महामानव महावीर का महावीरवत् प्रतिरूप हमने इन दोनों में अंश रूप में - लघु रूप में देखा है। महावीर महान हैं, निस्सन्देह महान हैं, महासिद्ध हैं, पर वे अब दूर हैं... बहुत दूर... पहुँच के बाहर ऊपर सिद्धालय में...! वे सागर-महासागरवत् हैं, परन्तु उनसे ही निर्मल शीतल जल पाये हुए ये दोनों परमपुरुष छोटे-से जलकलश रूप ही सही, निकट हैं, हमारी अंतस्-तृषा मिटाने में, हमें हाथ पकड़ कर ऊपर उठा ले जाने में अपनी अंगुलि पकड़वाकर महावीर का दर्शन-अंतर्दर्शन, प्रतिदर्शन-परिदर्शन पूर्णरूप से कराने में समर्थ हैं। कौन हैं ये परमपुरुष ?
एक तो इस काल में, इस क्षेत्र में महावीरवत् महावीर का-सा ही साधना जीवन (उदयानुसार बाह्यदशा भिन्न होते हुए भी अंतर्भावदशापूर्वक, अप्रकट, गुप्त, मौन रूप से) जीनेवाले, उनकीसी ही अंतर्ध्यान-आत्मसातत्य की अप्रमाद-युक्त आराधना अपनाये हुए, परम ज्ञानावतार युगप्रधान, निष्कारण करुणावंत परमकृपालुदेव श्रीमद् राजचन्द्रजी... । विमला ताई के शब्दों में उनके आत्मजागृत जीवन में "पलभर का भी प्रमाद और रत्तीभरका भी असत्य नहीं था।"
और दूसरे हैं - श्रीमद्जी को ही अनन्यभाव से समर्पित, स्वयं मुनिवेश एवं देव-प्रदत्त "युगप्रधानपद" - धारक होते हुए भी प्रभुश्री लघुराजजी वत् लघुताधारी, अहंशून्य, विनम्रतामूर्ति ऐसे योगीन्द्र श्री सहजानंदघनजी-भद्रमुनि ।
एक महावीरवत् ही आत्म-सम्पदा-बीज सम्पन्न, उदयाधीन अवशिष्ट कर्मयोगी गृहवासी-रल व्यापारधर्मी, 'अपूर्व अवसर' आकांक्षी, 'आत्मसिद्धि' - संप्राप्त ऊर्ध्वरेता-जिन्होंने बीच बीच में महावीरवत ही कुछ वनप्रदेशों, ईंडर आदि पहाड़ियों में एकाकी मौन ध्यानपूर्वक विचरण कर बाहरीभीतरी अंतर्गुफाओं में प्रवेश कर, समाधिस्थ बन, महावीर के अंतस्-स्वरूप की आत्म चेतना को प्राप्त किया। प्रायः गुप्त और अप्रकट रहकर गांधीजी, लघुराजजी, सौभागजी, अंबालाल, जुठाभाई आदि थोड़े ही 'अधिकारी' जनों को वह आत्म-चेतना प्रदान कर तैंतीस वर्ष की अल्पायु में ही 'बीजकेवली दशा' प्राप्त कर, आत्मस्वरूप में लीन होकर, उन्होंने महाविदेह क्षेत्र को प्रयाण कर दिया - पूर्ण परमपद-प्राप्ति की आगामी यात्रार्थ । ___ दूसरे, महावीर और श्रीमद् दोनों के पचिह्नों पर चलने, युवावस्था से ही, स्वयं पूर्वजन्म-साधना के अंतरादेशानुसार, "सर्वसंगपरित्यागी" प्रथम मुनिदीक्षाधारी एवं पश्चात् गिरिकंदरा-गुफावासी। इन दोनों के एक एक पद, एक एक वचनामृत, महावीर बोध की ही प्रतिछाया रूप हैं।
इस पंक्तिलेखक अल्पात्मा के लिये तो प्रथम सत्पुरुष थे ध्यानगम्य पूर्वजन्म-परोक्ष (पर जन्मजात परिचित-से !) और दूसरे वर्तमान जन्म-प्रत्यक्ष (अल्प-कालखंड के लिये भी सही !) दोनों की अनुभूति-प्रतीति-लक्ष्यधारा ने हम जैसे अल्पज्ञों को भी परिप्लावित कर दिया। अपनी छोटी-सी धारा को बढ़ा दिया ।
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा •
प्रधानरूप से, पूर्वोक्त अन्य उपकारक परमपुरुषों के उपरान्त एवं ग्रंथादि अन्य परिबलों के बावजूद, इन दोनों परमगुरुदेवों के गुरुगम से प्राप्त तत्त्व दृष्टिदान से - आत्मानुसंधानयुक्त अंतर्ध्यान से - इन दोनों के साक्षात् महावीरवत् जीवनदर्शन से परिनिर्मित हुआ है यह महावीर-दर्शन, महावीरमहाजीवन-संदर्शन, महावीर कथा गान निरुपण । इसमें हमारा प्रायः कुछ नहीं, मेरा मुझमें कछु नहीं
सुदूर अतीत से महावीर के महाजीवन की प्रेरणा परिकल्पना और अंतरचेतना, इन दोनों के वर्तमान के जीवन से हमें मिली । महावीर की आत्म-स्वरूप आधारित, अंतर्-बाह्य मौनध्यान युक्त, अप्रमत्त जीवन साधना कैसी "परिस्थिति-प्रभाव मुक्त" ज्ञाता-दृष्टा भावयुक्त हो सकती है और सत्पुरुषार्थआत्मभान के द्वारा आज वर्तमान में भी सम्भव और सिद्ध हो सकती है, यह हमने इन दोनों से जाना, समझा और सीखा । उन सबका प्रतिदर्शन है यह छोटा-सा "महावीर दर्शन" । इसमें सर्वत्र इन दोनों की आत्मानुभूतियाँ-प्रतिध्वनित हैं।
उपर्युक्त ग्रंथाधार, अध्ययन-अनुशीलन प्रबुद्धजन-विचारविमर्श, एतिहासिक जीवनस्थान-क्षेत्रसंस्पर्शन, स्वयं के अंतर्लोक में ध्यान-साधन, आदि अन्य परिबल इस गुरुगम की पूर्ति में ही हैं।
महावीर-प्रणीत आगमज्ञान, आत्मज्ञान एवं आत्मध्यान का मार्ग आज जब अधिकांश में लुप्त-विलुप्त है, तब यह महावीर दर्शन किंचित् नूतन प्रकाश शायद डाल सकता है, अभिनव दृष्टिप्रदान कर सकता है, यह श्रद्धा है।
इस दर्शन का प्रति-दर्शन-अनुचिंतन कितना सक्षम और सिद्ध हुआ है इसका निर्णय सजग, प्रबुद्ध और खुले दिमाग के गुणग्राही श्रोता-दृष्टा-अंतर्दृष्टा करेंगे और हमें सूचित भी करेंगे यह विनम्र अनुरोध है, प्रार्थना है । सभी के लिये, विशेषकर ज्ञानार्थी-साधनाकामी युवा-पिढ़ी के लिये यह प्रयत्न ज्ञेय एवं उपादेय हो ऐसी परमगुरुदेवों के प्रति हमारी विनय-वंदना सह प्रार्थना है।
"महावीर दर्शन" के इस परिश्रम-साध्य निर्माण में जितना श्रेय, जितना उपकार उपर्युक्त सभी गुरुजनों एवं परिबलों का है, उतना ही मिला है सहयोग कलाकारो, मित्रों, छात्र-छात्राओं एवं विशेषकर हमारे स्वजन-परिजनों का । [धर्मपत्नी सुमित्रा, स्वर्गीया ज्येष्ठा सुपुत्री कु. पारुल (M.A. Gold Medalist, 7 Awards Winner, 7 Books' Author), नैचरोपेथ एवं सुवक्ता द्वितीय सुपुत्री चि. डो. वन्दना, (N.D.) कलाकार सेवासंनिष्ठ तृतीय सुपुत्री चि. भविता (M.A.), व्यवस्था-निपुण कॅनेडा-स्थित चतुर्थ सुपुत्री चि. फाल्गुनी एवं संगीत-नृत्य-साहित्य-विद् पंचम सुपुत्री अमरिका-स्थित चि. किन्नरी, (M.S. Media Communications) एवं समर्पित भतीजे चि. मुकेश-कमलेश, चि.बाबुभाई-अंकित-कुशल] इनके अतिरिक्त अनेक नाम-अनाम प्रबुद्ध मित्रों डो. धनवंत शाह,डो.जितेन्द्र शाह, श्री सूर्यकांत परीख, श्री शांतिलाल गढ़िया, श्रीयुत् मधुभाई पारेख एवं वसंतभाई खोखाणी, श्री मनहरभाई कामदार, श्री मनुभाई पटेल, श्री शशीकान्त महेता..... इत्यादि का भी अनेक रूपों में हम ऋण-स्वीकार किये बिना रह नहीं सकते। ___ अखिर यह 'महावीर दर्शन' सभी का है, ठीक वैसे ही जैसे स्वयं महावीर । क्या महावीर मुक्त-उन्मुक्त असीम महावीर किसी एक सीमा के, एक समुदाय के, एक संप्रदाय के हो सकते है
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. महावीर दर्शन - महावीर कथा .
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? मेरे अंतर्लोक के महाध्यानी महामानव महावीर न केवल मूर्तिपूजक जैनों के हैं, न प्रतिमा-प्रतिपक्षियों के, न दिगम्बरों के - न श्वेताम्बरों के न केवल जैनों के - न अजैनों के । वे जन-जन के हैं, दीनहीनों के हैं, शांतिकामी सभी मनुष्यों के हैं, आत्मज्ञान के सभी अप्सुि के हैं, सम्यक् आत्मध्यान के सभी साधक-दृष्टाओं के हैं, सचराचर भयाक्रान्त-दुःखाक्रान्त समस्त जीवसृष्टि के हैं, विश्व विराट के हैं।
सर्व-शेषांत में, हमारे अंतर्लोक के महाध्यानी और समन्वयी-स्याद्वाददर्शी निष्कारण करुणावंत महावीर के महा जीवन-दर्शन का, महावीर दर्शन (बहिर्जगत् + अंतर्जगत् दोनों) का सार-निष्कर्ष है- उनके सारे धर्म-बोध के सन्दर्भ में : (1) अभावग्रस्तों एवं संपन्नों का समान विभाजन एवं साधन-प्रदाता न्यायुक्त वैभव । (2) आचार पूर्ण"अपरिग्रह" का स्वीकार एवं गुप्त-दान युक्त संपत्ति-वितरण । नीतिमय व्यापार । (3) आनंदादि श्रावकों की भाँति विशाल गोकुलों-गोशालाओं की स्थापना और सारी वधशालाओं
का समाप्तिकरण। 1 (4) अहिंसा का व्यापक प्रयोगरूप समग्रता में आचरण-जो अपरिग्रह बिना असम्भव । (5) अभक्ष्य, अशुद्ध आहार त्याग, सप्त व्यसन त्याग, प्रमुखतः रात्रिभोजन त्याग । (6) चातुर्मास-वास पर्याप्त, साधनार्थ आश्रमों-मठों का नहीं, जैनविद्या की विद्यापीठों का निर्माण । (7) "आरुग्ग-बोहिलाभ-समाधि" प्राप्ति में आरोग्य-प्राप्ति की आत्मभानपूर्वक अग्रता, महत्ता । (8) एकान्त-मताग्रह नहीं, अनेकान्तिक स्याद्वाद-शैली, समन्वय-दृष्टि की सर्वत्र आचरणा । (9) निश्चय-व्यवहार दोनों का संतुलन रखते हुए बाह्य जड़क्रियाओं के बजाय आत्मभान युक्त
क्रिया-साधन । ... (10) नाम-रूप दोनों की आवश्यकता रूप, ध्यान का निमित्त, ऐसी प्रतिमापूजा, परंतु बाह्याडम्बर
शून्य। (11) स्वरूपानुसंधान-दाता, कषाय-मुक्ति-प्रदाता, जिनकथित आत्म ध्यान-मार्ग की पुनः स्थापना । (12) भक्ति-जिनभक्ति की अतिशुद्ध भाव से, देह-भान से मुक्त करानेवाली बिना-तमाशे की
आराधना। (13) आत्मज्ञान, अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांत आदि के प्रबल प्रयोग द्वारा राज्य, देश पर प्रभाव ।
वनदय नहीं सर्वोदय की, सर्वोदय तीर्थ की स्थापना । (14) क्रिया से प्रथम और अधिक भाव को एवं श्रुतज्ञान स्वाध्याय सह ध्यान को प्राधान्य ।
इस के द्वारा प्रथम परिवार-जीवन में, फिर समाज और देश में शांति-संवाद की स्थापना।
ऐसा यह समन्वय-स्याद्वा-संवादिता-समग्रता-आत्मशांति एवं आत्मज्ञात-आत्मध्यान से संपन्न महावीर दर्शन एक संपूर्ण जीवनदर्शन हैं, जीवन-मार्ग Way of Life, एक सुनियोजित जीवनक्रम Chalked out & Planned Program of Life है, विशुद्ध जीवनशैली है, इह-परलोक उभय के लिये महामंगलकारी है-विशेषतः जीवनपथ को खोजनेवाली नूतन पीढ़ी के लिये, जिनके लिये महावीर कभी अप्रासंगिक Irrelevant नहीं, सदा-सर्वदा अति महा-प्रासंगिक है वर्तमान के इस अशांत, भयाक्रान्त, आतंकित युग में ।
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
इस में प्रातः से रात तक एवं जन्म से मृत्यु तक अप्रमाद में, सावधानीपूर्वक, निजी होशआत्मभानपूर्वक, शांति, समता और आनंद के साथ कैसे जिया जाय इस कला का सुस्पष्ट निरुपण हैं । अपने आप को भुलाये बिना कैसे सारी प्रवृत्ति की जाय उसकी कुंजी, युक्ति, मार्गदर्शन है। इस सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की अद्भुत सृष्टि में, अंतर्लोक में आपका स्वागत है। .
आयें, ऐसे सुंदर, सुष्ठ, जिनाज्ञामय सुख-शांति-दायक जीवनदर्शन महावीर महादर्शन को हम क्यों न अपनायें ? क्यों न उनके-से ऊर्ध्वगमन के द्वारा उस देहातीत आनंदलोक सिध्धलोक को पायें ?
प्रथम यहीं और अभी ही।
विदा की बेला वीर जिनेश्वर की भाव-वन्दना करते हुए, उनके वीरत्व की अमीप्सा-कामना करते हुए, उनके चरणों का अनन्यभाव से शरण-ग्रहण करते हुए, पराभक्तिवश उनके वर्तमान स्वरूपों के प्रति आत्म-बलि धरकर सर्वभाव से समर्पण करते हुए, उनके इस अक्षय दर्शन- 'महावीर दर्शन' - अपने अंतस्-स्थित आनंदघन प्रभुमहावीर को हम जगायें - अपने सुप्त आतमराम को अनादि चिर-नींद से जगायें :
"वीर जिनेश्वर चरणे लागुं, वीरपणुं ते मागुं रे; वीरपणुं ते आतम ठाणे, जाण्युं तुमची वाणे रे; ध्यान विन्नाणे शक्ति प्रमाणे, जिन ध्रुवपद पहिचाणे रे । वीर. आलंबन साधन जे त्यागे, पर परिणतिने भागे रे; अक्षय दर्शन ज्ञान वैरागे, 'आनंदघन' प्रभु जागे रे । वीर.
(- महायोगी आनंदघनजी : "पद्य रत्नावली") साफल्य मानें, हमारा परम भाग्य समझें कि हमें प्रभु वीर का महाशासन मिला, 'महावीर दर्शन' प्राप्त हुआ और उसे वर्तमान में परिदर्शित कराने वाले युगदृष्टा-युगप्रधान “परमपुरुष प्रभु सद्गुरु परमज्ञान सुखधाम" ऐसे परमकृपालुदेव श्रीमद् राजचन्द्र का सु-शरण मिला :
"सफळ थयुं भव म्हारं हो कृपाळुदेव । पामी शरण तमाएं हो कृपाळुदेव । कळिकाळे आ जंवु-भरते, देह धर्यो निज-पर-हित शरते, टाळ्युं मोह-अंधारं हो कृपाळुदेव ! सफळ - १. धर्म-ढोंग ने दूर हटावी, आत्म धर्मनी ज्योत जगावी, कर्यु चेतन-जड न्यारे हो कृपाळुदेव ।... सफळ - २.. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-रमणता, त्रिविध-कर्मनी टाळी ममता, 'सहजानंद' लद्यं प्यार हो कृपाळुदेव !... सफळ - ३.
(यो.यु.श्री सहजानंदघनजी : "सहजानंद सुधा")
॥ ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥ १५८०, कुमारस्वामी ले आउट, बेंगलोर-560078 : -प्रा. प्रतापकुमार ज. टोलिया
__21-5-2011 : 20-4-2016, महावीर जयंती। (17)
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
सन्दर्भ:
सम्बन्धित अन्य स्व-कृतियाँ : शोधपत्र, पुस्तकादि + सम्पादित कृतियाँ (कुछ अप्रकाशित) (1) महासैनिक (2) अनंत की अनुगुंज (3) दक्षिणापथ की साधनायात्रा (4) कर्णाटक में जैन धर्म (5) कर्णाटक की संस्कृति + साहित्य को जैन प्रदान (6) भद्रबाहु से भद्रमुनि तक (7) Role of Jainism in Vijayanagar Empire (8) वर्तमान के एक परमयोगी (9) उड़िसा के जैन-बौद्ध सेमिनार में (10) जैन एवं बौद्धदर्शन में आत्म-तत्त्व (11) सृष्टि और ईश्वर अकर्तृत्व (12) आत्मतत्व आत्मसिध्धि में (13) ध्यान एवं श्रीमद् राजचन्द्र (14) Meditation & Jainism (15) Jain point of Meditation & Yoga (16) श्रीमद् राजचन्द्र (AIR आकाशवाणी वार्ता) (17) भगवान महावीर के जीवन में महिलाओं का स्थान एवं योगदान (AIR) (18) जैन परम्परा में नारी का गौरवपूर्ण स्थान एवं योगदान (19) जैन संस्कृति की रक्षा और विकास में नारी का योगदान-I (20) महावीर दर्शन में नारी का योगदान (-सुमित्रा) (21) संलेखना-आत्मसाक्षात्कार की आनन्दकला (22) शिकागो विश्वधर्म परिषद में जैनधर्म का योगदान (पं. सुखलालजी लेख + शांतिलाल शेठ) (23) प्रज्ञाचक्षु का दृष्टि-प्रदान (संस्मरण) (24) प्रज्ञा-संचयन (पं.सुखलालजी के चिंतनलेख(हिन्दी में अनूदित) (25) Selected Works of Dr. Pandit Sukhlalji (26) प्रज्ञा-वाणी (पं.सुखलालजी + पं. दलसुखभाई + डो. नथमलजी वाणी) (27) विदेशों में जैनधर्म प्रभावना (28) श्री कल्पसूत्र प्रवचनधारा(सहजानंदघनजी कैसेट + सी.डी.) श्री कल्पसूत्र प्रवचन प्रस्तुति (स्वयंः हिन्दी/गुजराती) (29) दशलक्षण धर्मः (30) अंधेरे में उजाला : ध्यान रहस्य (31) ध्यानस्थ होते थे जब महावीर (32) Mahavera-Magnificent Master Teacher of the World (33) Universal Visionaries of Non-Violence Bhagawan Mahavera (34) ऊर्ध्वभूमि का अनाहतगान (35) परमगुरु प्रवचन माला :पांच समवाय, आत्मभान-वीतरागता, साकार-निराकार, आध्यात्मिकता, समाधिमरण की कला, आत्मसाक्षात्कार का अनुभवक्रम, श्रीमद् राजचन्द्र जीवन आदि २५ अन्य कैसेट-सी.डी. का सेट : सहजानंदघनजी की प्रबल अनुभूत वाणी में (36) अमरेली से अमरिका तक (37) जनजनका जैन वास्तुसार (38) पारुल प्रसून (39) Profiles of Parul (40) संपादन-अनुवाद : द्विभाषी आत्मसिध्धि : श्रीमद् राजचन्द्र (41) सप्तभाषी आत्मसिद्धिः श्री.रा. (42) पंचभाषी पुष्पमालाः श्री.रा. (43) स्वयंलेखन सर्वोदय एवं समग्रता से सप्तभाषी तक की विमलाजी की जीवनयात्रा (44) अंतर्यात्रा-विमल सरिता सह (45) Voyage within with Vimalajee (46) स्थितप्रज्ञ के साथ (विनोबाजी सह) (47) गुरुदेव के संग (मल्लिकजी) (48) प्रकटी भूमिदान की गंगा (49) दांडीपथने पगले पगले (50) पावापुरी की पावन धरती से (51) जिनभक्ति की अनुभूतियाँ (52) संतशिष्यनी जीवनसरिता (53) Saints of Gujarat (54) Jainism in present Age (55) Jainism & India (56) विश्वमानव श्रीमद् राजचंद्रजी (57) Why abattoirs-Abolition ? शताधिक में से चन्द प्रमुख रिकार्ड/कैसेट/सी.डी. कृतियाँ : (1) आत्मसिध्धि (2) राजपद (3) परमगुरु पद (4) महायोगी आनन्दघन के पद (5) अनुभववाणी (6) महावीर दर्शन (7) वीरवन्दनाजिनवन्दना (8) भक्तामर स्तोत्र (9) ध्यान संगीत (10) प्रभातमंगल (11) जयजिनेश (12) आत्मखोज (13) आनन्दलोके ।
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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L
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा . ।
पूर्व पुस्तिका (LP रिकार्ड में स्वरस्थ Script)
महावीर दर्शन श्री कल्पसूत्र, श्रीमद् राजचंद्रजी की तत्वदृष्टि तथा काव्य कृतियाँ
__एवं श्री शांतिलाल शाह के गीतों पर आधारित . गीत-कथा : लेखन-निर्देशन-कथन-गान : प्रा. प्रतापकुमार ज. टोलिया
कल्याणपादपारामं श्रुतगंगा हिमाचलम् । विश्वाम्भोज रविं देवं वन्दे श्री ज्ञातनन्दनम् ॥
(सूत्र-ध्वनि) "जे एगं जाणइ, से सव्यं जाणइ ।" "जो 'एक' को - आत्मा को - जान लेता है, वह सब को, सारे जगत को जान लेता है।"
(मंत्र-ध्वनि) ॐ नमो अरिहंताणं । नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं । नमो उवज्झायाणं । नमो लोए सव्व साहूणं ।
एसो पंच नमुक्कारो । सव्व पावप्पणासणो ।
मंगलाणं च सव्वेसिं । पढमं हवइ मंगलम् ॥ (प्रवक्ता M) अनादिकाल से चला आ रहा है यह मंत्र - नमस्कार महामंत्र : व्यक्ति को नहीं,
गुणों को पूजनेवाला विश्व-कल्याण का महामंत्र । अरिहंतपद सिध्धपद की पूजापूजना के द्वारा स्वयं को अरिहंतपद-सिध्धपद-परमात्मपद दिलानेवाला महामंत्र......
पंच-परमगुरुओं में निहित.आत्म तत्व-केन्द्रित महामंत्र । । (प्रवक्ता F) इस महामंत्र की आराधना, ध्यान-साधना एवं तद्नुसार आचरणा-सम्यक् दर्शन
ज्ञान-चारित्र की रत्नत्रयी उपासना-एक महान् आत्मा ने की थी : एक नहीं, दो नहीं,
सत्ताईस सत्ताईस जागृत जन्मान्तरों में... । (M) ...
और इतनी सुदीर्घ साधना के पश्चात्, आज से ठीक 2600 वर्ष पहले, ईस्वी पूर्व (598) पांच सौ अठयानबे में... जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र की कर्मभूमि, ... बिहार की संपन्न वैशाली नगरी, ... उसी का एक उपनगर क्षत्रियकुंड ग्राम और उसी में स्थित एक राजप्रासाद - तेईसवे जैन तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के धर्मावलंबी एवं लिच्छवी वंशी राजा सिध्धार्थ का यह राजमहल ...। यहाँ पर राजमाता त्रिशलादेवी की पवित्र कुक्षि में उस भव्यात्मा का देवलोक से अवतरण हुआ है - महामंगलकारी चौदह सर्वोत्तम सांकेतिक स्वप्नों के पूर्वदर्शन के साथ ।
(दिव्य वाद्य संगीत) (Celestial Instrumental Music : Soormandal, Santoor)
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।
(F) ...
(M)
-राजप्रासाद
(सोलह-डि
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
'मति, श्रुत एवं अवधि' इन तीनों ज्ञान से युक्त यह भव्य करुणाशील आत्मा गर्भावस्था में भी अपनी माता की सुख-चिन्ता एवं सुख-कामना का संकल्प करती हुई नौ माह और साडेसात दिन पूरे करती है। ... वह दिन है - चैत की चांदनी की तेरहवीं तिथि : चैत्र शुक्ला त्रयोदशी ... । शुक्लपक्ष की इस चांदनी में शुक्ल ध्यान-आत्मध्यान-आत्मस्वरूप में खो जाने यह महान चेतना शरीर धारण करती है(Soormandal + Sitar : Musical Interlude) (गीत) (सूरमंडल + सितार : वाद्य मध्यान्तर) "पच्चीस सौ बरसों पहले एक तेजराशि का जन्म हुआ। (नीनीनीनी सानी रे रे - । पप मपपरे सारेसानी -) जुगजुग का अंधकार मिटाता, भारत भाग्य रवि चमका ॥ (सा ध धधध मगमपपप - । ध ध ध ध ध । परेसारे नी)
"कोकिल मोर करे कलशोर, वायु बसन्ती बहता रहा, क्षत्रियकुंड में माँ त्रिशला को पुत्र पवित्र का जन्म हुआ ॥" . . राजा सिध्दार्थ और रानी त्रिशला के नंदन 'वर्धमान' के जन्म का यह आनंदोत्सव, यह "कल्याणक", सभी मनाते हैं - उधर मेरु पर्वत पर देवतागण और इधर धरतीलोक
पर राजा सिध्दार्थ एवं उनके प्रजाजन (सूरमंडल) (वृंदगान) (राग-बसंत बहार, केदार; ताल-त्रिताल)
"घर घर में आनंद है छाया, घर घर में आनंद । (सासामगप, पनीसारें, सां धध, धनीधध । पपपप प सांप, परेसा) (वाद्य-सागप) -
त्रिशला मीया पुत्र प्रगटिया, जैसे पूनम का चंद ॥ घर घर में 48118" (पपप सां-सा । सांसांसां । नीरेसा । सांग रेमं गरें । सां-ध प । सा- । म-रेशा ।) (सासामग । प-पनी सारें । सां-ध ध । धनी ध प । पपपप । ए-सां-1)
(म- - ग । प-रे सा । सासामग । प -नी - सां ॥) "गोख गोख में दीप जले हैं, केसर कुमकुम रंग खिले हैं। धरती के गूढ अंतस्तल से, प्रसरित धूप सुगंध... ॥ घर घर में ।
"कुंज कुंज कोयलिया बोले, मस्तीमें मोरलिया डोले । मंजुल कंठ से, मीठे स्वरसे, गायें विहग के वृंद ॥ घर घर में ॥ (सूरमंडल) (M)
और इस महामंगलकारी जन्मकल्याणक के पश्चात् - (गीत) (राग-मिश्र; ताल-दादरा)
(SGAR-SAR
दि।
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
(M)
"बाल को करती प्यार दुलार माँ, झूले की डोरी खींचती थी; (धधध-नीसा नीसा । नीसानीधप । पपप धनी धप धनीनी नीनीनी) सुर मधुर सुनाय सुनाय के, अंतस्-अमृत सींचती थी। (रेरेरे गरेसा । रेमम धपप - । गगग मधप मममम) "वीर होना, गंभीर होना तू" पुत्र को आशिष देती थी; (ध-पम ध ध ध । म प प प, ध ध ध नी सा सा । नी सासासासा) . झुकझुक के निज लाल के लोचन, नेह नजर से देखती थी ॥" (रे रे रे गरेसा रेमम ध पप - गगग मधप ममममम (2)
(००००० वाद्यस्वर परिवर्तन ०००००)
(लोरी गीत) (राम-पहाड़ो छाया; ताल-दादरा) "सो जा रे - सो जा । ... सो जा ... । ओ मेरे बाल । लाल । मीठी मीठी लोरी सुनाऊं, मैं तो तेरे काज; जागने का शेष तुझे रे, सो जा रे तू आज । सो जा रे ॥" (सूरमंडल) वर्धमान के जन्म से ही "श्री" एवं "आत्मश्री" का वर्धन, उनका विद्याशाला में गमन और अपने अलौकिक बाल-पराक्रम से 'वर्धमान' से 'महावीर' नामकरण: चल पड़ा यह क्रम
(बाल वृंद गीत) (राग-भीमपलास; ताल-दादरा) " "ओ मैया ! तेरे कुंवर की करनी क्या बात ?
ओ त्रिशला ! तेरे कुंवर की कहनी क्या बात ? सब से निराली उस की जात, भली है उस की भाँत,
ओ मैया ! तेरे कुंवर की करनी क्या बात ? "एक दिन समी मिल के हम खेल खेलते थे, सुख-दुःख के घाव, दाव संग झेलते थे। निकला अचानक साँप एक महाकाय, देखते ही सभी हम भागते चले जायँ,
बोलते हुए - 'बाप रे बाप !' रस्सी समान पैक छोड़ रक्खा उसे, पर कांपा न उसका हाथ ।
ओ मैया । तेरे कुंवर की करनी क्या बात ?" साँप बने हुए उस देवताने फिर थककर क्या किया ? (भय-वाद्यः ०००)
(M)
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
(गीत पंक्ति) "रूप पिशाच का लेकर देवता वीर को पीठ बिठाई दिये।
नन्हा-सा बहादुर बाल कुमार, उस देव को मुठ्ठी लगाई दिये।" साँप-पिशाच दैत्य और दूसरे प्रसंग में पागल हाथी - सभी को अपने बाल-पराक्रम से कुमार वर्धमान वश करते रहे ... (सूरमंडल) बाल-किशोर-कुमारावस्था बीत चुकी ... युवा आई ... भीतर से वे अलिप्त हैं परन्तु 'भोगावली' कर्म अभी अवशेष हैं, माता-पिता के प्रति भक्ति-कर्तव्य अभी शेष है, यशोदा का स्नेह-ऋण अभी बाकी है (सूरमंडल)
और राजकुमार वर्धमान महावीर यशोदा का पाणिग्रहण करते हैं, उस से विवाह करते हैं । यद्यपि दूसरी मान्यतानुसार वे अविवाहित ही रहते हैं। ... इस गृहस्थाश्रम में, वैभवपूर्ण गृहस्थाश्रम में भी वे जीते हैं अपने उस जलकमल-वत् जीवनादर्श के अनुसार - "जल में, कीच में जन्म लेकर भी जैसे जल से कमल अलिप्त (प्रतिध्वनि घोष) रहता है, वैसे ही संसार के बीच रहते हुए भी आत्मार्थी को संसार-वासना से अलिप्त रहना है।" (सूरमंडल) इसी आदर्श के अनुसार भोग को योग की भाँति भुगतकर, बीत रहे उनके गृहस्थाश्रम के दौरान उनके घर पुत्रीरत्न 'प्रियदर्शना' का खेलना और माता-पिता का स्वर्ग सिधारना - इन सभी अनुकूल-प्रतिकूल घटनाओं में भी - महावीर का आत्मचिन्तन निरंतर चलता रहता है.- (प्रतिध्वनि युक्त गीतपंक्ति) "मैं कौन हूँ? मैं कौन हूँ ? कोडहम् ? कोडहम् ? "मैं कौन हूँ ? आया कहाँ से ? क्या स्वरूप है मेरा सही? मैं कौन हूँ?" तीव्रता पकड़ते हुए इस आत्मचिन्तन के प्रत्युत्तर में उन्हें लंबे अर्से से पुकारती हुई वह आवाज (भीतर से) सुनाई देती है, वह आवाज, वह कि जिसमें एक मांग है, एक बुलावा है, एक निमंत्रण है - (प्रतिध्वनि घोष) "जे एगं जाणई, से सव्वं जाणई ।" जो एक को, आत्मा को जान लेता है, वह सब को, सारे जगत को जान लेता है ...। आ, और अपने आप को पहचान, अपने आप को पा ... । (सूरमंडल, दिव्यवाद्यवृंद)
और इसे सुन वे तड़प उठते हैं। उनकी छटापटाहट जाग उठती है। इस आवाज का वे जवाब देना चाहते हैं, अपने को खोजना और सदा के लिए पाना चाहते हैं - ना, वैशाली के राजमहल में अपनी इस आत्मा को पाया नहीं जा सकता ... ! (सूरमंडल)
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
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और इस के लिए एक ही मार्ग था - "सर्वसंग परित्याग" ... भीतरी भावदशा से भरे इस वीरोचित सर्वसंत्र परित्याग के अवसर की ताक में वे तरसते रहे.. (प्रतिध्वनि-गीत) (Echoing Song) "अपूर्व अवसर ... अपूर्व अवसर ऐसा आयेगा कभी ? कब होंगे हम बाह्यांतर निग्रंथ रे ? सर्व सम्बन्ध का बन्धन तीक्ष्ण छेदकर, कब विचरेंगे महत्पुरुष के पंथ रे ? अपूर्व अवसर ।" और आखिर आया वह दिन - अपने को पहचानने हेतु जाने का, सर्वसंग परित्याग के- महाभिनिष्क्रमण के - भागवती दीक्षा के 'अपूर्व अवसर' का ... । (सूरमंडल) 'पलायन' से नहीं, क्षमा समझौता और स्नेह से ली गई इस भागवती दीक्षा के समय ही जन्मजात तीन ज्ञानवाले वर्धमान महावीर को चौथा (मन वाले जीवों के मनोभावों को जाननेवाला)"मनःपर्यव ज्ञान" उत्पन्न हुआ और वे चल पड़े अपनी आत्मा को दिलानेवाले पंचम ज्ञान और पंचम गति मोक्ष को खोजने-अनंत, अज्ञात के आत्मपथ
परं : एकाकी, अकेले, अलंग ... । (सूरमंडल) (गीत) "साँप की क्रंचुलि भाँति एक दिन, इस संसार का त्याग करे ।
राज प्रासादों में रहनेवाला, जंगल जंगल वास करे ॥" उनकी इस हृदयविदारक विदा की बेला, इस 'ज्ञातखंडवन' की घरा में खो जाते हुए उनको देखकर पत्नी यशोदा, पुत्री प्रियदर्शना एवं बंधु नंदीवर्धन के विरहवेदना से भरे विलाप-स्वर गूंज उठे - (करुणतम गीत श्लोक) "त्वया विना वीर ! कथं व्रजामो ? गोष्ठिसुखं केन... सहाचरामो ?..." "हे वीर ! अब हम आप के बिना शून्यवन के समान घर को कैसे जायँ ? हे बन्धु ! अब हमें गोष्ठि-सुख कैसे मिलेगा? अब हम किस के साथ बैठकर भोजन करेंगे?" - लेकिन निग्रंथ, निःसंग, निर्मोही महावीर तो चल पड़े हैं - प्रथम प्रस्थान से ही
यह भीषण भीष्म-प्रतिज्ञा किए हुए कि (M) (प्रतिध्वनि) "बारह वर्ष तक, जब तक मुझे केवलज्ञान नहीं होगा, तब तक न तो शरीर
की सेवा-सुश्रूषा करूंगा, न देव-मानव-तिथंच के उपसर्गों का विरोधकरूंगा, न मनमें किंचित् मात्र उद्वेग भी आने दूंगा।" यहीं से शुरु हो रही इन सभी भीषण प्रतिज्ञाओं की कसौटी-रूप उनकी साड़े बारह वर्ष की आत्म-केन्द्रित साधनायात्रा-जिसमें इन्द्र तक की सहाय प्रार्थना भी अस्वीकार कर के, और भी भीषण प्रतिज्ञाएँ जोड़ते हुए, वे आगे चले -
(M)
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा •
गीत
(धार)
(सूरमंडल ध्वनिः मेघगर्जन, हिंसक प्राणी गर्जन, भयावह वन वातावरण ध्वनि)
(शिवरंजनी + अन्य) (M)
"धारे वनों में पैदल घूमे, (F) पैरों में लिए लाली (F) मान मिले, अपमान मिले या देवे भले कोई गाली । (F) पंथ था उस का जंगल-झाड़ी कंकड़-कंटक वाला, कभी कभी या साथ में रहता मंखलीपुत्र गोशाला ॥" (वन में निर्भययात्रा) (स्वरपरिवर्तन) "आफत और उपसर्ग की सेना, पद पद उसे पुकारती थी, आँधी-तूफाँ और मेघ-गर्जन से कुदरत भी ललकारती थी। "घोर भयानक संकट के बीच आतम-साधना चलती थी। जहर हलाहल को पी जाकर, अंखियाँ अमृत झरती थीं ॥ "प्रेम की पावन धारा निरंतर, पापी के पाप प्रक्षालती थी । मैत्री-करुणा की भावना उसकी, डूबते बेड़े उबारती थी॥" (करुणा-वेदना-करुण मुरली स्वर : दृढ अडिगता के वज़ ध्वनि स्वर) "चंडकोशी जैसे भीषण नाग को बुझाने वीर विहार करे । जहर भरे कई दंश दिये पर वे तो उससे प्यार करे ॥" दृढभूमि के पेढाल उद्यान में संगमक देव के छह माह तक बीस प्रकार के घोर भयंकर मरणांत उपसर्ग - "होश भुला एक ग्वाला भले ही, कानों में कीले मार चले। आतम-भाव को जानने वाला, देह की ना परवाह करे ॥ (शेरगर्जना) देव और दानव, पशु और मानव, प्राणी उसे कई डॅस रहे। हँसते मुख से महावीर फिर भी, मंगल सब का चाह रहे ॥" ऐसे घोर उपसर्गों और दुःखों से भरी लम्बी साधनायात्रा बाह्यांतर निर्ग्रन्थ पुरुषार्थी महावीर ने आत्मभावना में लीन होकर छोटी कर दी और आनंद से भर दी .. (वायब्रो-ध्वनि) जिस आत्मा को पहचानने और समग्रताा में पाने के लिये वे चले थे, वह अब करीब
करीब उनकी पहुँच के भीतर ही थी। (ध्वनिघोष) "सच्चिदानंदी शुध्ध स्वरूपी, अविनाशी मैं आत ।" "सच्चिदानंदी शुध्ध
स्वरूपी, अविनाशी मैं आत्मा हूँ।" (M) यह वही भाव था, ज्ञान का सागर था, जिसकी अतल गहराइयों से वे कष्ट-सहन के, क्षमा के एवं निरपेक्ष स्नेहकरुणा के अनमोल मोती ले आये थे - (सागरध्वनि)
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
अन्यथा ऐसे घोर कष्ट, परिषह और उपसर्ग वे कैसे सह सकते थे ? और फिर ध्यान-लीन महातपस्वी महावीर विहार करते करते कौशाम्बी नगरी में पधारे, जहाँ प्रतीक्षा कर रही थीचन्दनबाला ... बड़ा अद्भुत है इतिहास इस राजकुमारी का, वैशाली नगरी में बेची गई एक नारी का । ग्रंथ गवाह है - पांच माह पच्चीस दिन के उपवासी भविष्यदर्शी महावीर का यह अभिग्रह था कि (प्रतिध्वनि)"जबतक एक उच्च कुल की फिर भी कर्मवश दासी बनी हुई, मुंडित केश, बंदी शरीर और रोती हुई आंखोवाली अबला हाथों में उड़द लिये भिक्षा देने द्वार पर प्रतीक्षा करती न मिले, तब तक वे किसीसे भिक्षा नहीं लेंगे।"
वही नारी थी(F) (गीत) (राग-मिया मल्हार, मिश्र, बसन्त, त्रिताल) "चन्दनबाला ! ..... तेरा अद्भुत है
इतिहास ।" इस इतिहास के पृष्ठ पृष्ठ पर (F) प्रगटे दिव्य प्रकाश ... ॥ चन्दनबाला ....। एक दिन थी तू राजकुमारी, राजमहल में बसनेवाली दासी होकर बिक गई पर, बनती ना उदास ... ॥ तेरा... चन्दनबाला ... । दुःखों का कोई पार न आया, फिर भी अड़िग रही तुज काया । कर्म (काल) कसौटी करे भयंकर, फिर भी भई न निराश ॥ तेरा... चन्दनबाला ..... । वीर प्रभु को दे दी भिक्षा, प्रभु ने भावी में दे दी दीक्षा। श्रध्धा के दीपक से दिल में (F) कर दिया दिव्य प्रकाश ॥ तेरा... चन्दनबाला ..... । और उन अनेक उपसर्गों की कतारों को पार करते करते ध्यानमस्त तपस्वी महावीर अपने निर्ग्रन्थ जीवन के साड़े बारह वर्षों के पश्चात् ... एक दिन .... आ पहुँचे अपनी उद्देश्य-सिध्धि, अंतिम आत्मसिध्धि के द्वार पर ... (दिव्य मंद ध्वनिः वायब्रो) (अति भावपूर्ण स्वर) वह ढ़लती दोपहरी ... वह जृम्भक ग्राम ... (शब्दचित्र) वह ऋजुवालुका नदी ... वह खेत की श्यामल धरती ... और वही शाल का
वृक्ष ..... ! (F) इसी ... बस इसी वृक्ष के नीचे, गोदाहिका आसन में पराकोटी के शुक्ल ध्यान में लीन निर्ग्रन्थ
महावीर ... ! आत्मध्यान के इस सागर की गहराई में उन्हें यह स्पष्ट, पारदर्शी अनुभूति हो रही है कि -
M)
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा •
(M) (प्रतिध्वनि) "मैं इन सभी संगों से सर्वथा, सर्वप्रकार से भिन्न केवल चैतन्य स्वरूपी
ज्ञाता-दृष्टा आत्मा हूँ : विशुध्द, स्वयंपूर्ण, असंग । मेरी यह परिशुध्ध आत्मा
ही परमात्मा का स्वरूप है" - "अप्पा सो परमप्पा" । (वाद्य-झंकार) (गान-धून) "सच्चिदानंदी शुध्ध स्वरूपी, अविनाशी मैं आत्मा हूँ।"
"भाते आतमभावना जीव पाये केवलज्ञान रे (2)" "आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे (2)" (वाद्य ध्वनि) और अपनी निःसंग आत्मा का यह ध्यान सिध्ध होते ही प्रस्फुटित होती है उनके वदन पर प्रफुल्ल प्रसन्नता ....और आत्मा में उस सर्वदर्शी, परिपूर्ण, पंचमज्ञान - केवलज्ञान
और केवलदर्शन की ज्योति (दिव्य वाद्य संगीत .....) (सूत्रघोष) ॥ जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ ॥ निर्ग्रन्थ महावीर अब रागद्वेषादि की सब ग्रंथियों को सर्वथा भेदकर बन चुके हैं आत्मज्ञ, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग, अरिहन्त तीर्थंकर भगवंत ... उनके दर्शन और देशना - उपदेश - श्रवणार्थ - देवों के विमान उड़े, मानवों के समूह उमड़े, पशुओं के झुंड (वृंद) दौड़ें, दिव्य समवसरण खड़े हुए, अष्ट प्रतिहारी सेवा में चले, दिव्य-ध्वनि एवं देवदुन्दुभि के नाद
गूंज उठे ... (M).
और प्रभु ने अपनी देशना में प्रकाशित किया - (प्रतिध्वनि) "जीव क्या ? अजीब क्या ? आत्मा क्या, कर्म और कर्मफल क्या ? लोक
क्या - अलोकक क्या ? पुण्य-पाप क्या ? सत्य असत्य क्या ? आश्रव संवर क्या ? बंध निर्जरा-मोक्ष क्या ?" एगो मे सासओ अप्पा, नाण दंसण संजुओ।" "सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा ॥" ज्ञानदर्शन युक्त शाश्वत आत्मा ही एक मेरी है, बाकी तो सारे बाह्यभाव हैं, जो परिस्थिति-जनित हैं।" फिर तो लगातार ऐसे अनेक विषयों की अनेक देशनाओं के द्वारा, बहुतों को तारनेवाला उनका धर्म-तीर्थ-प्रवर्तन भारत की धरती पर अखंड चलता रहता है। आचार में करुणा, अहिंसा, संयम, तप, दर्शन और चिंतन में स्याद्वाद-अनेकांतवाद एवं धर्म में सर्वविरति - देशविरति या पंच महाव्रत - बारह अणुव्रत से युक्त, निश्चयव्यवहार के संतुलनवाले, सम्यग् दर्शन ज्ञान चारित्र के इस तत्कालीन और सर्वकालीन प्रवर्तनक्रम में चतुर्विध संघ बना ।
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
उस समय के संघ में साधुओं में प्रधान थे गणधर गौतम स्वामी, साध्वियों में आर्या चन्दनबाला, श्रावकों में आनंदादि एवं श्राविकाओं में रेवती, सुलसा इत्यादि विदुषियाँ। उस युग की, देश और काल की, धर्म और समाज की समस्याएँ थीं - ब्राह्मण-शूद्र, जाति-पाति - (M) ऊंच-नीच ओर पीडित नारी - दम्भ, पाखंड, हिंसा, पशुबलि - (M) अंधाग्रह और झूठ की जाली
थोथे क्रियाकांड और जड़भक्ति - (M) संक्षेप में, बाहरी पुद्गल पदार्थों में आत्मबुध्धि !
भगवान महावीर के पास इन सभी समस्याओं का समाधान था,सभी रोगों का उपचार
था, सभी के प्रश्नों का जवाब था - ... (गीत) (F)
"गौतम जैसे पंडितों को सत्यपंथ बतलाया । श्रेणिक जैसे नृपतियों को धर्म का मर्म सुनाया। रोहिणी जैसे चोर कुटिलों को मुक्ति का मार्ग दिखाया, मेघकुमार समान युवानों को जीवन मंत्र सीखाया"
(००००० वाद्य संगीत ०००००) (गीत) (M) "एक दिन पूर्व का शिष्य गोशालक, प्रभु को देता गाली।
मैं सर्वज्ञ महावीर जैसा - कह के चली चाल काली ॥ तेजोलेश्या छोड़ के उसने चेताई आगी की ज्वाला; वीर के बदले खुद ही उस में जलने लगा गोशाला ॥" (सूरमंडल) गंगा के निर्मल नीर जैसी उनकी वाणी में अपूर्व संमोहन था, जादु था, अमृत था,
अनंत सत्य का भावबोध था - | (गीत) "अनंत अनंत भाव भेद से भरी जो भली, अनंत अनंत नय नि | (राग केदार) व्याख्यानित है।
सकल जगत हित कारिणी हारिणी मोह, तारिणी भवाब्धि मोक्षचारिणी प्रमाणित है ॥"
(००००० वाद्य संगीत परिवर्तन ०००००) (गीत)
"गंगा के निर्मल नीर-सरिखी, पावनकारी वाणी (बानी); घोर हिंसा की जलती आग में, छिटके शीतल पानी । उनके चरन में आकर झुके, कुछ राजा कुछ रानी; शेर और बकरी वैर भुलाकर, संग करे मिजबानी ॥" (सूरमंडल)
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(F)
(F)
(M)
(F)
-
कहते हैं तीर्थंकर भगवान महावीर की यह धीर-गंभीर, मधुर- मंगल, मृदुलमंजुल - सरिता-सी वाक्-सरस्वती राग मालकौंस में बहती थी ( वृंदगीत ) (राग - मालकौंस ताल त्रिताल) (पूर्व वाद्य वादन “मधुर राग मालकींस में बहती तीर्थकर की सोजी
पश्चात् गान )
वाणी/ बानी
(@um)
मानव को नवजीवन देती तीर्थंकर की बानी ॥ दिव्यध्वनि ॐ कारी ॥ धीर गम्भीर सुरों में सोहे, सुरवर मुनिवर सब कोई मोहे ।
शब्द शब्द पर होती प्रकट जहाँ, स्नेह गंग कल्याणी ॥ मधुर० ॥ वादी षड्ज, मध्यम संवादी बात नहीं कोई विषम विवादी ।
सादी भाषा, शब्द सरलता सबने समझी मानी ॥ मधुर० ॥ 'सा ग म ध नि सा नि सा' की सरगम, चाहे जग का मंगल हरदम । पत्थर के दिल को भी पलमें; करती पानी ... पानी ... ! ॥ ॥ मधुर० ॥
*****
"तेरी वाणी जगकल्याणी, प्रखर सत्य की धारा ।
खंड खंड हो गई दम्भ की, अंधाग्रह की कारा ॥"
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• महावीर दर्शन महावीर कथा
( गीतपंक्ति ) " जान लिया कि जीवनयात्रा होने आई अब पूरी । विहार का कर अंत प्रभुजी, आय बसे पावापुरी ॥" (अतिभावमय) वह अलौकिक समवसरण ....! वह अभूतपूर्व, अखंड, अंतिम . देशना ....!! ... और अमावास्या की वह अंतिम रात्रि ...!!! ( गम्भीर शांत (मुद्रत मृदुक वाद्य संगीत ध्वनि )
इस अनंत महिमामयी जगकल्याणी वाग् गंगा को केवलज्ञान के बाद तीस वर्ष तक निरंतर बहाते हुए और चतुर्विध धर्म को सुदृढ़ बनाते हुए अरिहंत भगवंत महावीर ने अपने ज्ञान से जब -
...
-
...
****
सोलह प्रहर, अड़तालीस घंटे, दो दिन-रात अखंड बहने के बाद, अचानक (प्रतिध्वनि) . पूर्ण होने लगी प्रभु की वह अखंड बहती वाग् धारा.. पर्यंकासन में स्थिर हुई उनकी स्थूल औदारिक काया मन-वचन- शरीर के व्यापारों का उत्सर्ग किया गया .... अवशिष्ट अघाती कर्मों का सम्पूर्ण क्षय किया गया सभी क्रियाओं का उच्छेद किया गया... और (Base Voice)... सभी अंगों और संगों को भेद कर प्राणों को विशुध्य सिध्धात्मा की निष्क्रीय, निष्कम्प, निस्पन्द, नीरव और मेरु-सी अडोल अवस्था तक पहुँचाया गया (Pathetic Base)
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
(F) जब कि एक शब्दहीन घोष उठा :
(प्रतिध्वनि पूर्ण, स्पष्ट) “यः सिध्द परमात्मा, स एवाऽहम् ।""जो सिध्द परमात्मा है वही मैं हूँ ...।" (वाद्यसंगीत : करुणतम) - और प्रभु परमशांति, परमपद, परिनिर्वाण को प्राप्त हो
गये ! (वाद्य) (गीत) "साँस की अंतिम डोर तक रखी, अखंड देशना जारी ।
आसो अमावस रात की बेला, निर्वाण की गति धारी ॥"
(वाद्यसंगीत) (धून) (घोषयुक्त) "परमगुरु निर्ग्रन्थ सर्वज्ञ देव" (M) (भावपूर्ण) हवामें शंख, वनमें दुन्दुभि और जन-मन में रुदन के अनगिनत स्वर उठे
.... प्राणज्योति अनंत ज्योति में विलीन हो गई ... ज्योत में ज्योत मिल गई ... प्रभु अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य, अनंत सुखमय, अजर अमर सिध्दलोक के ऐसे आलोक में पहुंच गये कि जहां से कभी लौटना नहीं होता, कभी जन्म-मृत्यु के चक्र
में आना नहीं पड़ता - (F+M) (गीत) "या कारण मिथ्यात्व दियो तज क्युं कर देह धरेंगे?
. अब हम अमर भये न मरेंगे।" (F) "इस अंधेरी अमा-निशा को बुझ गई महान ज्योति, धरती पर तब छाया
अंधेरा, अंखियाँ रह गई रोती ॥" गूंज उठे तब देव दुन्दुभि, लहराई दैवी वाणी : "आनन्द मनाओ ! जग के लोगों । प्रभु ने मुक्ति पाई।" प्रभुद्वारा प्रतिबोध कार्य को प्रेषित उनके प्रधान शिष्य गणधर गौतम स्वामी प्रभु की मुक्ति के बाद जब लौटे तब यह जानकर मोह-राग वश वे टूट पड़े और फूट फूट कर रो उठे - (गौतम विलाप स्वर : करुणतम गम्भीर ध्वनि में) "आप प्रभु निर्वाण गये, रहत नहीं अब धीर हिया । मुझे अकेला छोड़ गये, अब कौन जलाये आत्म दिया ?" पर रोते हुए विरही गौतम को यकायक स्मृति में सुनाई दी भगवन्त की वह अप्रमत
आज्ञा(M) "समयं गोयम् । मा पमायए ... ।
पलभर का भी प्रमाद मत कर हे गौतम !" (प्रतिध्वनि) (F) लौटे वे प्रमादपूर्ण आर्त्तध्यान से ... और तुरन्त ही हुआ उन्हें केवलज्ञान (आनंदमय
आनंदसंगीत ध्वनि)
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
(वृद गीतधून) "वीर प्रभु का हुआ निर्वाण, गौतमस्वामी केवलज्ञान ।"
"भाते आतम भावना जीव पाये केवलज्ञान रे (२)।" "आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे (२)।"
००००० (वाद्य संगीत : नव अरुणोदय संकेत संगीत) (M)
आज पच्चीस सौ वर्षों के पश्चात् (विहगवृंद ध्वनि, प्रभात संकेत)- आती है उस चिर महान आत्मा की - भगवान् महावीर की यह आवाज - (घोष)"मित्ती में सव्व भूएस, वैरं मज्झं न केणई।" (सब से मेरी मैत्री, वैर नहीं किसी से)
"शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः ।
दोषाः प्रयान्तु नाशम्, सर्वत्र सुखी भवन्तु लोकाः ॥" (सर्व विश्वजीव सर्वत्र सर्वथा सुखी हों, अन्यों के उपकारक हों, सर्वजीवों के दोष नष्ट हों ।) (M) आज गूंजती है - तीर्थंकर भगवंत महावीर के मंगलदर्शन की वह "वर्धमान भारती",
वह जग-कल्याणी वाणी - (F) जम्बू-नन्दीश्वर के द्वीपों से, भरत-महाविदेह के क्षेत्रों से और मेरु-हिमालय की चोटियों से - (M:घोष) "जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ । (वाद्य) जो एक को, आत्मा को जान लेता है, वह सब को, सारे जगत को जान लेता है।
वीरस्तुति - वीरः सर्व सुरासुरेन्द्र महितो, वीरं बुधा संश्रिताः । वीरेणभिहतः स्वकर्मनिचयो, वीराय नित्यं नमः ॥
वीरात् तीर्थमिदं प्रवृत्त मत्तुलं, वीरस्य घोरं तपो । वीरे श्री, धृति, कीर्ति, कान्ति निचयः । श्री वीर भद्रं दिश।
॥ ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥
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Erat qft - Helite gael •
(Recorded Script)
"MAHAVIRA DARSHAN”
BY PROF. PRATAPKUMAR J. TOLIX YA
- English version by :Late Kum. PARUL P. TOLIYA, M.A. Gold Medalist, 7 awards-winner and
writer of 7 books "U JIUTE, HOO FIUTS"
"JE EGAM JANAI, SE SAWAM JANAI" HE WHO KNOWS THE SELF, THE SOUL, KNOWS ALL, THE ENTIRE
WORLD. "कल्याण पादपारामम्, श्रुतगंगा हिमाचलम् । विश्वाम्भोज रविं देवं, वन्दे श्री ज्ञातनन्दनम् ॥" ॐ नमो अरिहंताणं नमो सिध्धाणं नमो आयरियाणं नमो उवज्झायाणं नमो लोए सव्व साहूणं ।
एसो पंच नमुक्कारो, सव्व पावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसि, पढमं हवइ मंगलम् ॥ (Shloka-mantra) KALYAN PADAPARAMAM... NAVKAR MANTRA
Aum NAMO ARIHANTANAM,
NAMO SIDDHANAM, NAMO AYARIYANAM,
NAMO UVJJHAYANAM, NAMO LOE SAVVA SAHUNAM,
ESO PANCHNAMUKKARO,
SAVVA PAVAPPANASANO MANGALANAM CHA SAVVESIM
PADHAMAM HAVAI MANGALAM The Namaskar Mahamantra, known to us from time immemorial, worships not individuals, but divine qualities inherent in them. This mantra prays for the well-being of the whole universe..
..... Based on this mantra, one great soul undertook penance and applied it to his life and to the pursuit of right vision, right knowledge and right conduct over a long span of 27 lifetimes.
A long penance later, 2,600 years ago in the year 598 6.C. .... In the mortal land of Jambhdweep's Bharatakshetra and in the prosperous city of Vaishali in Bihar and its portion of Kshatriyakundagram, this divine' soul prepares for its descent from devaloka, the land of Gods...
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•
alat
fa - Here
con
الار
"Yunitaret uer..."
(Song) “PACHISASO BARSON PAHLE...” Queen Mother Trishaladevi, wife of king Siddhartha of the Licchvi Vamsha, is soon to give birth to this great soul. Earlier she had witnessed 14 or 16 great and symbolic dreams.
This divine, compassionate soul, endowed with the Mati, Shruta and Avadhi Jnanas, cares for its mother's well-being even when in the womb. On the completion of 9 months and 704 days on the 13th day of the Chaitra month, even as the moon sheds its soothing light on the mortal land, this soul takes human form, with the aim of immersing itself in Shukla Dhyana, meditation of the soul and the Self.
The celebration of Prince Vardhaman's birth is spread far and wide - ong Mount Meru the Gods and on the earth King Siddhartha and his subjects .......
"Er R #311 Br ..." (Song) "GHAR GHAR MEIN ANAND HAI CHHAYA” This great event has added to the well-being of all. Happiness descends everywhere but the greatest joy is that of mother Trishala in caring for her son....
Waista at EGIR HT ..."
(Song) “BAL KO KARTI PYAR-DULAR MAA” After Vardhaman's birth, the royal family sees a tremendous increase in its wealth. He soon enters school and gets the name "Mahavir" due to his superhuman feats of courage.-
. .
. . . . ... "311 T
a k ft RI GIG?" "79 faite CT con taat, at ant to foot fag ... " (Song) “O MAIYA ! TERE KUNWAR KI ....“
"ROOP PISHACH KA...” Thus childhood passed into adolescence and soon comes the youth. Mahavir's soul is above worldly attachments, but a few karmas, duties still remain to be fulfilled - these include his religious duty towards his parents and marriage to Yashoda......
...... And prince Vardhaman Mahavir weds Yashoda. Though according to another version, he remains unmarried. But even as a Prosperous householder, Vardhaman remains detached, much in accordance with life's ideal. Just as the lotus stays aloof from the water and slush in which it is born, so has the true seeker to keep away from worldly pleasures and attractions.
In this detatched state, Mahavir sees various incidents and changes taking place in his life : daughter Priyadarshana is born to him, but his parents leave him on their eternal voyage. These gains or losses, however, do not stop his philosophical deliberations, he ponders on his life's aim and as if in answer to these deliberations there arises within
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा
him a voice. The voice has a plea, a call, an invitation: "JE EGAM JANAI, SE SAWAM JANAI". He who knows the soul, knows all. "Come, recognise and realise yourself". And his mental turmoil increases because he wants to answer this voice, he wishes to find his true self for ever........... But no, the atmosphere of Vaishali's Royal Palace is not the right one for this search......
....... The only way out was the total renunciation of all attachments. So Mahavir waited for the right opportunity when he could follow his chosen path, which incidentally, was meant for the brave.
"अपूर्व अवसर ऐसा आयेगा कभी ?"
(Song) "APOORVA AVSAR AISA AYEGA KABHI ?"
The day finally dawned when he could break away from all bonds and start on the difficult path of Bhagwati Diksha (or initiation into monkhood). Mahavir embarked on the task of finding his true self, only after consultation with all concerned, with their permission and blessings, for he did not believe in escapism............
..........On this auspicious day, to Mahavir's three-sided knowledge, was added a fourth dimension, the "MANAHPARYAVA-JNANA" (:) So on he went in search of the fifth knowledge of Keval Jnana (a) and the fifth and ultimate position of Siddhahood.
The road was unknown, and limitless, he was alone, unaccompanied..... His departure was heart-rending moment for his wife Yashoda, daughter Priyadarshana and brother Nandivardhana. Watching him disappear among the bushes of the Gnatkhandavana, a desperate cry rose from them:.
"त्वचो विना वीर । कथं व्रजामो ?"
(Shloka
Couplet) "TVAYA VINA VEER, KATHAM VRAJAMO?"
"O Veer! How can we now return to a house bereft of your presence and voice? O brother! who will now accompany us in life's different phases? Who will we dine and talk with ?"
But Mahavir, the Nirgranth, the unattached, has already left, having vowed at the very first step not to care for his body, nor protect himself from the troubles given by God, men or devil, nor even allow the mind to be upset by. anger till such a time as he attained the ultimate kevala Jnana ........
....... Thus began his 12 1⁄2 years long voyage of meditation and penance, where all his vows were tested, in which he even refused Lord Indra's offer for help: " घोर वनो में पैदल घूमे
(Song: Couplet) "GHOR VANOME PAIDAL GHOOME"
"..."
Vardhaman Mahavir endured the scores of extremely painful and terrifying physical sufferings without even feeling upset:
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• महावीर दर्शन
"होश भूला एक ग्वाला "
(Song: Couplet) "HOSH BHOOLA EK GWALA"
The suffering did not take away from Mahavir's zeal and the Nirgranth saint, determined as ever, immersed himself in meditation, thus shortening the long voyage and filling it with happiness. The goal which he set out to find, was now very much within his reach. He was pervaded by a feeling of "Satchidanandi shuddh swaroopi❞ that truthful joyous immortal and coveted state. From the depths of this ocean of knowledge he had brought out pearls of tolerance, forgiveness, love and affection. How else could he have accepted the various trying phases with much calm ?
महावीर कथा
Mahavir soon arrived in the city of Kaushambi, where awaiting him was Chandanbala. Strange is the story of this princess, a woman of high birth sold as a slave in the streets of Vaishali. The sacred texts tell us of the Lord's vow. Mahavir had been fasting for 5 months and 25 days, yet had vowed not to accept food unless given by a woman of royal bearing, forced by circumstances to become a servant maid. She would have to have a shaven head, chained body, tears in her eyes and black gram in her hands. Waiting at the door as per his requirements was Chandanbala - "चंदनबाला ! तेरा अद्भुत है इतिहास
(Song) "CHANDANBALA! TERA ADBHUT HAI ITIHAS"
Surmounting all kinds of trials, Mahavir, the meditative great saint, completes 12 1/2)years of his "Nirgranth" life and reaches his destination of self-realisation.
....... The afternoon was drawing to a close, the hamlet of chiman on the banks of River Rijuvaluka, amidst the lush greenery of the fields and under the 'Shal' tree.......
....
Yes, it was right below this tree in the "Godohika" (f) position, immersed in "Shukla dhyana" of parakoti the highest state, dwelling in the depths of the ocean of self-meditation that Mahavir grew aware of an intense feeling of being aloof from all kinds of attachments, being "merely a conscious self, the knowing and seeing soul, Pure, completely self-sufficient, alone..."
"सच्चिदानंद शुध्ध स्वरूपी, अविनाशी मैं आत्मा हूँ ।"
(Dhoon: Couplet) "SACHCHIDANANDI SHUDDHA SWAROOPI❞
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AND AS THE KNOWLEDGE OF HIS SOUL'S achievement dawns on him, there appears a serene joyou'sness on his face, the light of the omnipotent, complete Panchamajnana, the Kevala-Jnana and Kevaladarshana - in his soul. Nirgrantha Mahavir, free from all bonds of love and hate has now become self-realised, omnipotent, omnipresent vitarag, Arihant, Tirthankar Bhagawant.....!
...... To have the holy glimpse of thie lord and to hear the divine sermons & preachings, the clean celestial planes of the Devas flew, groups of human beings gathered and animals and birds flocked......
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Erat qft - Heat toen •
The divine “Samosarana” (4404
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• herat
ft - Har
en
-congragation...
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"frien fan via TIET" (Song : Couplet) "JAN LIYA KI JEEVAN YATRA” There was again the divine Samovasaran..., that stupendous non stop last discourse... and the light and night of the new moon..., 16 "praharasa”, two days and 48 hours lapsed when, when suddenly...... that ceaseless flow of words came to a stop, his physical body firmed itself into Paryankasana, all activities of the mind, word and body ceased. The remaining "Aghati Karmy were totally demolished. The soul broke the walls of all attachments and contacts and entered a still, silent, mountain-like state of pure elation, when a voiceless echo rose... “I have reached the state of the realised paramatma". And the Lord attained the highest position (Panchama Pada), everlasting silence and Pari-Nirvana (salvation) :
"HA at sifare le at ...."
(Couplet) "SANS KI ANTIM DOR TAK” The air echoes with the sound of the shell conch, the jungles with that of the trumpet and the sound of human minds with, unaccountable notes of agony ... Light fused into light.....
...... The Lord reached that Land of endless vision, limitless knowledge, infinite strength, the Siddhaloka of total happiness and immortality, from where none returns to fall into the endless circle of life and death. His chief disciple, Ganadhara Gautam Swami, away on a duty assigned by the Lord, returned after the Lord's salvation. When he knew of it, he broke down and wept. Bonds of love, attachment, for the Lord, still tied him. But even through the tears, he heard the Lord's command: " 4 ! Y " "Do not waste even a second in endless musings, O Gautam !" So, Gautam pulled himself together, returned to calmness and immediately attained kevaljnana :
Today 2,500 years later, comes the all-caring voice, the Vardhaman Bharati of that eternal soul, Lord Mahavir; It echoes down the valley of Jambu Nandiswara, over the regions .of Bharat Mahavideha and above the peaks of Meru Himalaya Mountains con “JE EGAM JANAI, SE SAVVAM JANAI”
Script : Prof. Pratapkumar Toliya - Translation: (Hindi to English): Kum. Parul Toliya .... 'HESIT asfa' a 374 gafa asfara rrit a n.st., Hl.st., HC-F # 346@ This immortal creation of 'MAHAVIR DARSHAN' available in L.P., C.D.,
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VARDHAMAN BHARATI, 12, CAMBRIDGE ROAD, BANGALORE-560008.
(Ph: 0802-65953440, 080236667882) 80 PRABHAT COMPLEX, K.G. ROAD, BANGALORE-560009.
88-26667682
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SOME OF V.B.I.F.'S IMPORTANT PUBLICATIONS By Priyavadini : Late Kum. Parul P. Toliya M.A. Gold Medalist, Dip. Journalism. 1. Why Abattoirs-Abolition? (English/Hindi)-: On Non-Violent Movement against
Slaughter Houses. Jainism Abroad (English): Various aspects: Ancients Current Contribution of Jaina Art, Music, & Literature to Indian culture (English) Papers & Essays. Musicians of India -1 came Across : Interviews of Pt. Ravishankar and others. Indian Music & Media (English): Awarded Study paper. Mahavir Darshan (English): Bhagavan Mahavir's Life & Message Or. Kum.: Vandana P. Toliya Parut Hasan Why Vegetarianism ? (English): A Scientific & Spiritual Study. + By. Prof. Pratapkumar Toliya, M.A. (Hindi, Eng.) Sanitya Ratna
My Mystic Master Y. Y. Sri Sahaj Anandaghanji : Biography *9. Dakshinapath Ki Sadhanayatra (Hindi/Gujrati) : Travelogue. *10. Anant Ki Anugoonj, (Hindi): Poems & Songs : G.O.I. Awarded
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Pragyachakshu-nu Drashti-Pradan (Gujarati) : Reminiscences U 18. Sthita Prajna ke sang (Hindi/ Gujarati) : Remi. with A. Vinobaji. W 19. Days with Vinoba (English) : Reminiscences. + 21 20. Gurudeo Kasath (Hindi) : LateGurdial Mallikjipon Tagore. 9821. Jain Contribàtion to Kannada Literature & Culture (Eng/Hindi) 2*22. Speeches & Talks in U.S.A.& U.K. (English/Gujarati) 213. Profiles of Parul (English) : Biography
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा •
(INTRODUCTORY) Mahaveer Darshan : Mahaveer Katha
(HINDI)
महावीर दर्शन आत्मध्यान-आधारित समग्रता के जीवनदर्शन की
महावीर कथा
प्रा. प्रतापकुमार ज. टोलिया जिनाय वीराय महावीराय नमोनमः । 'उस त्रिशला-तनय में तल्लीन कर मन
ज्ञान विवेक विचार बढ़ाउं । नित्य विशोधन कर नव तत्त्व का
उत्तम बोध अनेक उच्चारं ॥'
(वर्तमान युगदृष्टा श्रीमद् राजचन्द्रजी) "कल्याणपादपारामं श्रुतगंगा हिमाचलम् ।
विश्वाम्भोज रविं देवं वन्दे श्री ज्ञातनन्दनम् ॥"
. (कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य) ...... ... |. 'वीतराग महावीर का दिलमें ध्यान लगाईये ।
कषाय-मुक्त मुक्तिपंथ पर कदम बढ़ाते जाइए ॥"
(सिद्धयोगिनी विदुषी विमलाताई ठकार)
• प्रास्ताविक. 'जे एगं जाणइ से सव्व जाणइ' - (जिसने आत्मा को जाना, उसने सब को जान लिया) - आचारांग सूत्र कथित इस निग्रंथ प्रवचन का महाघोष अनुगुंजक आसन्न उपकारक चरम तीर्थंकर भगवान महावीर का अद्भुत, अभूतपूर्व, रोमहर्षक जीवन चरित्र है यह महावीर दर्शन ! केवल वह बाह्य घटनात्मक कथा नहीं, बाह्यांतर सर्व दशाओं का संस्पर्श करनेवाला वह आत्मध्यान परिकेन्द्रित ऐसा जीवन की समग्रता का जीवनदर्शन है।
आत्मा, आत्मज्ञान, आत्मध्यान उसका आंतर स्वरूप है । अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांत, अनंतनयमय सत्य आदि अनेक महासिद्धांत महाव्रत उसका बाह्यस्वरूप है।अनंत सामर्थ्ययुक्त आत्मादि
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा •
आंतर-स्वरूपों में से निष्पन्न ये बाह्यस्वरूप, सारे ही विश्व की उत्क्रान्ति करने की, विश्वकल्याण साधने की, विश्वशांति स्थापित करने की क्षमता रखते हैं।
उसमें आंतर-बाह्य का भेद नहीं है, समन्वय और समग्रता है । आवश्यकता है आत्मा के आंतर-स्वरूप को विस्मृत नहीं करने की। आत्मा की सजगता और समानता सम्हालकर स्वयं के और सर्व के कल्याण की निष्कारण करुणायुक्त प्रवृत्तियाँ प्रसारित करने की । वर्तमान के योगीन्द्र श्री सहजानंदघनजी के शब्दों में आत्मा का भान-होश-रखकर जो कुछ किया जाय, वह सब सफल है, बिना उसके सब निष्फल !' वह अपेक्षा रखता है - व्यक्ति और समष्टि के जीवन की महाक्रांति की।
इस सत्पुरुष के पूर्ववर्ती ऐसे श्रीमद् राजचन्द्रजी, महायोगी आनंदघनजी, कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यजी और अनेक महत्पुरुषों ने आत्मदृष्टा-सर्वदृष्टा भगवान महावीर का यह आत्मबोध प्रतिध्वनित किया, इतना ही नहीं, स्वयं के जीवन और कवन के द्वारा पुरुषार्थ-प्रयोग में रखकर महावीरशासन को आलोकित किया।
अब हमारे आराध्य एवं अनंत उपकारक भगवान महावीर का यह आत्मस्वरूप-आधारित एवं बाह्यांतर अखिलाई-समग्रता-संवादमय जीवन, जीवनदर्शन हम, उनके आराधक, कितना जानते हैं?...उनके महाजीवन के महत्-दर्शन और संदेश को हम कितना समझते हैं ?..... उसे हमारे वास्तविक, प्रायोगिक जीवन में कितना उतारते हैं ? ... उनकी मंगलमयी, कल्याणकारी जीवनकथा का हम सभी - हमारे बालक-बालिकाएँ, युवक-युवतियाँ, छोटे-बड़े सर्व आबालवृद्ध - कितना अवधारणअवगाहन-अनुचिंतन करते हैं ?... उसे यथातत्य जान-समझकर अपने चारों ओर के जीवन में प्रभावित करने हेतु प्रथम अपने ही जीवन में हम कितना आचार में लाते हैं ?
ऐसे तो अनेक प्रश्न भगवंत का भव्य जीवनदर्शन- 'महावीर दर्शन' - हमारे सन्मुख प्रत्यक्ष एवं परोक्षरूप से रखता है - उनके स्वयं के ही अभूतपूर्व उपसर्गोंयुक्त फिर भी 'परिस्थितिअप्रभावित' सतत आत्म-केन्द्रित, आत्मध्यानलीन अवस्थामय, प्रेरक प्रसंगों के द्वारा !
इस उपक्रम में फिर अन्य प्रश्न भी उठे : भगवंत के 'अधिकृत' जीवन और जीवनप्रसंगों को किस प्रकार चयन करना और अवधारण करना....? भिन्न भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करनेवाले, भिन्न भिन्न आम्नायों का प्रतिनिधित्व करनेवाले केवल महावीर-जीवन ग्रंथों के द्वारा ?... सर्वाधिक प्रमाणभूत ऐसे श्री कल्पसूत्र, त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र, वर्धमान पुराण, महापुराण, विविध महावीर चरित्र आदि के द्वारा वह पुरुषार्थ भी किया गया, महत् पुरुषों-गुरुजनों के चरणों में बैठकर किया गया, उसे उस 'गुरुगम' से पाने और अंत में मौन अंतर-ध्यान की गुफाओं में प्रवेश कर, पैठकर प्रयत्न किया गया, देश-विदेशों में पचीसेक बार श्री कल्पसूत्र स्वाध्याय-प्रवचनों के द्वारा भी उसका मंथन-अनुचिंतन किया गया, दिगंबर आम्नाय के भी उपादेय तत्त्वों को प्रामाणिकरूप से, हंस-नीर-क्षीर-न्याय युक्त विवेकदृष्टि से अपनाते जाने का अभिगम तक अपनाया गया .....*
*
(विस्तार से दृष्टर्व आलेख : "अंतर्लोक में महावीर का महा जीवन ।"
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
..... और इतना सारा होते हुए भी, 'मानव से ही महामानव' बने हुए पुरुषार्थ-प्रधान महाविश्वात्मा महावीर के महाजीवन को अंतस् स्वरूप से - समग्र स्वरूप से पाना, आत्मसात् करना अभी दूर है, बहुत दूर ....! उस महाजीवन के महासागर के गहनतल से मोती चुनकर लाना अभी शेष ही है ! यहाँ तो सभी उस महासागर के तट पर से चंद सीप ही हाथ लगे हैं !! सम्भव है कि ये सीप भी निमित्त बनकर किसी भाग्यवंत महा-मरजीवे को (गोतेखोर को) महावीर-महासागर के उस अंतस्तल में पहुँच कर महामूल्यवान मोतियों को खोज कर ले आने की प्रेरणा करें !!!
ऐसी आशा, ऐसी भावना, ऐसी विनम्र प्रार्थना के साथ अनेक स्थलों की श्रृंखला में यहाँ भी प्रस्तुत हो रहा है यह महावीर दश्न-2500 वे महावीर निर्वाणोत्सव प्रसंग पर रिकार्ड रूप में, 2600 वे जन्मोत्सव पर कलकत्ता में मंचन रूप में एवं तत्पश्चात् मुंबई, राजकोट, बोरड़ी, अमरेली, इ. के पश्चात् । कोई तो, कहीं तो, कभी तो कोई महावीर-महासागर-मरजीवा जागेगा ही -
- प्रा. प्रतापकुमार ज. टोलिया 1580, कुमारस्वामी ले आउट, बेंगलोर-560078 (मो. 9611231580)
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(गान : F वृंद)
• अंतर्लोक में पूर्वदर्शन •
प्र. रुक जायें पलभर तो वर्तमान की दौड़ धूप से..... इस विकराल वर्तमान के, कराल कलिकाल पंचमकाल के भयावह बहिर्जीवन से ( क्षण भर रुकें) और संचरण कर पहुँच जायें पुराणपुरुष परमपुरुष प्रभु महाप्रभु महावीर के उस पवित्र काल के अभय, अद्वेष, अखेदभरे अंतजीवन में..!
Tr
महावीर दर्शन महाजीवन मंच कथा
आलोक से भरे उस अंतर्जीवन में, अनंत वीर्य अनंत सामर्थ्य से अतल गहन तल में !!
उस अंतर्लोक में, आत्मा के भरे उस आत्मसागर के रत्नग हाँ, वह अंतस्-सागर, वह अंतर्लोक... उसका वह अतल गहनतल - जहाँ विलसित हो रहा है - विस्तरित पड़ा है उस परमपुरुष का विराट, विशाल, भव्य जिन-मंदिर, विश्वतारक, सर्वोदय तीर्थरूप जिनशासन का वीर मंदिर !!!
***
...
"भविजन ! मंदिर देखें वीर के रे लोल....
कुछ प्रकटे अलौकिक नूर रे... भविजन.
बैर ज़हर से यह विश्व अति तड़पता रे लोल.....
• महावीर दर्शन महावीर कथा
यहाँ प्रेम का आनंद भरपुर रे... भविजन.
राग-द्वेष के विकार ठौर ठौर ( चहुँ ओर) भरे रे लोल..... यहाँ अचल अविकारी स्वरूप रे... भविजन."
-
.....
-
- 'चित्तमुनि' : संतशिष्य संपा. 'प्रार्थना मंदिर' : पृ. 119-20 : गुज. से )
-Small fonds (प्र.) हाँ, यह वही विराट विशाल मंदिर वीर का, वीर के भव्य, अविभाजित शासन का...! ... अंतर्-ध्यान- आत्मध्यान के महाशासन का !! 2500-2600 वर्षों से वह डूबा रहा उस महासागर के गहन अंतस्तल में विस्मृत विभाजित, वेदनाग्रस्त बनकर !!!
7
1
स्वयं के अंतर के आलोक में आत्मा के अविच्छिन्न प्रकाश में उसे दूबा हुआ देखा वीर के ही उस काल के एक 'लघु शिष्य' ने वर्तमान काल में आकर अतीत से । (प्र. ) उस क्षत-विक्षत अवस्था में उसे उस (विशाल वीर - शासन मंदिर को ) दयनीय दशा में निहारकर उसका हृदय रो उठा, मचल उठा . वेदना-विगलित लक्ष्य से उसने इस कराल कलिकाल में इस जम्बू- भरत में आकर, उसे उसके अविच्छिन्न, अखंड, मंगलस्वरूप में बाहर ऊपर उठाकर, वर्तमान में लाकर रखा उसका अंतर्घोष और सर्वजग को सुनाया
.....
सुना
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1
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प्रभु
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा
(घोष) "जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ ।" (आचारांगसूत्र) "जिसने आत्मा को जाना, उसने सर्व को जान लिया।"
- निग्रंथ प्रवचन : श्रीमद् वचनामृत (प्र.) आत्मा के इस विस्मृत स्वरूप की आत्मा के निजधर्म-जिनधर्म-की उसने आहलेक जगाई - 'धर्म' के नाम पर चल रहे अधर्मो-ढोंग पाखंडों को ललकारती हुई - (समूहगान)
"कलि-काल में इस जंबू भरत में, धरा देह निज-पर-हित परत में; मिटाया मोह-अंधेरा, हो कृपालु देव ! धर्म-ढोंग को दूर हटाकर,
आत्म-धर्म की ज्योत जगाकर, किया चेतन-जड़ न्यारा रे, हो कृपालु देव !"
- श्री सहजानंदघनजी : भद्रमुनि : भक्ति कर्तव्य : 85) (प्र.) हमें पहुँचना है हेमचंद्राचार्य के बाद के आत्मधर्म-ज्योत जगाने वाले इस दूसरे प्रकट और गुप्त युगपुरुष-लघुशिष्य द्वारा चेताई गई महावीर-महाजीवन-महाज्योत के आलोक में - उस अनंत, अद्भुत आत्मप्रकाश के अंतर्लोक में - सर्वप्रथम उसकी उस वर्तमान वीरशासन-विषयक अंतर्वेदना. का अवगाहन करके : (प्र. सूत्रघोष) "वर्तमान में जैनदर्शन इतना अधिक अव्यवस्थित अथवा विपरीत स्थिति में देखा जाता है कि उसमें से मानों जिनका अंतर्मार्ग का प्रायः ज्ञान-विच्छेद जैसा हुआ है।" (श्रीमद् वचनामृत: 708). (प्र.) वीरशासन की सर्व वर्तमान विपरीतता-विश्रृंखलताओं के उस पार अब हम पहुंचेंगे हमारा सारा देहभान-बाह्यभान भूलाकर, युगों से डूबे हुए आत्मध्यान के वीर-मंदिर को खोजने ! अंगुलि पकड़ेंगे उस युगदृष्टा सत्पुरुष की और पहुँच जायेंगे आत्मध्यान के, महामंदिर में विराजित परमपुरुष प्रभु महावीर के आत्मदर्शन में - 'महावीर दर्शन' में - वह सत्यकथा हमें प्रथम ले जाती है एक निराली सृष्टि में - (प्र. 2) "हजारों वर्ष पुरानी बात है। कहते हैं कि वीर परमात्मा का विराट मंदिर गहन सागरतल में डूब चुका था बरसों से ।... मैं आराम से सोया हुआ था प्रमाद की तले-दीबार ... अचानक उस युग-प्रहरीने, उस मंदिर के शिखर पर की घंटियाँ बजा दी... सुनकर, चौककर मैं जाग उठा, चल पड़ा उस मधुर जादुभरे संगीत की ओर, और क्या देखता हूँ आखों से - "महावीर स्वामी नयनपथगामी भवतु मे... महावीर स्वामी ..."
(गान-श्रुति सह ध्यानसंगीतमय महावीरदर्शन-महाजीवन कथारम्भ) Copyrighted : JINA BHARATI : V.B.I.F., Bangalore :
___Prof. PRATAPKUMAR J. TOLIYA.
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
महावीर दर्शन महाजीवन कथा ॥ महावीर स्वामी ! नयनपथगामी भवतु मे ॥
कल्याणपादपारामं श्रुतगंगा हिमाचलम् ।
विश्वाम्भोज रविं देवं वन्दे श्री ज्ञातनन्दनम् ॥ (सूत्र-ध्वनि) "जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ ।"
जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ॥ (आचारांग : १/३/४) (= जो 'एक' को - आत्मा को - जान लेता है, वह सब को, सारे जगत् को जान लेता है।" (मंत्र-ध्वनि) ॐ नमो अरिहंताणं । नमो सिद्धाणं ।
नमो आयरियाणं । नमो उवज्झायाणं । नमो लोए सव्व साहूणं । एसो पंच नमुक्कारो । सव्व पावप्पणासणो ।
मंगलाणं च सव्वेसि । पढमं हवइ मंगलम् ॥ (प्रवक्ता-F) अनादिकाल से चला आ रहा है यह मंत्र-नमस्कार महामंत्र : व्यक्ति को नहीं, गुणों को पूजनेवाला विश्व-कल्याण का महामंत्र । अरिहंतपद सिद्धपद की पूजा-पूजना के द्वारा स्वयं को अरिहंतपद-सिद्धपद-परमात्मपद दिलानेवाला महामंत्र... पंच-परमगुरुओं में निहित आत्मतत्त्व-केन्द्रित महामंत्र । (प्रवक्ता-F). इस महामंत्र की आराधना, ध्यान-साधना एवं तद्नुसार आचरणा - सम्यक् दर्शनज्ञान-चारित्र की रत्नत्रयी उपासना - एक महान आत्मा ने की थी : एक नहीं, दो नहीं, सत्ताईस सत्ताईस जागृत जन्मान्तरों में...! सत्ताईस भव-नयसार और ऋषभदेव-पौत्र मरीची से लेकर वर्धमान महावीर तक। (प्र. M) और इतनी सुदीर्घ साधना के पश्चात्, आज से ठीक २६४२ वर्ष पहले, ईस्वी पूर्व (५९८) पांच सौ अठ्यानबे में - (प्र. F) जम्बुद्वीप के भरतक्षेत्र की कर्मभूमि ... बिहार की संपन्न वैशाली नगरी... उसीका एक उपनगर क्षत्रियकुंड-ग्राम और उसीमें स्थित एक राजप्रासाद - (प्र. M) तेईसवें जैन तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के धर्मावलंबी एवं लिच्छवी वंशी राजा सिद्धार्थ का यह राजमहल ... । यहाँ पर राजमाता त्रिशलादेवी की पवित्र कुक्षि में उस भव्यात्मा का देवलोक से अवतरण हुआ है- महामंगलकारी चौदह सर्वोत्तम सांकेतिक स्वप्नों के पूर्वदर्शन के साथ । (दिव्य वाद्यसंगीत : Celestial Instmtl. Music सूरमंडल, संतूर) (प्र. F) मति, श्रुत एवं अवधि इन तीनों ज्ञान से युक्त यह भव्य करुणाशील आत्मा गर्भावस्था में भी अपनी माता की सुख-चिन्ता एवं सुख-कामना का संकल्प करती है -
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा •
(प्र. M सूत्र) "माता-पिता के जीवनकाल तक मैं दीक्षा ग्रहण नहीं करूंगा।"
(- कल्पसूत्र) (प्र. M) इस प्रकार इस महती चिंता में प्रभु जन्मपूर्व ही माता-पिता के जीते जी दीक्षा नहीं ग्रहण करने की प्रतिज्ञा कर अपनी मातृ-पितृ भक्ति स्पष्ट करते हैं। (प्र. F) और यहाँ माता त्रिशला भी गर्भवती माँ के लिये समुचित, उत्कृष्ट आचारधर्म का पालन करती हैं । इस में एक आदर्श माता के लिये उचित ऐसा शील, संस्कार, आरोग्यमय जीवन जीते हुए, एक महान् शिशु के निर्माण का आदर्श मार्ग प्रस्तुत किया गया है। वह अद्भुत, सर्वोपकारक, सर्वकालीन एवं सर्वदेशीय है ।... माँ क्या खाये, कैसे चले-उठे-बैठे, कैसे वस्त्र धारण करे, कैसे सोये, कैसे बोले और किस प्रकार प्रसन्नचित्त होकर शांत, धर्मध्यानमय जीवन बीताये, इत्यादि दैनिक व्यवहार के पालन करने योग्य नियम यहाँ बताये गये हैं। (प्र. M) इस प्रकार "जयं चिट्ठे जयं चरे" के विवेकयुक्त गर्भावास के नौ मास साड़े सात दिन पूर्ण होते हैं और आता है वह दिन - वह दिन है चैत की चांदनी की तेरहवीं तिथि - चैत्र शुक्ला त्रयोदशी । शुक्लपक्ष की इस चांदनी में शुक्लध्यान-आत्मध्यान-आत्मस्वरूप में खो जाने के लिये, अपनी समग्र आत्मसिद्धि को पाने के लिये, चन्द्रवत् निर्मल, सूर्यवत् व्याप्त, सागरवत् गंभीर प्रभु की महान चेतना स्व-पर हिताय जन्म लेती है । (धारण करती है) (गीत M) (Soormandal + Sitar : Musical Instruments : वाद्य मध्यांतर :
.... नीनीनीनी सानी रे रे - । पप मपपरे सारेसानी -) .. . (1) "पच्चीस सौ बरसों पहले एक तेजराशि का जन्म हुआ ।
जुगजुग का अंधकार मिटाता, भारत भाग्य रवि चमका ॥ (सा ध धधध मगमपपप । ध ध ध ध प । परेसारेनी) "कोकिल मोर करे कलशोर, वायु बसन्ती बहता रहा,
क्षत्रियकुंड में माँ त्रिशला को पुत्र पवित्र का जन्म हुआ।" (2) Music change : Guj. Folk tunes (रास गान) "क्षत्रियकुंड में प्रकट भये, माता त्रिशला देवी के नंद रे, धन्य महावीर प्रभु !
भव-भव से साधन करके लाये, साथ मति-श्रुत-अवधि ज्ञान रे, धन्य महावीर प्रभु ! (प्र. F) राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला के नंदन 'वर्धमान' के((- निशान्त जन्म का यह आनंदोत्सव, यह 'कल्याणक', सभी मनाते हैं -(वहाँ मेरु पर्वत पर देवतागण और (इधर) यहाँ धरतीलोक पर राजा सिद्धार्थ एवं उनके प्रजाजन - (Rhythm + Soormandal)
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
(वृंदगान) (राग - बसंत बहार केदार; ताल-त्रिताल) सासामगप, पनीसारि, साधध, धनीधप । पपपप प साप, परेसा) (वाद्य-सागप) "घरघर में आनंद है छाया, घरघर में आनंद । त्रिशला मैया पुत्र प्रगटिया, जैसे पूनम का चंद ॥ घर घर में ।" (पपप सा-सा । सां सां सां । नीरेसा । साग । सांग रेमं गरे । सा-धप । (सासामग । प-पनीसारे । सां-धध ॥ धनीधप । पपपप । प-सा ।) ॥ सा-म-रेसा) (म-गाप-रेसा । सासामग । प-नी-सा-म) "गोख गोख में दीप जले हैं केसर कुमकुम रंग खिले हैं। धरती के गूढ़ अंतस्तल से, प्रसरित धूप सुगंध... ॥ घरघर में ॥ "कुंज कुंज कोयलिया बोले, मस्ती में मोरलिया डोले । मंजुल कंठ से, मीठे स्वर से, गाये विहग के वृंद... ॥ घर घर में ॥ (Soormandal) (प्र. F) और इस महामंगलकारी जन्मकल्याणक के पश्चात् (राग-मिश्र ताल-दादरा : धधध-नीसानीसा । नीसानीधप । पपप धनी धप धनीनी नीनीनी) "बाल को करती प्यार दुलार माँ, झुले की डोरी खींचती थी; ...
था; सुर मधुर सुनाय सुनाय के, अंतस्-अमृत सींचती थी। रेरेरे गरेसा । रेपम धपप-गगग मधप मममम ध-पम धधध । मपपप, धधधनीसासा । नी सासासासा। "वीर होना गंभीर होना तू । पुत्र को आशिष देती थी, झुकझुक के निज काल के लोचन, नेह नज़र से देखती थी ॥" (रेरेरे गरेसा, रेमम धधप-गगग मधप ममममम) लोरी गीत (वाद्यस्वर परिवर्तन : पहाड़ी छाया, ताल-दादरा) (E) (1) "सो जा रे - सो जा । ... सो जा ... । ओ मेरे बाल/लाल ... !
मीठी मीठी लोरी सुनाऊं, मैं तो तेरे काज,
जागने का शेष तुझे रे, सो जा रे तू आज । सो जा रे ।" लोरी गीत (F) (2) "तुम सो जाओ । ... मैं गाउं, तुम सो जाओ, सो जाओ।
- तुम सो जाओ ! (2)
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
क्यों जीवन के शूलों में, प्रतिक्षण आते जाते हो ? ठहरो सुकुमार ! गलाकर मोती पथ में फैलाऊं।
तुम सो जाओ ! (2)
(- महादेवी वर्मा : 'नीरजा' : आधुनिक कवि 70) (प्र. M) त्रिशला मैया ने तो सुलाया अपने सुकुमार वीर को पथ में शूलों के स्थान पर फूलों और मोतियों को बिछाकर ! पर वह कहाँ सोनेवाला था ? ... वह तो जागने और जगानेवाला था सब को, सारे जग को, यह आह्वान सुनाकर कि - (धोष-M) "जं जागरुका उपयोगवंता । उपयोगवंता खलु भाग्यवंता ।" ..... उठ्ठिए । मा पमायए ।... समयं गोयम् । मा पमायई॥"
"हे जीव । छोड़ प्रमोद और जागृत हो जा !! अन्यथा रत्नचिंतामणि सम यह मनुष्यदेह निष्फल चला जायेगा ... !!!(- श्रीमद् राजचन्द्र : वचनामृत) (प्र. F) वर्धमान के जन्म से ही "श्री" एवं "आत्मश्री" का वर्धन, उनका विद्याशाला में गमन और वहाँ इन्द्र का आगमन .... इन्द्र की प्रश्नपृच्छा से पंडितगुरु का धन्य बनना, 'जैनेन्द्र व्याकरण' का सृजन होना और ..... और अपने अलौकिक बाल-पराक्रम से 'वर्धमान' से 'महावीर' नामकरण होना : चल पड़ा यह क्रम - ।..... (प्र. M) एक दिन की बात है । इस नामकरण का निमित्त बना आमल की क्रीडा का बालखेल प्रसंग । उसकी पराक्रम-गाथा सुनाने वर्धमान के बालमित्र पहुंचे हैं माता त्रिशला के पास - (बाल वृंदगीत : राग-भीमपलास; ताल-दादरा) ... ..
"ओ मैया । तेरे कुंवर की करनी क्या बात ? ओ त्रिशला ! तेरे कुंवर की कहनी क्या बात ?
सब से निराली उसकी जात, भली है उसकी भाँत,
ओ मैया । तेरे कुंवर की करनी क्या बात ? "एक दिन सभी मिल के हम खेल खेलते थे, सुख-दुःख के घाव-दाव संग झेलते थे । निकला अचानक साँप एक महाकाय, देखते ही (उसे) सभी हम भागते चले जायँ ... बोलते हुए - 'बाप रे बाप !'
"पर तेरे लाडले ने दौड़ पकडा उसे, रस्सी समान फैक छोड़ रक्खा उसे, पर काँपा न उसका हाथ ! ओ मैया ! तेरे कुंवर की करनी क्या बात ?"
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
(प्र. M) साँप बने हुए उस देवता ने फिर थककर क्या किया ? (Horror Sound Effects : भयदर्शक वाद्य) (गीत-पंक्ति काव्यपाठ)
"रूप पिशाच का लेकर देवता, वीर को पीठ बिठाई दिये।
नन्हा-सा बहादुर बाल कुमार, उस देव को मुट्ठी लगाई दिये ॥ (प्र. F) साँप-पिशाच-दैत्य और दूसरे प्रसंग में पागल हाथी - सभी को अपने बाल-पराक्रम से कुमार वर्धमान वश करते रहे ..... (गीत-पंक्ति M)
"ए..... हाथी, सर्प, दैत्य को क्षण में भगाया, सिखाये अभय के पाठ रे...
धन्य महावीर प्रभु । क्षत्रियकुंड में प्रकट भये" (प्र. M) बाल-किशोर-कुमारावस्था बीत चुकी .... युवा आई .... भीतर से वे अलिप्त हैं, परन्तु 'भोगवली' कर्म अभी कुछ शेष हैं, माता-पिता के प्रति भक्ति-कर्तव्य अभी शेष है, यशोदा का स्नेहऋण अभी बाकी है। (Soormandal) और -
माता, मातृआज्ञा, कुमार राजकुमार वर्धमान के सन्मुख ले आते हैं- यशोदा को !..... यशोदा.. समरवीर राजा की यश-दात्री । स्वनाम-धन्या सुपुत्री .....
(प्र. F) जिस के गर्भागमन से ही पिता राजा को युद्धविजय और यश प्राप्त हुए और जो शायद त्यागी बननेवाले पति वर्धमान के भावी कर्म-युद्ध में भी 'पथ-बाधा' नहीं, अवरोध-अंतराय नहीं, यश-प्रदाता ही बननेवाली थी, ऐसी 'यशोदा' .....! (प्र. M) जिस की अंतर्व्यथा की कथा, आगे संकेत करेंगे उस प्रकार, शायद किसीने नहीं लिखी ...! (प्र. F) इस यशोदा का पाणि-ग्रहण करवाने वर्धमान कुमार के पास पहुंची है माता त्रिशला । (प्र. M) मातृ-आग्रह, मातृ-आज्ञा, गर्भावास में स्वयं की हुई मातृ-पितृ भक्ति-प्रतिज्ञा और दूसरी
ओर से भवसंसारभ्रमण-भय विचार - दोनों पहलूओं के गहन चिंतन के पश्चात् वर्धमान एक निर्णय पर पहुंचते हैं। मातापिता के सुखहेतु भी और अपने भोगावली कर्म निःशेष करने हेतू भी वे स्वेच्छा से यह निर्णय करते हैं - विवाह करने का (संदर्भ : 'त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र') (प्र. F) और राजकुमार वर्धमान महावीर यशोदा का पाणिग्रहण करते हैं, उससे विवाह करते हैं -
यद्यपि दूसरी मान्यतानुसार वे अविवाहित कुमार ही रहते हैं।... इस गृहस्थाश्रम में, वैभवपूर्ण गृहस्थाश्रम में भी वे जीते हैं अपने उस जलकमल-वत् जीवनादर्श के अनुसार - (प्रतिध्वनि घोष-M)
"जल में, कीच में जन्म लेकर भी जैसे जल से कमल अलिप्त रहता है, वैसे ही संसार के बीच रहते हुए भी आत्मार्थी को संसार-वासना से अलिप्त रहना है।" (Soormandal)
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
(गीतपंक्ति -M)
"वैभव में वह बसते हुए भी जलकमल की भाँति रहे;
भोगी होकर भी योगी की भाँति, रागी होकर भी विरागी रहे।" (प्र. F) इसी आदर्श के अनुसार, भोग को रोग की भाँति भुगतकर, बीत रहे उनके गृहस्थाश्रम के दौरान उनके घर पुत्रीरत्न 'प्रियदर्शना' का खेलना, गृहस्थधर्म निभाते हुए पत्नी-पुत्री को स्वयं के भावी विरागी जीवन को लक्ष्य कर धर्म-मार्ग पर सुदृढ़ और तैयार करना ... और माता-पिता का स्वर्ग सिधारना - इन सभी अनुकूल-प्रतिकूल घटनाओं में भी महावीर का आत्मचिंतन निरंतर चलता रहता है - (प्रतिध्वनियुक्त गीतपंक्ति) (M) "मैं कौन हूँ? मैं कौन हूँ? कोऽहम् ? कोऽहम् ? मैं कौन हूँ? आया कहाँ से ? क्या स्वरूप है मेरा सही ? मैं कौन हूँ?
(- श्रीमद् राजचंद्रजी : "अमूल्य तत्व विचार") (हुं कोण छु ? क्याथी थयो ? शुं स्वरूप छे मारं खरं ? हुं कोण छु ?)(प्र. F) तीव्रता पकड़ते हुए इस आत्मचिन्तन के प्रत्युत्तर में उन्हें लंबे अर्से से पुकारती हुई वह आवाज़ (भीतर से) सुनाई देती है, वह आवाज़, वह कि जिस में एक मांग है, एक बुलावा है, एक निमंत्रण
है
(प्रतिध्वनि घोष-M) "जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ।" जो एक को, आत्मा को जान लेता है, वह सब को, सारे जगत को जान लेता है ..... ! आ, और अपने आप को पहचान, अपने आप को पा...।" (Soormandal : Celesteal MasD Instrumental Echoes) (प्र. F) और इसे सुन वे तड़प उठे हैं। उनकी छटपटाहट जाग सठती है। इस आवाज़ का वे उत्तर देना चाहते हैं, स्वयं को खोजना और सदा के लिए पाना चाहते हैं - (प्र. M) ना, वैशाली के राजमहल में अपनी इस आत्मा को पाया नहीं जा सकता ....!
(Soormandal) (प्र. F) और इस के लिए एक ही मार्ग था - "सर्वसंग परित्याग"... भीतरी भावदशा से भरे इस वीरोचित सर्वसंग परित्याग के अवसर की ताक में वे तरसते रहे..... (प्रतिध्वनि गीत-M) "अपूर्व अवसर (2) ऐसा आयेगा कभी ? “અપૂર્વ અવસર એવો ક્યારે આવશે ? कब होंगे हम बाह्यांतर निग्रंथ रे ?
ક્યારે થઈશું બાહ્યાંતર નિગ્રંથ જો; सर्व सम्बन्ध का बंधन तीक्ष्ण छेदकर, સર્વ સંબંધનું બંધન તીક્ષ્ણ છેદીને, कब विचरेंगे महत्पुरुष के पंथ रे ? अपूर्व." वियरशुं महत् पुरुषने पंथ ले !"
(श्रीमद् राजचन्द्रजी । अनु. 'निशान्त')
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महावीर दर्शन - महावीर कथा
(प्र. M) और लोकान्तिक देवों की स्मृति एवं वर्षभर के अपरिमित दान के बाद अंतमें आया वह दिन अपने को पहचानने हेतु जाने का, सर्वसंग परित्याग के महाभिनिष्क्रमण के भागवती दीक्षा के 'अपूर्व अवसर' का ... । ( Soormandal) वह अतिविस्तृत, अति विशाल 'चन्द्रकांता' शिविका और वह अष्टमंगलादि युक्त विराट शोभायात्रा उनके दीक्षाकल्याण की !
(प्र. F) पलायन से नहीं, क्षमा, समझौता और स्नेह से ली गई इस भागवती दीक्षा के समय ही जन्मजात तीन ज्ञानवाले वर्धमान महावीर को चौथा (मन वाले जीवों के मनोभावों को जाननेवाला) "मनः पर्यव ज्ञान" उत्पन्न हुआ और वे चल पड़े अपनी आत्मा को दिलानेवाले पंचम ज्ञान और पंचम गति मोक्ष को खोजने अनंत, अज्ञात आत्मपथ पर एकाकी अकेले, असंग.... । (Soormandal) (प्र.M) (प्रभु वीर के) इस सर्वसंग परित्याग के समय, पत्नी पुत्री की अंतर्दशा कैसी रही होगी ?... उनके भीतर कैसे भावांदोलन उठे होंगे ? वनवासी लक्ष्मण की 'उपेक्षिता ऊर्मिला' और ...महाभिनिष्क्रिमण कर गये गौतम बुद्ध की 'विरहिणी यशोधरा' से तो महावीर की इस ऊर्ध्वचेता यशोदा के मनोभाव ऊंचे ही उठे होंगे ?... अन्य चरित्र लेखकों-कवियों का कम, किन्तु हमारे साथ, हमारी ही भांति एक सहृदय मम कवि का तो इस और कुछ ध्यान गया है और उन्होंने इन भावों को प्रश्न- वाचा दी है -
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(प्र. F) नारी उद्धारक वीरप्रभु ने अपनी ही अर्धांगिनी के लिए कुछ तो सोचा होगा ? वास्तव में क्या महावीर के महाजीवन के निर्माण में यशोदा का मूक योगदान कम था ?
(प्र. M) या "मैं देहादि स्वरूप नहीं और देह, स्त्री, पुत्रादि कोई मेरे नहीं" ऐसी स्पष्ट, तीष्ण आत्मभावना से राग-द्वेष के पुष्पवत् कोमल बंधनों को काटा होगा ?... समूचे संसार में नायक रूप ऐसी रमणी को उन्होंने 'केवल शोकस्वरूप' समझकर त्यागा होगा ?
(BGM गानपंक्ति M )
“સઘળા આ સંસારમાં રમણી નાયકરૂપ,
थे त्यागे त्याग्यं अधुं डेवल शोऽस्वप." ( श्रीमद् राजचंद्र ) (प्र. F) परंतु स्वयं यशोदा जैसी समुन्नत अर्धांगना ने तब क्या सोचा होगा ? (काव्यगान M) "जिस दिन महावीर ने स्वयं ही त्यागी बनने का कहा होगा,
देवी यशोदा । दिल में आपके, उस वक्त क्या हुआ होगा ?
( क्या ) कभी भी आपको खयाल आया था, कि पति के साथ मैं जाउं ? नेम के पीछे राजुल चली थी, ऐसी रीत निभाउं... ?
या नन्ही सी बिटिया की खातिर घर में रहना पड़ा होगा ? (प्रियदर्शना) •
कोई न जाने देवी । आप की होगी कैसी समस्या ?
महान त्यागी पति के पीछे, होगी कैसी तपस्या ?
अबोल है इतिहास आपका, क्या क्या आपको हुआ होगा ?
क्या क्या आप पर बीता, गुज़रा होगा ?"
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(- श्री शांतिलाल शाह : 'स्तवन मंगल' : 42)
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
(प्र. F) उक्त दृष्टा कवि ने तो जिनशासन की सन्नारियों में त्रिशला-देवानंदा दोनों के साथ यशोदा को भी यह अंजलि दी है - (कवित्त) "त्रिशला-देवानंदा दोनों प्रभु वीर की माता
शासन के इतिहास में दोनों का नाम अमर हो जाता । ब्राह्मण-क्षत्रिय जाति वंश के संस्कार (सब) भरनेवाली, वीर की पत्नी देवी यशोदा, जिसने नाम उजाला; पति के सुख के खातिर जिसने, अपना सुख बिसारा, आत्मविलोपन की यशगाथा, यशोदा लिखनेवाली ....."
(- श्री शांतिलाल शाह : 'स्तवन मंगल': 20) प्र. F) पर आत्म-लीन प्रभु वीर तो अपने निर्धारित सर्वसंगतपरित्याग-पथ पर प्रस्थान करने - (गान M) "साँप की केंचुलि माफ़िक एक दिन, इस संसार का त्याग करे ।
राजप्रासादों में रहनेवाला, जंगल जंगल वास करे ॥"
(Pathetic Instrumental Music : Raga Shivaranjani) (प्र. F) उनकी इस हृदयविदारक विदा के बेला, इस 'ज्ञातखंडवन' की घटा में खो जाते हुए उनको देखकर पत्नी यशोदा, पुत्री प्रियदर्शन ।। बहन सुदर्शना) एवं बंधु नंदीवर्धन के विरहवेदना से भरे विलाप-स्वर गूंज उठे - (BGM : Pathelie Music) (गीत : करूणतम श्लोक: M)
"त्वया विना वीर ! कथं व्रजामो, गोष्ठिसुखं केन... सहाचरामो ?..." (प्र. M) "हे वीर ! अब हम आप के बिना शून्यवन के समान घर को कैसे जायें ? हे बन्धु ! अब हमें गोष्ठि-सुख कैसे मिलेगा? अब हम किसके साथ बैठकर भोजन करेंगे?" (प्र. F) लेकिन निग्रंथ, निःसंग, निर्मोही महावीर तो चल पड़े हैं - प्रथम प्रस्थान से ही यह भीषण भीष्म-प्रतिज्ञा किए हुए कि - (सूत्रघोष प्रतिध्वनि-M) "बारह वर्ष तक, जब तक मुझे केवलज्ञान नहीं होगा, तब तक न तो शरीर की सेवा-सुश्रूषा करूँगा, न देव-मानव-तिर्यंच के उपसर्गों का विरोध करूँगा, न मन में किंचित् मात्र उद्वेग भी आने दूंगा।"
(- श्री कल्पसूत्र) (Thrilling Instrumental Effects) (प्र. F) यहीं से शुरु हो रही इन सभी भीषण प्रतिज्ञाओं की कसौटी-रूप उनकी साड़े बारह वर्ष की आत्म-केन्द्रित साधनायात्रा-जिसमें इन्द्र तक की सहाय प्रार्थना भी अस्वीकार कर के, और भी भीषण प्रतिज्ञाएँ जोड़ते हुए, वे आगे चले..... (Soormandal : Cloud Burst, Beast-Roaring, Forest Horrors' Effects...)
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• महावीर दर्शन महावीर कथा •
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(सूत्रघोष प्रतिध्वनि - M) "अब से अप्रीतिकर स्थान में नहीं रहूंगा । सदा ध्यान- लीन रहूंगा । सदा मौन रहूंगा। हाथ में ही भोजन करूंगा और गृहस्थों का विनय नहीं करूंगा ।" (- श्री कल्पसूत्र ) (Forest Effects Contd.) (गीत : शिवरंजनी अन्य M) "घोर वनों में पैदल घूमे (F) पैरों में लिये लाली (F) मान मिले, अपमान मिले या देवे भले कोई गाली । (M) पंथ था उस का जंगल झाड़ी..... कंकड़-कंटक वाला (F) कभी कभी था साथ में रहता, मंखलीपुत्र गोशाला ॥" (वन में निर्भय यात्रा पदध्वनि : Horror & Rain-clouds lighting effects) ( गीत : स्वर परिवर्तन : M) ( ताल - दादरा )
“आफत और उपसर्ग की सेना, पद पद उसे पुचकारती थी; आँधी-तूफाँ और मेघ गर्जन से कुदरत भी ललकारती थी ! "दुःख से कभी न डरनेवाला, उल्टे दुःख को डराता था । सुख की शीतल छांव को छोड़कर, आग में कदम धरता / लगाता था । "पहाड़ों के पहाड़ टूटने पर भी, निश्चल हो धीर धरता था; सहायता को इन्द्र आये तब उसको भी विदा करता था ! "घोर भयानक संकट के बीच आतम-साधना चलती थी ! ज़हर हलाहल को पी जाकर, अँखियाँ अमृत झरती थीं ॥ (Voice & Instrumental Change)
2
(गीत- स्वर परिवर्तन : F)
"प्रेम की पावन धारा निरंतर पापी के पाप प्रक्षालती थी । मैत्री करुणा की भावना उसकी डूबते बेड़े उबारती थी ।"
"
(गीत : स्वर परिवर्तन : M) करूण-वेदना-करूण, मुरली स्वर : दृढ़ वज्र नाद : डफ)
"चंडकोशी जैसे भीषण नाग को बुझाने वीर विहार करे । जहर भरे कई दंश दिये पर, वे तो उससे प्यार करे ॥"
(प्र. F) भूमि के पेड़ाल उद्यान में संगमक देव के छह माह तक बीस प्रकार के घोर भयंकर मरणांत उपसर्ग ... !
( गीत : M: Contd.)
"होश भुला एक ग्वाला भले ही कानों में कीले मार चले । आतमभाव को जाननेवाला, देह की ना परवाह करे ।" (शेरगर्जन "देव और दानव, पशु और मानव, प्राणी उसे कई डँस रहे । हँसते मुख से महावीर फिर भी, मंगल सब का चाह रहे ॥”
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Forest Animals Effect)
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
(प्र. F) ऐसे घोर उपसर्गों और कष्टों-परिषहों से भरी लम्बी साधनायात्रा बाह्यांतर निर्ग्रन्थ पुरुषार्थी महावीर ने आत्मभावना में लीन होकर छोटी कर दी और आनंद से भर दी.... (Vibro Sound) (प्र. M) हाँ, भीतर में परिस्थिति-प्रभावविहीन, प्रतिक्रिया-प्रतिभावविहीन, आनंदभरा सजग शुद्धात्मध्यान : बाहर कैसे-कैसे कितकितने घोर उपसर्ग-परिषह..... ! कैसे कैसे प्रतिमा-ध्यानमय कायोत्सर्ग ..... ! कैसे कैसे मौन-ध्यान की सुदीर्घ धारा के अभिग्रह-महाभिग्रह..... !!! (प्र. F) उनके घोरातिघोर तप भी इस गहन आत्मध्यान से सहज ही निकले .... उनके विहारमहाविहार भी इसी धुन में चले..... उनके स्वल्प आहार भी अभिग्रहों की पवित्रता-शुचिता में पले और ढ़ले .....। (प्र. M) सर्वत्र एक परम समता, प्रशमरसपूर्ण प्राणपराग की प्रसन्न प्रफुल्लितता, तीनों समितियों की अद्भुत सजगता और सर्व जीवों के प्रति बहती निष्कारण करूणाशीलता !! (प्र..F) आहार का जय, निद्रा का जय, आसन का जय । साधनामार्ग के ये तीन प्राथमिक जय .... । इन बाहरी जों के साथ भीतरी जप : अभय, अद्वेष, अखेद भी । (प्र. M) प्रभु ने साड़े बारह वर्ष की इस सुदीर्घ साधनायात्रा में - आहार भी कितना लिया ?
- निद्रा भी कितनी ली? - आसन भी कितने दृढ़ लगाये रखे ? कायोत्सर्गमय खड़गासन-ज्ञानमय पर्यंकासन .
देहभिन्नत्वभरा, केवलज्ञान-प्रदाता गोदोहिकासन..... ! (प्र. F) इन सभी के बीच उनकी भीतरी लौ लगी रही - (गान-M) "इस तन का दीवा करं, बाती मेलुं जीव;
लोही सींचुं तैल ज्युं, कब मुख देखें पीव ? (- कबीर) "मनसा प्याला, प्रेम मसाला, ब्रह्म-अग्नि परजाली; तन-भाठी अवटाई पिये कस (तब) जागे अनुभव लाली ।"
(- आनंदघनजी) (प्र. F) तन-भाठी को जलाकर के, मन के दीप को प्रज्वलित करके, यह आत्म-ध्यान की अगन प्रभु ने जलाई थी, एक अखंड लौ अंतस् में लगाई थी ...... (प्र. M) तब कहीं प्रकट हो रही थी उनकी आत्मानुभूति की लाली, 'अभय-अद्वेष-अखेद' भरी खुशहाली, गहरे अंतस्-सागर से निकले इन आनंद-रत्नों और मोतियों की थाली ! (गान : F : CH: M) "शुद्ध बुद्ध चैतन्यधन, स्वयं ज्योति सुखधाम ।। और कहें क्या, कितना, ध्यान लगाय निजठाम ॥"
(- आ.सि. 117)
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• महावीर दर्शन महावीर कथा
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"શુધ્ધ બુધ્ધ રીતન્યવન, સ્વયં જ્યોતિ સુખધામ; બીજું કહીએ કેટલું, કર વિચાર તો પામ."
( आ.सि. 117)
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(प्र. F) ( परंतु ) निजधाम का उनका यह ध्यान कोई 'खाला का खेल' नहीं था। बातों का, शुष्कज्ञान भरा, कोरा अध्यात्म नहीं था 1
(प्र. M) वह तो संतुलन और संमिलन था निश्चय और व्यवहार का, उपादान और निमित्त का। इसी स्वस्थ, समन्वित भाव से वे सदा, सर्वत्र, सभी सानुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच से, अपने इस स्वयंज्योति आनंदधाम- निजधाम का ध्यान लगाते हुए, उसी ध्यानदशा में रहते हुए निहारते रहे, देखते रहे, दिखलाते रहे, केवल एक आत्मा को, सहजात्मा को शुद्धात्मा को, सिद्धात्मा को सभी साधनाओं के बीच, सभी विचरणों के बीच बस एक ही लौ, एक ही रटना, एक ही संज्ञान : आत्मा... आत्मा... आत्मा... !
"
:
( गान : S CH) "मैं तो आत्मा हूँ, जड़ शरीर नहीं ।" (सहजानंदधनजी भक्ति कर्तव्य ) "हुं तो आत्मा धुं, ४७ शरीर नथी. "
"हम ऐसे देश के / आतम-देश के वासी हैं, जहाँ राग नहीं और द्वेष नहीं, जहाँ मोह नहीं और शोक नहीं, जहाँ भेद नहीं और खेद नहीं;
जहाँ भरम नहीं और चाह नहीं, हम ऐसे देश के वासी हैं/ आतम देश के वासी हैं।
इस देश के सिर्फ प्रवासी हैं, हम सिद्धदेश के/ महाविदेह के / सिध्धालय के / सिद्धलोक के/ सिध्धशिला के वासी हैं, हम आतमदेश के वासी हैं- सिध्धात्म देश के बासी हैं । (संकलित ) (प्र. F) जिस आत्मप्रदेश में आत्मलोक के जिस ऊर्ध्वाकाश में अप्रमत्तरुप से प्रभु विहार संचार कर रहे थे, जिस आत्मा को पहचानने और संपूर्ण समग्रता में पाने के लिये वे चले थे, वह अब करीब करीब उनकी पहुँच के भीतर ही था - - (Dhin Instrumental)
"
(सूत्र-प्रतिघोष : गान) "सच्चिदानंदी शुद्धस्वरूपी, अविनाशी मैं आत्मा हूँ (२)"
"हम मगन भये निजध्यानमें" ।
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(प्र. M) यह वही भाव था, वही ध्यान का सागर था, जिसकी अतल गहराईयों से वे कष्ट सहन के, क्षमा के एवं निरपेक्ष स्नेहकरुणा के अनमोल मोती ले आये थे
(Sound of Sea Weaves Effect) (प्र. F) अन्यथा ऐसे घोर कष्ट, परिषह और उपसर्ग वे कैसे सह सकते थे ? (प्र. M) ऐसी कठोर, सुदीर्घ साधना वे आनंदमय कैसे बना सकते थे ?
(प्र. F) वे तो डूबे रहे, खोये रहे बिना किसी विकल्प के, बिना विभाव के अपने विशुद्ध आत्मध्यान में
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• महावीर दर्शन
(प्र. M) खड़े हुए भी, बैठे हुए भी, चलते हुए भी सर्वत्र सजग, सर्वत्र अंतरस्थित, सर्वत्र उपयोगवन्त जयं विडे, जयं चरे... !'
(प्र. F) विशुद्ध आत्मध्यान घोरातिघोर उपसर्गों के बीच आत्मध्यान जिसमें
( गान M) "एक परमाणुमात्र की मिले न स्पर्शना, पूर्ण कलंकरहित-अडोल स्वरूप रे; शुध्य निरंजन चैतन्यमूर्ति अनन्यमय अगुरु-लघु, अमूर्त, सहजदरूप है।" (श्रीमद् राजचंद्रजी; अपूर्व अवसर )
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महावीर कथा
(प्र. M) ऐसे उपसर्गो परिषहों तपस्याओं के साथ साथ चले और पले अक्षय धारावत् ध्यान को मानव इतिहास ने एक ही साथ अक्षय धारावत् और इतनी विशाल संख्या में न कहीं देखा है, न सुना, न दर्शाया ! बेजोड़, अद्वितीय, अनुपमेय, अभूतपूर्व !!
(प्र. F) बाहुबली, गजसुकुमाल महामुनि, स्कंधक मुनि, आदि आदि के ऐसे घोर उपसर्गमय ध्यान भी थोड़े ही या अल्पावधि के ही ! ( थे)
(प्र. M) दिल दहल उठता है, रोंगटे खड़े हो जाते हैं, अभूतपूर्व अतिवीर महावीर के उन घोरातिघोर उपसर्गों, निरंतर ध्यान और अखंड तपस्याओं ('वीरस्य घोरं तपो...') का स्मरण भी करते हुए ! (प्र. F) शूलपाणि यक्ष के रातभर के उत्पातों-उपसर्गों और प्रभु के प्रभात काल के १० स्वप्न । ( + पूर्वकथा )
(प्र. M) चंडकौशिक के दंशोपसर्ग के बीच "बुज्झ, बुज्झ !" के माधुर्य द्वारा जन्मांतरों की जातिस्मृति का उसे प्रदान ।
(प्र. F) चौराक के पहरेदारों, राद्देश के अनार्यलोगों, कृपय के ग्रामजनों के प्राणांत कष्ट... । (प्र.M) इढ़भूमि के (उपसर्ग) पेढ़ाल उद्यान में संगमक देव के, मेरु को भी तोड़नेवाला खरवीत, कालचक्र, पवनवातचक्र एवं सिंह आदि के २० बीस उत्कृष्ट मरणांत उपसर्ग... !!
(प्र. F) लाटदेश में कठिन कर्मों को तोड़नेवाले हिलना के उत्पात ।
(प्र. M) शालशीर्ष ग्राम में ध्यानमध्ये त्रिपृष्ठभव की अपमानित राणी कठपूतना व्यंतरी के लोकावधिज्ञान,प्रकटकर्ता शीतजल उपसर्गो । ग्वाले द्वारा छह माह भीतर रहे कानों में ठोके गये - शरकट वृक्ष के कीलों ।
(प्र. F) सुभटों द्वारा ध्यानस्थ प्रभुचरणों में अग्निज्वालाएँ और कृतघ्नी गोशालक द्वारा छोड़ी गई तेजोलेश्याएँ.... |
(प्र. M ) अच्छन्दक जैसे पाखंडी ज्योतिषियों के पर्दाफाश......
(प्र. F) पुष्य जैसे निमित्तज्ञ सामुद्रिकों की प्रभुमहिमार्थ इन्द्र द्वारा सहायताएँ....
(प्र. M) ऐसे तो कितकितने हज़ारों-हज़ार प्रसंगों, उपसर्गों, परिषहों, तपश्चर्याओं को सहे : सभी मनपूर्वक, समता - ध्यान पूर्वक, स्वयं गुप्त, अप्रकट रहकर, कतार के कतार, चले लगातार, जैसे वर्षा अनराधार !
अकेले, असंग, बिना अन्य आधार; केवल एक स्वात्म-शक्ति (का) पारावार !!
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(प्र. F) प्रभु वीर ने अपने हुए अनेकानेक उपसर्गों में
(प्र. F) अन्य किसी की सहाय, अपेक्षा या आधार की आवश्यकता ही कहाँ थी उस स्व-निर्भर, सत् पुरुषार्थी, पुरुष-सिंह, पूर्ण पुरुष पुराण- पुरुष को ?... कि जिसकी स्वयं की आत्मशक्ति ही थी अव्याबाध, असीम, अनंत..... !
(मंत्र-सूत्र घोष M प्रतिध्वनि) "अहो अनंत वीर्यमयम् आत्मा !” (३)
(प्र. M) आत्मा की इस अनंत शक्ति पर ही तो स्थिर होनेवाला था, चिरविकसित और प्रसरित होनेवाला था महावीर दर्शन' निग्रंथ आर्हत् दर्शन, उनके 'सर्वोदय तीर्थ' का महाजिनशासन ! इसी अतुल तीर्थ-प्रवर्तन, धर्मचक्र प्रवर्तन और उसके प्रवर्तक तारक 'तीर्थंकर' के ही तो स्तुति-स्तवन- गुणगान गानेवाले थे सुर-असुर, इन्द्र महेन्द्र, बुधजन-अबुधजन, निखिल सृष्टि के समस्त प्राणीगण राग, द्वेष, अज्ञानादि के गाढ़ बंधनों से छुड़वाने :
I
(गान पंक्ति) “भुवनेश्वर हे मोचन करो, बंधन सब मोचन करो हे !" ( रवीन्द्रनाथ) (वीरस्तुति गान F) "वीरः सर्व सुरासुरेन्द्र महितो, वीरं बुधा संश्रिता: । (BGM Instl.) वीरेणाभिहतः स्वकर्मनिचयो, वीराय नित्यं नमः ॥
वीरात् तीर्थमिदम् प्रवृत्तमतुलं वीरस्य घोरं तपो ।
वीरे श्री - धृति - कीर्ति-कान्ति निचयः, श्री वीर भद्रं दिश । " अनंत अपरिमित आत्म-सामर्थ्य एवं दृढ़ आत्मसंकल्प के बल से सहे
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• महावीर दर्शन महावीर कथा
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(प्र. M) मध्यम कक्षा का था ग्वाले द्वारा कानों में शरकट वृक्ष के कीले ठोकने और वैद्य द्वारा छमाह बाद निकाले जाते समय प्रभु के द्वारा भी असह्य वेदना की भयंकर चीख निकल पड़ने का उपसर्ग....
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(प्र. F) और उत्कृष्ट थे संगमक देव के कालचक्र - वातचक्रादि बीस घोर मरणांत उपसर्ग एवं प्रभु के पीछे पीछे घूमनेवाले गोशालक द्वारा छोड़ी गई भीषण तेजोलेश्या = अग्नि की प्रचंड, प्राणघातक, असीम, उद्दंड, प्राणघातक धारा का उपसर्ग ! (Instrumental Horror Effects) (प्र. M) परंतु " अंतहीन नोहेतो अंधकार, कठिन आघाते भेंगेछे बंध द्वार !" ( रवीन्द्रनाथ ) अंधकार कहाँ होता है अंतहीन ?... विभाव अनादि का कहाँ टिकनेवाला था ज्ञानप्रकाश के सन्मुख ?... अब थोड़ी ही देर थी इस कैवल्य-प्रकाश के प्राकट्य की कोटि कोटि सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान ऐसे शुध्धात्मा के कोटि वर्षों के विभाव- स्वप्न-भेदन की क्षमता की
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(55)
गाथागान (Divine Instrumental Music)
"कोटि वर्ष का स्वप्न भी, जाग्रत होत हिं नाश ।
त्योंहि विभाव अनादि को, ज्ञानोदय में ग्रास ॥" (सप्तभाषी आत्मसिद्धि 114)
કોટિ વર્ષનું સ્વપ્ન પણ, જાગૃત થતાં શમાય;
તેમ વિભાવ અનાદિનો, જ્ઞાન થતાં દૂર થાય.” (આત્મસિધ્ધિ ૧૧૪ શ્રીમદ્ રાજચંદ્રજી)
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
(प्र. F) और फिर..... (प्र. M) ..... फिर ध्यान-लीन महातपस्वी महावीर विहार करते करते कौशाम्बी नगरी में पधारे, जहाँ प्रतीक्षा कर रही थी - (प्र. F) चन्दनबाला..... ! (प्र. M) बड़ा अद्भुत है इतिहास इस राजकुमारी का, वैशाली नगरी में बेची गई एक नारी का। ग्रंथ गवाह हैं - पांच माह पच्चीस दिन के उपवासी भविष्यदर्शी महावीर का यह अभिग्रह था कि (- प्रतिध्वनि सूत्रघोष Echo) "जब तक एक उच्च कुल की फिर भी कर्मवश दासी बनी हुई, मुंडित केश, बंदी शरीर और रोती हुई आंखोंवाली अबला हाथों में उडद लिये भिक्षा देने द्वार पर प्रतीक्षा करती न मिले, तब तक वे किसीसे भिक्षा नहीं लेंगे।" (-कल्पसूत्र) (प्र. F) वही नारी थी - (गीत F) (राग-मिया मल्हार : मिश्र : बसन्त, त्रिताल)"चन्दनबाला ! तेरा अद्भुत है इतिहास (गीत M) इस इतिहास के पृष्ठ पृष्ठ पर (F) प्रगटे दिव्य प्रकाश... ॥ चन्दनबाला..... । (गीत F) एक दिन थी तू राजकुमारी, राजमहल में बसनेवाली
दासी होकर बिक गई पर, बनती ना उदास... ॥ तेरा... चन्दनबाला ... । दुःखों का कोई पार न आया, फिर भी अड़िग रही तुज काया । कर्म (काल) कसौटी करे भयंकर, फिर भी भई न निराश ॥ तेरा... चन्दनबाला।
वीर प्रभु को दे दी भिक्षा, प्रभु ने भावी में दे दी दीक्षा । . .. (M) श्रध्दा के दीपक से दिल में (2) (F) कर दिया दिव्य-प्रकाश ॥ तेरा... चन्दनबाला। (प्र. F) चन्दनबाला जैसी अनेक महिलाओं को उबारते एवं गोशालक जैसे उपसर्गकर्ताओं को क्षमा करते और अनेक उपसर्गों की कतारों को पार करते करते ध्यानलीन तपस्वी महावीर अपने
आत्मध्यानमय निग्रंथ जीवन के साड़े बारह वर्षों के पश्चात्... एक दिन... आ पहुँचे अपनी उद्देश्यसिद्धि, अंतिम आत्मसिध्धि के द्वार पर (Soft Divine Music : Vibro +) (प्र. M) (Deeply Eestic rendering) वह ढ़लती दोपहरी... वह ज़म्भक ग्राम , ..
(Pictorial Words) वह ऋजुवालुका नदी... वह खेत की श्यामल धरती..... और वही शाल का वृक्ष..... ! (Celestial Soft Instrumentel Music) (प्र. F) इसी... बस इसी शालवृक्ष के नीचे, गोदोहिका आसन में, 'पृथक्त्व वितर्क विचार' के पराकोटी के शुक्ल ध्यान में लीन निर्ग्रन्थ महावीर...! (गान पंक्ति BGM) "भिन्न हूँ, सर्व से, सर्व प्रकार से... भिन्न हूँ।" (सहजानंदघनजी)
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(प्र. F Contd.) अनुभूति हुई :
आत्मध्यान के इस सागर की गहराई में उन्हें यह स्पष्ट पारदर्शी
....
=
...
( अनुभूति घोष M/F) "परे, शब्दों के कोलाहल से, ... विचारों की हलचल से परे ठहरे हैं एक शान्त, स्निग्ध नीरवता में अनेक प्रहर...... मनचाहा एकांत है जहाँ मैं हूँ। मैं स्वयं का, स्वात्मा । जिस का अस्तित्त्व... । और साथ है एक प्रशांत महासागर | स्वात्म शुद्ध स्वरूप का महासागर की अतल गहराई में है चन्द्रवत् निर्मल, सूर्यवत् व्याप्त, सागरवत् गंभीर 'चंदेसु निम्मलयरा, आइच्येसु अहियं पयासवरा, सागरवरगंभीरा' ऐसा स्वयं में ही, केवल मैं चैतन्यरूपी ज्ञाता-दृष्टा मैं = आत्मा... ! शुद्ध बुद्ध चैतन्यधन आत्मा.... !!"
( धून गान (F) ...सभा समूहधून) (M)
• महावीर दर्शन
( धूनगान Repeat)
(सभा समूहगान )
महावीर कथा •
( स्व. कु. पारुल टोलिया 'पारुल प्रसून' लोगस्स महासूत्र ) "शुद्ध बुध्ध चैतन्यधन स्वयं ज्योति सुखधाम (2) " "केवल निजस्वभाव का अखंड बरते ज्ञान,
कहीए केवलज्ञान वह देह होते निर्वाण ।" (2)
(F/CH) सच्चिदानंदी शुद्धस्वरूपी अविनाशी मैं आत्मा हूँ। (2)
"आतमभावना भावतां जीवल लहे केवलज्ञान रे" (5)
(अनुभूति घोष M Echo) "मैं इन सभी संगों से सर्वथा भिन्न, केवल चैतन्य स्वरूपी ज्ञातादृष्टा आत्मा हूँ: विशुद्ध, स्वयंपूर्ण, असंग .... मेरी यह परिशुद्ध आत्मा ही परमात्मा का स्वरूप है । ... अप्पा सो परमप्पा ..." ( Instl Music)
" एगोsहं, सर्वथा भिन्नोऽहं... शुद्धात्मस्वरूपोडहं
i"
"सच्चिदानंदी शुद्धस्वरूपी, अविनाशी मैं आत्मा हूँ ।" (2) "आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे..." (5) (Instrumental Music)
केवलज्ञान कल्याणक
(प्र.F) ... और अपनी निःसंग आत्मा का यह ध्यान सिद्ध होते ही प्रस्फुटित होती है उनके वदन पर प्रफुल्ल प्रसन्नता, शरीर पर कंचन सी कान्ति, सांसों में सुरभि, वाणी में माधुर्य (माधुरी) वातावरण में प्रशान्ति, आकाश में दिव्यसंगीत सुरावली... और आत्मा में उस सर्वदर्शी, परिपूर्ण, पंचमज्ञानकेवलज्ञान और केवलदर्शन की ज्योति (Divine Instl Music)
(57)
(M सूत्रघोष ) ॥ जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ ॥
(प्र. M) निग्रंथ महावीर अब रागद्वेषादि की सब ग्रंथियों को सर्वथा भेदकर बन चुके हैं, आत्मश, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग, अरिहंत तीर्थंकर भगवंत उनके दर्शन और देशनाउपदेश श्रवणार्थ -
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• महावीर दर्शन
(प्र. F) देवों के विमान उड़े, मानवों के समूह उमड़े, पशुओं के झुंड (वृंद) दौड़े, दिव्य समवसरण खड़े हुए, अष्ट प्रतिहारी सेवा में चले, दिव्य-ध्वनि एवं देवदुन्दुभि के नाद गूँज उठे और (Soormandal)
(प्र. M: BGM Soft Celestial Instrumental) परंतु ये भी अभी थे सर्वज्ञ केवली जिन प्रभु के बाह्य वैभवातिशय... जब कि उनकी अंतस्-संपदा के अनंत अनंत ज्ञान दर्शनमय आत्मवैभव तो अभी भिन्न थे, शब्दातीत अनुभवज्ञानमय एवं अनहद-अनाहई गानमय थे ! (BEM)
( गाथागान BGM Dhoon
महावीर कथा
"जो जिन देह-प्रमाण अरु, समोसरणादि सिद्धि । जिन स्वरूप माने वही, बहलावे निज बुद्धि ॥"
ब में !!
" दिन हे प्रभाश ने, समवसरणाहि सिधि; વર્ણન સમજે જિનનું, રોકી રહે નિજ બુદ્ધિ.”
(- श्रीमह् रामचंद्र : आत्मसिध्धि 25 ) (प्र. F) प्रभु के उस अनंत आंतर्-वैभव - आत्मवैभव का स्वरूप-वर्णन तो केवल अनुभवगम्य ही ! (BGM : ह छतां लेनी हशा पर्ते हेहातीत.....)
(सप्तभाषी आ.सि. 25)
(प्र. M) बाह्यांतर निर्ग्रथ दशा में, देह होते हुए भी देहातीत दशा में जो गम्य होता था उसमें बाहरभीतर की सारी ही ग्रंथियों को सर्व संग सम्बन्धों को छेद-भेदकर, पंच प्रमादों और विषय कषायों को सर्वथा झकझोर कर शून्यशेष बनाकर, मौन - महामौन - त्रिविध मौन धारण कर, मन से तो पूर्ण मुक्त होकर प्रभु छद्यस्थ और केवलज्ञान प्राप्त दोनों अवस्थाओं में सतत, सर्वत्र आत्मदशा में ही विचरते रहे ! चरण और विचरण पृथ्वी पर होते हुए भी और देह के भीतर अंतर्पथ आकाश भी उनका दिव्य विहार तो ऊर्ध्वगगन में ! बाह्यपथ धरती पर, हुए
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(प्र. F) बाह्य और आंतरिक, निश्चय और व्यवहार, इस जगत की समस्याएँ एवं परलोक के गंतव्य - किसी की भी उपेक्षा नहीं, दोनों का समन्वय 'जहाँ जहाँ जो जो योग्य है' की विवेकदृष्टि में। (परंतु ) स्वयं का लक्ष्य तो सदा ऊर्ध्व और ऊर्ध्व उस सिद्धलोक की ओर, कि जो उनका अंतिम गंतव्य है, जहाँ उन्हें अंत में पहुँचना है ! सतत वही संचरण, वही स्मरण, वही दर्शन-आत्मप्रदेश का, शुद्धात्मप्रदेश का सिद्धात्म प्रदेश का !!... उस दिव्यलोक में बहती आनंदगंगा का यहीं बस रहे अपने आत्मप्रदेश में अवतरण :
"
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
(आनंदगान) "आज मेरे आत्मप्रदेश में आनंदगंगा उमड़ी रे,
ज्ञानज्योति प्रगटी सर्वांग में, दृष्टि-अंधता बिनसी रे ...आज. अद्भुत आत्म-स्वरूप निहारा, देह-देवल से भिन्न रे, आत्मस्वरूप में जगत निहारा, छहों द्रव्य भिन्न भिन्न रे... आज. लोकान्त में प्रभु सिद्ध निहारे, सुख संपत्ति भंडार रे,
सिद्ध समान स्वरूप ही मेरा, निज संपत्ति अधिकार रे... आज. (- आत्मज्ञा माताजी घनदेवीजी: श्रीमद् राज. आश्रम, हम्पी, "भक्ति झरणां".5) (प्र. M) ऐसे बाह्यांतर मौनमय आनंदलोक की आनंदगंगा में निमग्न और अनंत अनंत आत्मवैभव प्राप्त प्रभु का वह अनुभवगम्य-अवक्तव्य मौनदर्शन, आज केवलज्ञान के पश्चात् जब मुखरित होने लगा तब? (प्र. F) (- तब) साड़े बारह वर्षों के गहन-गंभीर ध्यानमय प्रभु का वह महामौन, 'मौन' में से ( ॐकार ) 'नाद' में और 'नाद' में से 'शब्द' में रूपांतरित-परिवर्तित होने लगा... और अनुगुजित हो उठी शब्दों में ॐकार की दिव्यध्वनि - (गंभीर श्लोक गान : M) "गंभीर तार रव पूरित दिग्विभागः
"दिव्यध्वनि र्भवति ते विशदार्थ सर्व, भाषा-स्वभाव-परिणाम गुणैः प्रयोज्य"..
__ (- श्री भक्तामर स्तोत्र) (प्र. F) 12V2 साड़े बारह वर्ष के ध्यान-मौन के अन्त में प्रस्तुत, अपनी इस अभूतपूर्व, जग"उपकारक, अमर देशना में प्रभुने प्रकाशित किया - (सूत्रघोष : प्रतिध्वनि : M) "जीव क्या ? अजीव क्या ? आत्मा क्या, कर्म और कर्मफल क्या ? लोक क्या-अलोक क्या? पुण्य-पाप क्या ? सत्य-असत्य क्या ? आश्रवसंवर क्या ? बंधनिर्जरा-मोक्ष क्या ?"
"एगो मे सासओ अप्पा, नाण सण संजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा ॥"
"- ज्ञानदर्शन युक्त शाश्वत आत्मा ही एक मेरी है, बाकी तो सारे बाह्यभाव हैं, जो परिस्थितिजनित हैं।" (प्र. F) सर्वज्ञ प्रभु की अविरति देवों के समक्ष दी गई यह प्रथम देशना रही निष्फल, जब कि दूसरी थी महासफल । (प्र. M) मध्यम पावा की उस दूसरी देशना में पधारे थे कुछ पंडित - अनुभूति शून्य, शूष्कज्ञान भरे, मान-मद में मस्त प्रकांड पंडित - 'पोथे पंडित' । आये थे वे सर्वज्ञ प्रभु महावीर को वादविवाद में परास्त करने ।
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
(प्र. F) सर्व के मनोज्ञाता, संपूर्ण समग्र ज्ञानी, प्रेम करुणा से भरे प्रभुने अपनी मधुर वाणी बहाई... प्रथम गणधारक इन्द्रभूति गौतम कुछ पूछे उसके पूर्व ही उसके मनःप्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभुने कह दिया कि - (प्र. M) "प्रिय गौतम ! सुखपूर्वक तो आये हो न?... तुम्हारे मन में आत्मा के अस्तित्व के विषय में संदेह है न ?... परन्तु तुम तुम्हारे वेद-पदों का ही सही, सम्यक् अर्थ क्यों नहीं सोचते हो ?...उन पदों का सच्चा अर्थ यह होता है -- (प्र. F) इस प्रकार कहकर, अद्भुत, अभूतपूर्व समाधान देकर, उसके वेदशास्त्रों का ही मंडन करते हुए प्रभु महावीर ने ऐसा सर्वस्वीकार्य, सम्यक्, सरल अर्थबोध दिया कि समस्त समवसरण सभा स्तब्ध और गौतम चकित, गर्वविगलित, नतमस्तक, परास्त और मंत्रमुग्ध ! (प्र. M) संदेहरहित बने हुए गौतम ने तुरन्त ही अपने 500 शिष्यों के साथ प्रभु से दीक्षा ग्रहण कर ली । वे उनके प्रथम शिष्य, प्रथम गणधर बने । (प्र. F) प्रभु के आत्म-तत्त्वदर्शन का महाघोष-गूंज उठा समवसरण में, समस्त विश्व में, सृष्टि के कणकण में - (सूत्रघोष F) "आत्माऽस्ति, स नित्योऽस्ति, कर्ताऽस्ति निजकर्मणः । (अनुष्टुप छंद) भोक्तास्ति च पुनर्मुक्तिर्मुक्त्युपायः सुदर्शनम् ॥ (घोषगान F) "आत्मा है, वह नित्य है, है कर्ता निजकर्म, है भोक्ता अरु मोक्ष है, मोक्षोपाय सुधर्म ॥"
(सप्तभाषी आत्मसिद्धि : 43) (घोषगान CH)"आमा छ, a 'नित्य छे', 'छे saf Hrsh; 'छे मोडता' जी मोक्ष छे; 'मोक्ष पाय सुधर्म'.
(- श्रीमद् राजचंद्र आत्मसिद्धिशास्त्र143) (प्र. F) फिर संदेह थे अन्य गणधरों के : (M) "आत्मा है तो उसका स्वरूप क्या है ?... उसे देखा क्यों नहीं जा सकता ?" इत्यादि (प्र. F) प्रभु के अनेक नयों-दृष्टिकोणों-प्रमाणों से समाधान थे - (सूत्रघोष M) "जो दृष्टा है दृष्टि का, जो जानत है रूप "
अबाध्य अनुभव जो रहे वह है आत्मस्वरूप ।" (सप्तभाषी)
(" या छ हटिनो, neो छ ३५.....") (प्र. F) कुछ ऐसे समाधान उपनिषदों ने भी दिये थे और अनेकभाषी लोककवियों ने भी सरल वाणी मे व्यक्त किये थे। (प्र. M) प्रभु की सर्वस्पर्शी समग्रता और सर्वज्ञता ने विशदता से इस प्रकार आत्मा की सिद्धि करते हुए उसके नित्यत्व, कर्ता-कर्मत्व, भोक्तृत्व, मोक्षत्व एवं मोक्षोपाय सद्धर्मत्व - इन
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
षट्पदों के द्वारा कर्म, पुण्य-पाप, आश्रव-संवर-बंध-निर्जरा-मोक्षादि नव (या सात) तत्त्वों को यथातथ्य समझा दिया शेष सारे पंडितों को । उन अन्य १० गणधरों को लेकर सभी 4400 शिष्य बने । (प्र. F) इस विशद चर्चा के परिणाम स्वरूप गणधरवाद' बना,जो गुजराती आत्मसिद्धिशास्त्र' में पूर्णतः प्रतिबिंबित हुआ - 2500 वर्षों के बाद भी वर्तमान काल में । (प्र. M) प्रभु महावीर ने इन आत्मज्ञ गणधरों को 'गण' की संज्ञा और अनुज्ञा दी, त्रिपदी प्रदान की "उपनेइ वा, धुवेइ वा, विगमेइ वा" की । (उत्पत्ति-स्थिति-लय की)। उससे द्वादशांगी बनी, प्रभु-उपदिष्ट तत्त्वधारा, ग्रंथधारा-14 पूर्वो की महाज्ञान धारा बही, नव नव रूपों में दिव्य, विश्व-प्रक्षालक विशाल सरिताएँ बह निकली... (प्र. F) ... फिर तो ऐसी अनेक सरिताओं-अनेक विषयों की अनेक देशनाओं-के द्वारा, अनेकों को तारनेवाला उनका धर्म-तीर्थ-धर्मचक्र-प्रवर्तन भारत की धरती पर अखंड चलता रहा... बहता रहा... (प्र. M) आचार में करुणा, अहिंसा, संयम, तप; दर्शन और चिन्तन में स्याद्वाद-अनेकांतवाद एवं धर्म में सर्वविरति-देशविरति या पंच महाव्रत-बारह अणुव्रत से युक्त, निश्चय-व्यवहार के संतुलनवाले, सम्यग् दर्शन ज्ञान चारित्र के इस तत्कालीन और सर्वकालीन प्रवर्तनक्रम में चतुर्विध संघ बना। (प्र. F) उस समय के संघ में साधुओं में प्रधान थे गणधर गौतम स्वामी, साध्वियों में आर्या चन्दनबाला, श्रावकों में आनंदादि (१० उपासक) एवं श्राविकाओं में रेवती, सुलसा इत्यादि विदुषियाँ ! (प्र. M) उस युग की, देश और काल की समस्याएँ थीं - - (प्र. F) ब्राह्मण-शूद्र, जाति-पाँति (प्र. M) ऊंच-नीच और पीडित नारी (प्र. M) दम्भ, पाखंड, हिंसा, पशुबलि (प्र. M) अंधाग्रह और झूठ की जाली (प्र. F) थोथे क्रियाकांड और जड़भक्ति... (प्र. M) इन समस्याओं के प्राधान्यों को सुस्पष्ट करें तो 1. ब्राह्मण प्राधान्य (प्र. F) 2. पुरुष प्राधान्य : नारी अन्याय (प्र.M)3. कुल-संपत्ति-परिग्रह प्राधान्य-अमीर-गरीब वैषम्य (प्र.M) 4. अनुभूति शून्य शास्त्र', वेदादि ग्रंथ प्रामाण्य और प्राधान्य (प्र. M) 5. जनजनभाषा के स्थान पर संस्कृत भाषा का प्राधान्य । (प्र. F) 6. अंतर्ध्यान मार्ग के स्थान पर जड़ 'बाह्य-क्रिया' प्राधान्य । (प्र. M) 7. अहिंसा, करुणा के स्थान पर यज्ञ-पशुबलि एवं हिंसा-प्राधान्य । संक्षेप में (आत्मदृष्टि रहित) बाहरी आचारों एवं पुद्गल पदार्थों में आत्मबुद्धि । (प्र. F) भगवान महावीर के पास इन सभी समस्याओं का समाधान था, सभी रोगों का उपचार था, सभी के प्रश्नों का प्रत्युत्तर था।
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा •
(प्र. M) महा-परिग्रह के सामने दान-संविभाग-अपरिग्रह-समता-समानता । (प्र. F) एकांत आग्रहदृष्टि के सामने अनाग्रही, सत्यखोजी, समन्वयी स्याद्वाद-अनेकांतवाद । (प्र. M) हिंसा के सामने अहिंसा, परम करुणा ... (प्र. F) विषय-कषाय-प्रमाद के सामने संयम, तप-मौनादि अंतर + बाह्य तप । (प्र. M) शूष्क शास्त्रज्ञान-तोतापाठ के सामने विवेक प्रज्ञानुचिंतन युक्त अनुभवज्ञान, प्रयोगपूर्ण आत्मज्ञान, शुद्धात्म ध्यान । (प्र. F) जड़ भौतिकवाद - 'देह'वाद के सामने 'आत्म'वाद । (प्र. M) इस प्रकार आत्मज्ञान, अहिंसा, अनेकांत, अपरिग्रह, आत्मौपम्य 'सर्वात्म में समदृष्टि' - ये प्रभु के आत्मवादी जीवनदर्शन के साररूप पांच अंग बने-उनके सर्वस्पर्शी महा-धर्मचक्र प्रवर्तनशासन के। (प्र. F) इन पांच प्रमुख अंगों की प्रभु ने लाक्षणिक, सांकेतिक सूत्र परिभाषाएँ दी : (प्र. M). 1. आत्मज्ञानार्थ : "जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ"।
2. अहिंसार्थ : "अहिंसा परमो धर्मः" । (प्र. M) 3. अनेकांतार्थ : "ण य सो एगस्स पिय, त्ति सेसयाणं पिया होइ।"
(समणसुत्तं : 67) (प्र. F) 4. अपरिग्रहार्थ : "न वि अस्ति मम किञ्चित्, एक परमाणु मित्तंपि ।"
सर्व-समानतार्थ सर्वस्व (शासन प्रति) समर्पित । .. (प्र. M) 5. आत्मौपम्यार्थ : "सर्वात्म में समदृष्टि दें, इस वचन को हृदय में लिखें।" (गान M/F) "गौतम जैसे पंडितों को सत्यपंथ बतलाया ।
श्रेणिक जैसे नृपतियों को धर्म का मर्म सुनाया ॥ रोहिणी जैसे चोर कुटिलों को मुक्ति का मार्ग दिखाया,
मेघकुमार समान युवान को जीवन मंत्र सिखाया ॥" (Instrumental Music) (काव्य पाठ M) प्राणीदया, पशुरक्षा और सजग कृषि का कैसा (जीवन) रहस्य दर्शाया;
आनंदादि दस श्रावकों से महा-गोकुलों को बसवाया; ("उवसग्गदसाओ") नारी का तो उध्धार बड़ा कर, सम-स्थान दिलवाया; साध्वीसंस्था सुदृढ़ बनाकर, वर्तमान तक चलवाया ! परिग्रह-घोर का फंदा छुड़ाकर, 'मूर्छा' उसे बतलाया; दान-धर्म को स्वयं फैलाकर, समाज-साम्य फैलाया । दीन स्वमानी पुणिया जैसे श्रावकों को ऊंचा बिठाया; सेठों-राजाओं से भी उनका स्थान श्रेष्ठ समझाया/दरशाया ॥
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका (संघ) विधान अद्भुत बनवाया; महाक्रान्ति का शंख फूंककर सोये जग को जगाया (जगा उठवाया)
(Instrumental BGM) (गान) उस वक्त 'धर्म' के नाम पर सचमुच पाखंड़ियों का राज था ।
यज्ञों की बलियों मे बेचारा निर्दोष पशूधन हो रहा ताराज़ था ॥ (प्र. F) इस महाहिंसा की घोर नींद में डूबी दुनिया का प्रभु जिनेश्वर ने झकझोर कर जगाया - तब और अभी भी ! (Instrumental Interlude) (गान : F/CH) "वीर जिनेश्वर ! सोई दुनिया जगाई तूने ... ! ज्ञान की मधुर सुरीली बंसी बजाई तूने ... !
वीर जिनेश्वर ! सोई दुनिया - पशुओं पर छुरियाँ चलतीं, रक्त की नदियां बहतीं। ..... करुणा के सागर ! करुणागंगा बहाई तूने ... !
वीर जिनेश्वर ! सोई दुनिया - पंथों का झूठा झगड़ा, जनता का मानस बिगड़ा मानव की अटल प्रतिष्ठा, जग में जताई तूने ... !
वीर जिनेश्वर ! सोई दुनिया - पापों का पंक धोना, "नर से नारायण" होना। 'अमर' को अमर पद की राह दिखाई तूने... !
वीर जिनेश्वर ! सोई दुनिया -
(- उपाध्याय अमरमुनि, वीरायतन) (प्र. M) सारे युग पर, सचराचर निखिल विश्व पर छा जानेवाला; समय की एवं सनातन अनागत काल की समग्र समस्याओं को जड़मूल से सुलझानेवाला, सभी का उदय मंगल चाहनेवाला वीर जिनेश्वर का यह कैसा विशाल, विराट, व्यक्तित्व... ! कैसा अनुपम सर्वोदय तीर्थ - अतुल तीर्थ - प्रवर्तक... !! कैसा अभूतपूर्व महाक्रान्तिकार युगदृष्टा-युगस्रष्टा कर्मवीर, क्षमावीर, प्रयोग-पुरुषार्थ वीर... !!! (प्र. F) क्या हम कल्पना भी कर सकते हैं आज के हमारे इस त्रस्त-ध्वस्त-हिंसाग्रस्त आतंकित जग में (युग में) जीते हुए, बैठे हुए कि जहाँ - (काव्यपाठ M) "धधक रही चहुँ ओर हिंसा-ज्वालाएँ,
धडाधड़ खुल रहीं वधशालाएँ-मधुशालाएँ; और अब भी बिक रहीं हैं -
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा •
(Inti. Effect) यहाँ पर (कई) सीता-द्रौपदी चन्दनबालाएँ...।
(- युगराज जैन : 'युगप्रवाह') (प्र. F) गिरे हुए मनुष्य को उठाकर, पापी-पतित-दलित का हाथ थामकर, उसमें ही निहित यह 'नर से नारायण' बनने की जन्मसिद्ध गुप्त क्षमता-सम्भावना बतलाई प्रभु ने - (कवित)
"तुम अनंत शक्तिमान हो, आत्म-सामर्थ्य (के) निधान हो।"
शुद्ध-बुद्ध-चैतन्यधन, साक्षात् ज्ञान (हो), सिद्धसमान हो ।" (गान M) "सर्व जीव हैं सिध्ध सम, जो समझे, बन जायँ । (BGM गुजराती)
सद्गुरु-आज्ञा, जिनदशा, निमित्त कारण माँय ॥ (श्रीमद् राज. आ.सि. सप्तभाषी) (घोष) "तुम ही हो शुध्ध-सिद्ध चिद्रूप,
तुम ही हो मोक्षस्वरूप...।"
("तुं छो भोक्ष स्प३५, तुं छो भोक्षस्प३५... तुं छो.)" (प्र. F) पुकार पुकार कर, दिव्य ध्वनि के ढोल बजाकर, डंके की चोट पर प्रभु ने आत्मज्ञान का यह उद्घोष किया और अपने को क्षुद्र, निर्बल माननेवाले मानव को बुलन्दी से कहा कि - (प्र. M घोष) "हाँ कह दे ,अनुभव कर ले कि - तुम देह मात्र नहीं,
आत्मा हो, ब्रह्म हो, सकल ब्रह्म हो, शुध्ध-बुध्ध-सिध्ध मोक्षस्वरूप हो ! (कवि से) "दीन-हीन देह-दीन नहीं, विषय-कषाय-प्रमाद में तल्लीन नहीं ।
इस क्षुद्र-क्षणिक-क्षणभंगुर देह-यंत्र में लीन नहीं; देह और देह-दीनता ही तो भ्रम, तुम हो आत्मा सकल ब्रह्म;... देह-भिन्न चैतन्य स्वरूपी, मोक्ष स्वरूप परब्रह्म, मोक्ष स्वरूप परब्रह्म ।" ।
(Instrumental Interlude) (प्र. F) आत्मबोध, आत्मसाक्षात्कार करा देनेवाले ऐसे झकझोरते उद्बोधनों के द्वारा प्रभु एक ओर से अंतर्जगत में और जीवन की समस्त समस्याओं के निराकरण-पथदर्शनों के द्वारा दूसरी ओर से बहिर्जगत में, मानव को जगा रहे थे..... (प्र. M) अंतर्जगत और बाह्यजगत् दोनों पर सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सिध्धलोक-गामी प्रभु का प्रभाव था ..... ज्ञान-दर्शन के अक्षुण्ण (अक्षय) भंडार का आंतर्वैभव और चौंतीस अतिशयोंयुक्त अचिंत्य माहात्म्य और सामर्थ्ययुक्त प्रभु का बाह्यवैभव... ! दोनों से प्रवृत्त-प्रवर्तित उनके धर्मचक्र प्रवर्तन के अंतर्जगत् में थे - दान, शील, तप, भाव के चतुर्विध धर्मरूप जिन में बारह भावनासोलह कारण भावना आदि के द्वारा सर्वाधिक महत्ता थी भाव की ! भाव ही धन अपना, भाव, शुध्दभाव (शुभाशुभ भाव परे का शुध्धात्मभाव) ही तो था सर्वस्व !! "आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे !" "पाँच समवाय कारणों" में भी इस आत्मभावयुक्त सत्पुरुषार्थ की महत्ता !!!
(64)
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(प्र. F) तो बाह्यजगत् में थे करुणा-प्राणीदया-प्रसूत, हिंसा महाहिंसा- पशुबलि रोधक प्रवर्तन और साथ में ही दस दस हजार के विराट गोकुलों में गोपालन कृषि आदि द्वारा आनंद आदि दसदस श्रावक उपासकों का गृहवास दान अपरिग्रहयुक्त मूर्खरहित गृहवास ! (BGM गान पंक्ति )
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********....
• महावीर दर्शन
(प्र. M) जीवन के बाह्यजगत् अंतर्जगत् दोनों पक्षों के संतुलन से भरा भगवंत का एक अनन्य, अनुपमेय, अभूतपूर्व जीवन-दर्शन था ....
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(प्र. F) इस जीवनदर्शन महावीर दर्शन के सारे ही बाह्यांतर स्वरूपों में सदा सर्वदा शीर्षस्थान पर बना रहा था उनका, अंतस् स्रोत का आत्मदर्शन ! .... देह-वादी नहीं, आत्मवादी दर्शन !! प्रत्येक मनुष्य को वे, उसके भीतर छिपा इस अपार अनंत सामर्थ्यवान स्वयं शक्ति के सागर का दर्शन करा रहे थे
महावीर कथा
(प्र. M) 'दर्शन' ही नहीं, उसकी अनुभूति की अतल गहराई में अंतर्यात्रा करा देते थे .... क्या भरा पड़ा था वहाँ पर ?
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(प्र. F) वहाँ प्रवेश करने पर एक सामान्य गोताखोर मानव भी एक दूबकीभर लगाते ही अनुभव कर उठता था कि
"
( गान M)
"सीप किनारे चमकीले हैं, चुनकर क्यों पछताना ? यदि तू चाहे मोती लेने, (तो) गहरे पानी आना..... ।"
आनंद, सुख, शांति के मोती ..... ।
(प्र. M) मोती तो गहरे पानी में हैं ( घोष ) " हे जीव ! भ्रमित मत हो । सुख और शांति भीतर में हैं, बाहर खोजने से नहीं मिलेंगे, भीतर का सुख स्वयं की समश्रेणि में है... उसे पाने के लिये बाहरी पदार्थों का आश्चर्य भूल जा और समझेणि के गहरे पानी में (प्रवेश कर) आ जा, जहाँ
( श्रीमद्जी : वचनामृत )
(65)
(संकलित )
(प्र. F) जहाँ नहीं है
(प्र. M) "शब्दों का हाहाकार (और), विचारों का विस्तार और संकल्प-विकल्पमय मन का संसार !..... आखिर इन सभी के पार तो है विराजित प्रशांत महासागर, अपने भीतर लहराता हुआ !"
(प्र. F) " भीगी भीगी शांत नीरवता में काल जब खो जाता है और अपना प्रिय ऐसा एकांत जब अस्तित्व धारण कर लेता है, तब अपने इस अंतरस्थ प्रशांत महासगार तक पहुँचा जाता है और पाया जा सकता है उसकी अतल गहराई में डूब जाने का आनन्द एवं ( वहाँ स्थित ) मूल्यवान मोतियों का खज़ाना...... !"
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• महावीर दर्शन महावीर कथा
(प्र. M) "अंततोगत्वा वह सागरवत् गम्भीर ही तो है अपना सिद्ध, बुद्ध, शुद्ध स्वरूप... ! उसकी सिद्धि पाने के लिये ही तो हम प्रार्थना करते रहे हैं सदियों से, युग युगान्तरों और जन्म-जन्मांतरों से उस आलोकमय सिद्धलोक के सिद्ध भगवंतों से
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(प्र. F) "चंदेसु निम्मलयरा, आइच्येसु अहियं पयासयरा, सागरवरगंभीरा, सिद्धा! सिद्धि मम दिसंतु... ।"
(वृंदगान धोष M) “आत्मसिद्धि मम दिसंतु - शुद्धात्मसिध्धि मम दिसंतु शुद्धात्मसिध्धि मम दिसंतु सहजात्मसिद्धिं मम दिसंतु ।" (स्व. कु. पारुल टोलिया, प्रियवादिनी, पारुल प्रसून : 18 ) (प्र. F) सर्वज्ञ, सिद्धलोकगामी प्रभु महावीर का ऐसा सभी को आत्मसिद्धि दिला देनेवाला, झकझोर कर प्रशांत अंतस्- सागर में प्रवेश करा देनेवाला आत्मबोध होते हुए भी और उनकी सर्वज्ञात विश्वमहिमा एवं 34 चौतीस अतिशयों युक्त अधित्य सामर्थ्य तथा माहात्म्य होते हुए भी
(Instmtl. BGM)
( गीत M: लोकधुन ) "एक दिन पूर्व का शिष्य गोशालक, प्रभु को देता गाली । "मैं सर्वज्ञ महावीर जैसा' कह के चली चाल काली ॥ तेजोलेश्या छोड़ के उसने चेताई आग की ज्वाला; वीर के बदले खुद ही उस में जलने लगा गोशाला ॥"
(Soormandal)
(प्र. F) सर्व को सुख-शांति शांता आत्मबोध प्रदाता भगवंत के सर्वमंगलमय सर्वोदय तीर्थ का, उनके आत्मदर्शन-प्रधान महाशासन प्रवर्त्तन-' धर्मचक्र प्रवर्त्तन का आधार क्या था ? आधार था
(प्र. M) आधार था साढ़े बारह वर्षों के पूर्वोक्त सुदीर्घ, गहन, बाह्यांतर आत्मध्यानमय मौनके पश्चात् प्रस्फुटित उनकी ॐकार दिव्यनाद दिव्यध्वनिमयी, अनंत अनंत नयों, दृष्टिकोणों से भरी हुई अमृतरूपिणी देशनावाणी
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(प्र. F) गंगा के निर्मल नीर जैसी उनकी वाणी में अपूर्व संमोहन था, जादु था, अमृत था, अनंत सत्य का भावबोध था
(66)
( गीत : राग केदार : ( Instmtl. BGM)
"अनंत अनंत भाव भेद से भरी जो भली, अनंत अनंत नय निक्षेप से व्याख्यानित है। सकल जगत हित कारिणी हारिणी मोह, तारिणी भवाब्धि मोक्षचारिणी प्रमाणित है ।" (. अनंत) श्रीमद् राजचंद्रजी ) Treate
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा •
(Instrumental Music Change.....) (2 गीत : राग मिश्र) "गंगा के निर्मल नीर-सरिखी, पावनकारी वाणी (बानी);
घोर हिंसा की जलती आग में, छिटके शीतल पानी । उनके चरन में आकर झुके, कुछ राजा कुछ रानी; शेर और बकरी वैर भुलाकर, संग करे मिजबानी ॥"
(Soormandal) (प्र. F) कहते हैं - तीर्थंकर भगवान महावीर की यह धीर-गंभीर, मधुर-मंगल, मृदुल-मंजुल सरिता-सी वाक्-सरस्वती राग मालकौंस में बहती थी...
(Instmtl. BGM : Raga Malkauns, Teen Taal) (वृंदगीत M/F/CH) "मधुर राग मालकौंस में बहती तीर्थंकर की वाणी । मानव को नवजीवन देती तीर्थंकर की वाणी ।
॥ दिव्यध्वनि ॐ कारी ॥ धीर गम्भीर सुरों में सोहे, सुरवर मुनिवर सब कोई मोहे । शब्द शब्द पर होती प्रकट जहाँ, स्नेह गंग कल्याणी ॥
॥ मधुर राग. ॥ वादी षड़ज, मध्यम संवादी, बात नहीं कोई विषम विवादी । सादी भाषा, शब्द सरलता; सबने समझी-मानी ॥
॥ मधुर राग. ॥ 'सा ग म ध नि सां-नि सां' की सरगम चाहे जग का मंगल हरदम । पत्थर के दिल को पी पलमें; करती पानी... पानी... !॥
॥ मधुर राग. ॥" काव्य-गान "तेरी वाणी जगकल्याणी, प्रखर सत्य की धारा । खंड खंड हो गई दम्भ की, अंधाग्रह की कारा ॥" (- अमरमुनि)
(BGM जाग ! तुझ को दूर जाना) (प्र. F) इस अनंत महिमामयी जगकल्याणी वाग्-गंगा को केवलज्ञान के बाद तीस वर्ष तक अनेक रूपों में, अनेक स्थानों में निरंतर बहाते हुए और चतुर्विध धर्म को सुदृढ़ बनाते हुए अरिहंत भगवंत महावीर ने अपने ज्ञान से जब - (गीतपंक्ति M) (BGM : Raga Bhairavi Tunes)
"जान लिया कि जीवनयात्रा होने आई अब पूरी । विहार का कर अंत प्रभुजी, आय बसे पावापुरी ... ॥"
(67)
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( गान F)
(प्र. M) प्रभु ने अपने जीवनान्त के पूर्व जीवन-संध्या में जो महत्त्व की बात अपनी अंतिम धर्मदेशना में कही थी, वह थी पुण्यकर्म फल- पापकर्म फल के पचपन 55 + पचपन 55 अध्ययनों के बाद विनय की, विनय - माहात्म्य (महिमा ) की ।
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• महावीर दर्शन
(प्र.F) 36 छत्तीस उत्तराध्ययनों में (यह) विनय-महिमा विनय का राजमार्ग दर्शानेवाले उनके ये 'विनय-सूत्र' थे :
( गान M )
"ऐसो मारग विनय को, कह्यो जिनेन्द्र अराग । मूल मार्ग के मर्म को समझे कोई सुभाग्य ॥ " ( सहजानंदधनजी सप्तभाषी आत्मसिद्धि 20 )
"
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:
એવો માર્ગ વિનય તો, ભાળ્યો શ્રી વીતશગ મૂળ હેતુ એ માર્ગનો, સમજે કોઈ સુભાગ્ય.”
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महावीर कथा
(प्र. M) ( श्लोक - गान)
(F)
(BGM) जाग ! तुझ को दूर जाना )
(प्र. M) "जो गुरु की ( माता-पिता की भी ) आज्ञा का पालन नहीं करता, जो उनके पास उनकी देखरेख में (सद्गुरु-निश्रा में ) नहीं रहता, जो उनसे शत्रुता का बर्ताव रखता है, जो विवेकशून्य है उसे अविनीत कहते हैं।"
(M)
:
(महावीर वाणी पं. बेचरदासजी-73) (प्र. F). "जो शिष्य अभिमान, क्रोध, मद या प्रमाद के कारण गुरु (मांबाप) की विनय भक्ति नहीं करता, वह इससे अभूति अर्थात् पतन को प्राप्त होता है जैसे बाँस का फल बाँस के ही नाश के लिये होता है, उसी प्रकार अविनीत का ज्ञानबल भी उसी का सर्वनाश करता है।"
( श्रीमद् राजचंद्रजी आ. सि. 20)
"
(महावीरवाणी : 78) (प्र. M) "अविनीत को विपत्ति प्राप्त होती है, और विनीत को संपत्ति- ये दोनों बातें जिसने जान ली हैं, वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है।" ( महावीर वाणी : 79)
"विद्या विनयेन शोभते... ।"
(68)
"स्वच्छंद मत- आग्रह त्यजे ( नशे ), बरते (विलसे) सद्गुरु लक्ष । कह्यो याहि सम्यकत्व है, कारण लखी प्रत्यक्ष ॥ ( सप्तभाषी - 17 ) “સ્વચ્છંદ મત આગ્રહ તજી, વર્તે સદ્ગુરુ લક્ષ;
समति तेने लाजियुं, अरण गयी प्रत्यक्ष.” (आत्मसिध्धि 17 ) " रोके जीव स्वच्छन्द तब, पावे अवश्य मोक्ष ।
या विधि पाया मोक्ष सब, कहें जिनेन्द्र अदोष ॥" ( सप्तभाषी - 15 )
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा •
(F)
“રોકે જીવ સ્વચ્છન્દ તો, પામે અવશ્ય મોક્ષ;
पाभ्या टोम मत छे, माण्युं दिन निप." (आत्मशिधि 15) (प्र. M) स्वच्छन्द का फंद छोड़कर और 'सद्गुरु लक्ष' अपनाकर समकित और मोक्ष पाया जा सकता है ऐसा शिष्य के लिये आवश्यक बतलाकर भगवंत मानो डंके की चोट पर उसे आदेश देते
(घोष M) "गुरुणाम् आज्ञा अविचारणीया" (प्र. F) सद्गुरु-आज्ञा को शिरोधार्य करने में विचार न करें और 'तहत्ति' कहकर व्यवहार करें। (प्र. M) तो दूसरी ओर, सुविनीत शिष्य के ऐसे विनय का अनुचित लाभ उठाने वाले असद्गुरुओं के कथित गुरुओं-कुगुरुओं की भाँति) लालबत्ती बतलाते हुए प्रभु झाड़ते-फटकारतेझकझोरते हैं - (श्लोक-गान M) "असद्गुरु इस विनय को, लाभ लहे जो बिन्दु । महामोहनीय-कर्मसों, चल्यो (डूबत) जाय भव-सिन्धु ॥"
(सप्तभाषी 21) (F) "सगुरु से विनयनो, लाल हे sis;
मामालनीय भथी, जूडे AARTwieी." (मानसिक 21) (प्र. F) कितनी महिमा शिष्य के विनय की और सद्गुरु की सजगता की ! (प्र. M) अन्यथा जैसा कि देखा जाता है, "गुरुलोभी शिष्य लालची, दोनों डूबे साथ ।" - इसीलिये तो परवर्ती, वर्तमान काल के सुचिंतकों को छेद उड़ाना पड़ा है सारे 'गुरुडम' (GURUDOM) का, गुरुड़म की बोलबाला का !! (पर यह दूसरी ओति है, सम्भावना हैं।) प्र. F) दूरदर्शी, त्रिकालज्ञानी भगवान महावीर को सर्व काल में आनेवाली ऐसी सारी ही सम्भावनाओं का ज्ञान था, स्पष्ट पूर्वदर्शन था, दोनों बाजुओं के भयस्थानों का अनुमानआकलन था। (प्र. M) इसीलिये तो उन्होंने अपने साड़े-बारह वर्ष के छद्मस्थ और तीस वर्ष के धर्मतीर्थप्रवर्तनसमय को मिलाकर बयालीस वर्ष के कलिखंड के अंतिम पड़ाव पर आकर, विश्व-विदा से पूर्व विनय-महिमा की यह महती देशना-वाग्धारा बहाई।। (प्र. F) प्रभु का जीवन-समापन निकट देखकर और उनके जन्मनक्षत्र में दो हज़ार वर्ष तक रहनेवाले 'भस्मराशि' नामक ग्रह को संक्रान्त होता देखकर, प्रभु के परम भक्त शक्रेन्द्र अत्यंत चिंतित हुए। (प्र. M) शक्रेन्द्र ने सोचा कि, "यदि यह क्षुद्र भस्मराशि ग्रह इतने दीर्धकाल तक प्रभु के जन्मनक्षत्र में रहेगा तो उतना समय उनके साधु-साध्वी संघ के पूजा-सत्कार उत्तरोत्तर वर्धमान नहीं होंगे..... उनके महान शासनतीर्थ का विकास-विस्तार नहीं होगा।"
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
(प्र. F) ऐसी महाचिंता को लेकर उन्होंने प्रभु के महानिर्वाण के समय के पूर्व आकर प्रभु से प्रार्थना की - (घोष M) "हे सर्वशक्तिमान प्रभु ! एक क्षण आपका आयुष्य बढ़ा दीजिये, जिससे कि यह क्षुद्र भस्मराशि ग्रह आपकी उपस्थिति में ही आपके जन्मनक्षत्र में प्रवेश करे तो आपकी दृष्टि पड़ने से आपके शासन को कोई बाधा न हो।" (प्र. F) परंतु प्रभु ने कहा - (घोष M) "हे इन्द्र ! ऐसा आजतक न तो कभी भी हुआ है और न भविष्य में होगा कि तीर्थंकर भी अपने आयुष्य को एक क्षणमात्र भी बढ़ा सके !... तीर्थ को बाधा अवश्य होनेवाली है और वह होगी। परंतु 86 छियासी वर्ष के कल्कि राजा का तेरे द्वारा निग्रह होने पर और दो हजार वर्ष के पश्चात् भस्मराशिग्रह मेरे जन्मनक्षत्र में से निवृत्त होने पर एवं तेरे राज्य पर आसीन कल्किपुत्र धर्मदत्त के राज्य से लेकर साधु-साध्वी के पूजा-सत्कार उत्तरोत्तर वर्धमान होंगे।" (- युगप्रधान श्री भद्रबाहु स्वामी : 'कल्पसूत्र') (सूत्रघोष : प्र. F) ग्रंथ साक्षी देकर कहते हैं - (सूत्रघोष : प्र. M) "जिनमत रूपी शेर को कोई भी क्षतिग्रस्त नहीं कर सकेगा, परंतु अपने आंतरिक भेदों के कारण ही वह व्रणग्रस्त हो जायेगा !" (प्र. F) शेर ! प्रभु महावीर का लाक्षणिक 'लांछन' और सर्वोच्च निर्भय एकाकी पुरुषार्थ-सत्तामहत्ता का प्रतीक !! बिना किसी की सहाय के सदा एकाकी विचरण करनेवाला !!! उसे कौन परास्त कर सकता है? (प्र. M) ... पर वह भी, जिनमत रूपी-वीर प्रतीक ऐसा 'शेर' भी, आखिर व्रणग्रस्त हुआ... जिनशासन के भीतरी भेदों से ही वह महाप्राण-प्राणी घायल हुआ... ! प्रभु के स्वयं के आर्ष-वचन सिद्ध हुए... !! इस काल में वेदना-व्यथित वीरशिष्य श्रीमद् राजचन्द्रजी के वचनामृतों ने उनकी साक्षात् प्रतीति दिलवाती साक्षी/गवाही दी.....
(संदर्भ : परिशिष्ट वचनामृत') (वेदना-गान : भैरवी) "आपस के भेदों ने देखो,
शासन को बरबाद किया (CH) जिनशासन को (2)
जिनका था मोहताज़ जमाना, उसे मोहताज़ किया ... । आपस में हम रहे झगडते, गैरों ने आ राज किया; जिनका था मोहताज़ ज़माना, आज उसे ताराज़ किया ।"
(सौजन्य कवि रमेश गुप्ता : प्रतिकाव्य) (सूत्रघोष वचनामृत M) "आश्चर्यकारक भेद उत्पन्न हो गये है xxx इस काल में ज्ञान क्षीण हुआ है; और ज्ञान क्षीण होने से मतभेद अनेक बढ़े हैं xxx मतभेदादि कारण से श्रुत-श्रवणादि नहीं फलते ।" (श्रीमद् राजचन्द्र वचनामृत : 27) -
H
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा •
(प्र. F) और दो दो हजार वर्ष तक महान वीतराग-शासन को भी व्रणग्रस्त-भेदविभक्त रखनेवाली, प्रभु वीर की विदा की हृदयविदारक बेला निकट आ गई... (प्र. M) समीप आ गये परमप्रभु के परिनिर्वाण के परमप्रस्थान के पल.....
(Super Pathetic Rendering & Tragic Most Bhairavi Inst.) (प्र. F) सुधर्मा स्वामी के प्रश्नोत्तर पूर्ण वह अलौकिक समवसरण... ।
तत्पश्चात् धर्मपाल राजा का वह प्रशांत सभाभवन... ॥ (प्र. M) राजाओं, श्रावकों, शिष्यों समक्ष
वह अभूतपूर्व अखंड, अंतिम देशना..... और अमावास्या की वह अंतिम रात्रि...!!! (Silent Most Pathetic Music)
(Serene, pathetic, deeply snetimental) (प्र. F) सोलह प्रहर... अड़तालीस घंटे... दो दिन-रात अखंड बहने के बाद, अचानक -
(Echoes : Instmetl. Musical Pathog) (4. M) (Pathetic-Most Rendering in Base Voice : Echoes BGM Instl. Contd.) ..... पूर्ण होने लगी प्रभु की वह अखंड बहती वाग् धारा.... पर्यंकासन में स्थिर हुई उनकी स्थूल औदारिक काया..... मन-वचन-शरीर के व्यापारों का उत्सर्ग किया गया.... अवशिष्ट अघाती कर्मों का सम्पूर्ण क्षय किया गया..... सभी क्रियाओं का उच्छेद किया गया और - - ब्रह्मरंध्र सहस्रदलकमल एवं सभी अंगों और (Deep Base Voice) संगों को भेद कर प्राणों को विशुद्ध सिध्धात्मा की निष्क्रीय, निष्कम्प, निस्पन्द, नीरव और मेरु-सी अडोल अवस्था तक पहुंचाया गया..... (Pathetic Base) (प्र. F) ..... जब प्रभु सर्वांग अनुभूति कर रहे - (घोष M) "अहमिक्को खलु सुध्धो, निम्मल नाण-दसण संजुओ, .. न घि अस्थि मम किंचई, एक परमाणु मित्तंपि"।
(समयसार) "एक परमाणु मात्र की मिले न स्पर्शता ।।
__ पूर्ण कलंकरहित अडोल स्वरूप रे । शुद्ध निरंजन चैतन्यमूर्ति अनन्यमय, अ-गुरु-लघु, अमूर्त सहजपद रूप रे ॥"
(- श्रीमद् राजचन्द्र : अपूर्व अवसर) (प्र. F) और जब कि अंत में एक शब्दहीन घोष (अनाहत-अनहद घोष) उठा :
+
S
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(घोष M) (Clear, Echo )
(Tragic BGM)
( गीतः भेरवी: F + M) (1)
( गीत F + M) (2) (भैरवी)
"यः सिध्ध परमात्मा स एवाऽहम् ।" "जो सिध्ध परमात्मा है, वही मैं हूँ ।" और पलभर में तो प्रभु परमशांति,
परमपद परिनिर्वाण को प्राप्त हो गये.... !
• महावीर दर्शन महावीर कथा •
( गीत: भैरवी M ) ( Super Imposed Voice Echoes High Pitch)
"साँस की अंतिम डोर तक रखी, अखंड देशना जारी । आसो अमावस रात की बेला, निर्वाण की गति धारी ।"
( गीत: धूनः घोष: Instrumentals ) "परमगुरु निर्ग्रन्थ सर्वज्ञ देव" (5)
(प्र. M : Extremely Emotional Voice) हवा में शंख, वन में दुन्दुभि और जन-मन में रुदन.... के अनगिनत स्वर उठे..... प्राणज्योति अनंत ज्योति में विलीन हो गई..... । ज्योत में ज्योत मिल गई - 'भिन्ना प्रत्येगात्मना' * का अपना स्वतंत्र अस्तित्व सम्हालती हुई !! प्रभु अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत वीर्य, अनंत सुखमय, अजर अमर सिद्धलोक के ऐसे आलोक में पहुंच गये कि जहां से कभी लौटना नहीं होता, कभी जन्म-मृत्यु के चक्र में आना नहीं पड़ता ।"
.....
( तत्वार्थ सूत्र ) (BGM Bhairavi Song) " या कारण मिथ्यात्व दियो तज, क्युं कर देह धरेंगे ?
अब हम अमर भये न मरेंगे ।"
( अंतिम गानः भैरवी : F + M) (3)
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(Tragic Bhairavi Swar)
"इस अंधेरी अमा-निशा को बुझ गई महान ज्योति; धरती पर तब छाया अंधेरा अंखियाँ रह गई रोतीं ॥" गूंज उठे तब देव दुन्दुभि, लहराई दैवी वाणी:
"आनन्द मनाओ ! जग के लोगों ! प्रभु ने मुक्ति पाई (1) (3)
आसो अमावस की श्यामल रात को,
दीप- दीपावली की मधरात को, थी,
प्रभु वीर ने विदाई ले ली
उस दिन मेरे भग्न हृदय ने यह एक धूनं जगाई / लगाई थी
"
(म. आनंदघनजी )
"हे वीर ! प्रभु वीर !" (CH)
Ir
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अखंड अनुपम देशना वदते, 'विनय-महिमा' वर्णन करते; वाणी अनराधार बहाई थी, उस दिन मेरे भग्न हृदय ने, यह एक धून लगाई थी "हे वीर प्रभु वीर !" (CH) ग्रह - भस्मासुर प्रविष्ट होते, जन्म-नक्षत्र संक्रमित बनते; इन्द्र (शकेन्द्र ने दौड़ लगाई थी, गहरी चिंता जताई थी; शासन-काज क्षण आयु बढ़ाने, प्रभु से अरज गुज़ारी थी :"अंधकार उल्लू गरजेंगे, हिंसक पाखंडी बरसेंगे / नाचेंगे अबल पशु - दीनजन तरसेंगे, साधु-साध्वी अपूज बिचरेंगे; शासन - दर्शन - संघ सब जगमें, घोर उपेक्षित बन जायेंगे । "प्रभु! रुक जाओ !! रुक जाओ ( घोरातिघोर )" क्षणवार - प्रभु ने लेश नहीं अवधारी थी, उस दिन मेरे मग्न हृदय ने यह एक धून लगाई थी : "हे वीर ! प्रभु वीर !" (CH) सिद्ध-पद-गामी तो तनिक न रुकते, 'निरुपक्रम' आयु शेष न रहते; महा निधार से रंच न हटते, भावी अनहोनी उच्चारी थीऔर निर्वाण की गति धारी थी, उस दिन मेरे भग्न- हृदयने यह एक धून लगाई थी : हे वीर ! प्रभु वीर !" (CH)
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• महावीर दर्शन
=
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(Insti. Change)
(प्र. F) प्रभु महावीर के प्रधान शिष्य, अनंत लब्धि निधान गणधर गौतम स्वामी ! प्रभु के प्रति उनकी सर्वथा समर्पित, अनन्य, “प्रशस्त भक्ति..... !! प्रभु से वे सदा ही ढेरों ३६०० जितने ! जिज्ञासा प्रश्नपृच्छा करते, जिससे "गौतम प्रश्नावली" एवं " गौतम-पृच्छा" आदि ग्रंथ बाद में प्रकाश में आये सूत्रादि के साथ ।
(73)
महावीर कथा
(प्र. M) ऐसे प्रभु - संनिष्ठ गौतम स्वामी का प्रभु के प्रति आत्यंतिक राग उन्हें केवलज्ञान प्राप्त होने नहीं देता था- उनके स्वयं के पचास हज़ार शिष्यगणों और अष्टापद-गमन पश्चात् साथ लाये
गये तापसों तक को भी यह अंतिम कैवल्य प्राप्ति होने पर भी !... उनको तो एक ही लगन थी
प्रभु भक्ति की वीर-अनुरक्ति की और उनकी अमृतवाणी की प्राप्ति की !
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(प्र. F) इन वचनों के द्वारा भी कभी "इणमेवं खणं वियाणिया" - वर्तमान के ये क्षण सुवर्ण-क्षण हैं, अभी, इसी क्षण ही साध लो (अपनी ) आत्मा को" तो कभी "समयं गोयम् ! मा पमाय" पलभर का भी प्रमाद मत कर, हे गौतम ।" कहकर उनकी प्रमाद की नींद उड़ाते थे प्रभु !
की अश्रवेदना इन्द्र की,
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(प्र. M) ऐसे प्रभु वीर की ही प्रशस्त, अनन्य भक्ति में लीन गौतमस्वामी को केवलज्ञान न हो ? उसकी चिंता प्रभु को थी। उनकी चिंता के कारणरूप, अपने प्रति जो स्नेह-राग था उसे तोड़ने प्रभुने उन्हें अंतिम समय अपने पास नहीं रहने दिया। देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने भेजा और.....
गौतम विलाप
( घोषगान : M: करुणतम विलाप-स्वरः गम्भीर ध्वनि )
• महावीर दर्शन महावीर कथा
(प्र. F) . और इस प्रकार प्रभु द्वारा प्रतिबोध कार्य को प्रेषित गणधर गौतम स्वामी प्रभु की मुक्ति
***
के बाद जब लौटे, तब यह (निर्वाण-वार्ता) जानकर मोह राग वश टूट पड़े और फूट फूट कर रो उठे
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"आप प्रभु निर्वाण गये, रहत नहीं अब धीर हिया ।
मुझे अकेला छोड़ गये, अब कौन जलाये आत्म- दिया ?"
(प्र. M. गौतम - वेदना वाणी : विरह व्यथा Deeply Pathetic rendering with Instl. BGM) "हे प्रभु ! अब मैं किन के पावन चरणों में बैठकर प्रश्न पूडुंगा ?... किन्हें 'प्रभु भन्ते, भगवंत ।' कहकर पुकारूंगा ?... हे प्रभु ! अब कौन मुझे 'गौतम ! ऐसी आत्मीय वत्सल वाणी में बुलायेगा ? हा... हा... हा... हा... वीर प्रभु! आपने यह क्या किया ?... अहो ! आपके निर्वाण के समय आपने मुझे दूर किया ?... क्या मैं हठ करके बालवत् यदि आपके साथ आता तो आपकी वह मुक्ति क्या संकीर्ण बन जाती ?... या वहाँ जाने में मैं आपके . लिये बोझरूप बनता ?... आपने क्या सोचकर मुझे यहाँ से दूर किया... ? हे प्रभु !... वीर.... वीर... वीर... !!" ( श्री कल्पसूत्र )
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(प्र. F) • इस प्रकार महाविलाप करते हुए प्रशस्त रागी / प्रशस्त भक्त गौतम के मुख में केवल 'वीर' शब्द रह गया और वे सम्यक् विचार में स्वात्मचिंतन में चढ़े....
(पार्श्वगान M) "शुद्ध बुद्ध चैतन्यधन, स्वयंज्योति सुखधाम ।
बीजुं कहीए केटलुं ? कर विचार तो पाम ॥" ( आ. सि. 117) ( और कहें क्या, कितना ? ध्यान लगाय निजठाम । )
(प्र. F) और रोते हुए विरही गौतम को (तब ) यकायक स्मृति में सुनाई दी भगवन्त की वह अप्रमत्त
आज्ञा :
(74)
=
(सूत्रघोष M) "समयं गोयम् मा पमायए ।" " पलभर का भी प्रमाद मत कर, हे गौतम । " (Echoes) "हे जीव ! प्रमाद छोड़कर जागृत हो जा, जागृत हो जा।)" ( श्रीमद्जी ) (प्र. F) इसे सुन, आर्त्तध्यान त्याग कर गहन आत्मचिंतन के द्वारा वे आत्म-श्रेणि पर चढ़ने लगे :
"
(Instrumental celestial Music)
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महावीर दर्शन - महावीर कथा .
(घोषसह प्र. M) "हं... हं... जाना जाना... कि सचमुच, वीतराग निःस्नेह होते हैं... मेरा ही अपराध कि मैंने श्रुत का उपयोग नहीं रखा... धिक् मेरे इस एकपक्षीय स्नेहराग को... बस हुआ उस स्नेह से ।... "मैं अकेला हूँ, मुरा कुछ भी नहीं, कोई भी नहीं... एगोऽहम् नत्थि मे कोई, एगोऽहम्'... (प्र. F) - इस 'एकत्व भावना'-युक्त गहन आत्मचिंतन-श्रेणि के चरम पर चढ़ते चढ़ते छूटे वे प्रमादपूर्ण आर्तध्यान से, पहुँचे आत्मभावना द्वारा आत्मध्यान-शुद्धात्म ध्यान के शैल शिखर पर में और तुरन्त ही हुआ उन्हें केवलज्ञान ! (Soormandal) (वृंदगीतः धून)"भाते आतमभावना, जीव पावे केवलज्ञान रे" (2) (आ.सि.)
"मातमभावना मापता 4G डेवलज्ञान ३..." (2) .
"वीर प्रभु का हुआ निर्वाण, गौतम स्वामी केवलज्ञान ।" (2) (प्र. M) वीरप्रभु की विद्यमानता में नहीं, निर्वाण के बाद हुआ उन्हें केवलज्ञान ! वास्तव में विषाद, राग और अहंकार हानिकर्ता हैं, परंतु गौतमस्वामी की तो यह कैसी आश्चर्यभरी भवितव्यता कि उन्हें अहंकार धर्मबोध-प्राप्ति का हेतु बना, राग (प्रशस्त राग) गुरुभक्ति का कारण बना
और विषाद केवलज्ञान का निमित्त ! (सूत्रगान) "अहंकारोऽपि बोधाय, रागोऽपि गुरुभक्तये ।
विषादः केवलायाभूत्, चित्रं श्री गौतमप्रभोः ।" (आत्मचिंतन पार्श्वधून) "आतमभावना मातi 4 d उपलशान रे..." . "शुध्ध जुध्ध येतन्यधन, स्वयं ज्योति सुमधाम; .
બીજું કહિએ કેટલું, કર વિચાર તો પામ !” (New Rising Music)
(Instrumental BGM) (प्र. M) आज पच्चीस सौ वर्षों के पश्चात् (विहगवृंद ध्वनि : प्रभात संकेत Effect)...
आती है उस चिर महान आत्मा की - भगवान् महावीर की यह आवाज़: (सूत्रघोष) "मित्ती मे सव्व भूएसु, वैरं मज्झं न केणई ।"
(सब से मेरी मैत्री वैर नही किसी से) (गान) "शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः ।
दोषाः प्रयान्तु नाशम्, सर्वत्र सुखी भवन्तु लोकाः ॥" (सर्व विश्वजीव सर्वत्र सर्वथा सुखी हों, अन्यों के उपकारक हों, सर्वजीवों के दोष नष्ट हों।) (प्र. M) आज गूंजती है - तीर्थंकर भगवंत महावीर के मंगलदर्शन की वह "वर्धमान भारती", वह जग-कल्याणीवाणी ('जिनभारती')
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(75)
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
(प्र. F) जम्बू-नन्दीश्वर के द्वीपों से, भरत-महाविदेह के क्षेत्रों से और मेरु-अष्टापद-हिमालय की चोटियों से - (सूत्रघोष M) "जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ ।" (वाद्य Instl. Effect) "जो एक को, आत्मा को जान लेता है, वह सब को, सारे जगत को जान लेता है।"
- वीरस्तुति - (श्लोकगानः भैरवी) "वीरः सर्व सुरासुरेन्द्र महितो, वीरं बुधा संश्रिताः ।
वीरेणाभिहतः स्वकर्मनिचयो, वीराय नित्यं नमः ॥ वीरात् तीर्थमिदं प्रवृत्त-मतुलं, वीरस्य घोरं तपो । वीरे श्री, धृति, कीर्ति, कान्ति निचयः । श्री वीर भद्रं दिश ॥"
॥ ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥
• परिशिष्ट .
अनुपम महावीर वचन : "महावीर का एक समय मात्र भी संसार का उपदेश नहीं है। उनके सारे प्रवचनों में उन्होंने वही प्रदर्शित किया है, वैसे ही स्वाचरण से भी उस प्रकार सिद्ध भी कर दिया है । कंचनवर्णी काया, यशोदा जैसी राणी, विपुल साम्राज्यलक्ष्मी और महा प्रतापी स्वजन परिवार का समूह फिर भी उसकी मोहिनी को उतार देकर ज्ञानदर्शनयोगपरायण होकर उन्होंने जो अद्भुतता प्रदर्शित की है, वह अनुपम है। उसका वही रहस्य प्रकाशित करते हुए पवित्र 'उत्तराध्ययन सूत्र' में आठवें अध्ययन की प्रथम गाथा में कपिल केवली के समीप तत्त्वाभिलाषी के मुखकमल से महावीर कहलवाते हैं कि -
'अधुवे असासयंमि संसारंमि दुख्खपउराए।
किं नाम हुज्ज कम्मं जेणाहं दुग्गई न गच्छिज्जा ॥' 'अधुव और अशाश्वत संसार में अनेक प्रकार के दुःख हैं, मैं ऐसी क्या करनी करुं कि जिस करनी से दुर्गति प्रति जाउं नहीं ?' xxx तत्त्वज्ञानचंद्र की सोलह कलाओं से पूर्ण होने के कारण से सर्वज्ञ महावीर के वचन तत्त्वज्ञान के लिये जो प्रमाण देते हैं वह महद्भूत, सर्वमान्य एवं केवल मंगलमय है।"
- - - श्रीमद् राजचन्द्र : भावनाबोध 17 वर्ष)V | (प्रा. प्रतापकुमार ज. टोलिया : जिनभारती : बेंगलोर (09611231580)
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प्रतिभाव :
परिशिष्ट-1
महावीर दर्शन ( मंचन )
Staging of 'MAHAVIRA DARSHAN'
• महावीर दर्शन
My Dear Toliyaji,
I take this opportunity to thank you so very much on behalf of Bhagavan Mahavira 2600th Birth Anniversary Celebration Committee for your kind participation in the last cultural programme cum exhibition of Bhagavan Mahavira, being a memorabilia of Jainism at Academy of Fine Arts, Calcutta, from 27th of February, 2001 to 5th of March, 2001.
Your display of Audio Cassettes and C.D's was highly complimented by the visitors. Audio Cassettes and C.D's of this standard were never before seen in this part of India. Your personal painstaking involvement along with your precious time devotion deserves high praise.
महावीर कथा •
"MAHAVIR DARSHAN" a creative and devotional tribute to Bhagavan Mahavira and his life episodes was really delightful, so to say a musical extravaganza of its own class that spellbound the audience. It was a delight to have Srirnati Su utraji amongst us and an experience of a lifetime to hear her melodious voice. We are looking forward to similar co-operation from you in any cultural programme in future that might be forthcoming in any other part of India, in view of our success of the exhibition which we would like to appraise you.
With warm regards,
Lorikema
J. K. NAHAR
Convener
For and on behalf of the Committee
Please inform me without hesitation, if there is any outstanding dues from your side regarding expenses on this function account.
rnaher
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• Helt gefa -
Elche
foten
.
प्रतिभाव :
URANTE-1 (A)
JAIN MUSIC MAHAVIRA DARSHAN
PROF. K.M. LODHA (Ex. V.C. Calcutta University)
Dear Prof. Tolia,
You will be receiving this letter by the time you have reached Bangalore. Your participation in the exhibition held in Calcutta gave us a great fillip and encouragement to realise what a man can do and achieve in life with dedication, devotion and involvement. I had known about you and your dynamic personality and had also met you before two decades or so. Your visit and our meeting here had only revibrated and renewed our first meeting. I am deeply indebted to you for the two cassettes that you prese ed to me which I will always preserve as momentos. I am sure our contact in future will always be there.
Kindly convey my regards to Mrs. Tolia who epitomizes great ideals of Indian womanhood. I am sure your return journey was quite comfortable.
Please do let me know if I am of any service to you here.
Thanking you,
Yours faithfully,
une mis (K. M. Lodha)
Prof. Pratapkumar J. Toliya Anant, 12, Cambridge Road, Bangalore-560 008.
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• મહાવીર દર્શન
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महावीर कथा •
प्रतिभाव :
પરિશિષ્ટ-2
પ્રો. પ્રતાપકુમાર ટોલિયા દ્વારા સંગીતમય મહાવીર કથા મનહરભાઈ કામદાર - નવનીતભાઈ ડગલી
(પ્રા. પ્રતાપકુમાર ટોલિયા, જૈન સાહિત્યના ઊંડા અભ્યાસી છે. અનેક ભાષાના જ્ઞાતા છે. શ્રીમદ્ રાજચંદ્રના ‘આત્મસિદ્ધિ શાસ્ત્ર'નું એમણે સાત ભાષામાં સંપાદન કર્યું છે. ઉપરાંત અનેક ગ્રંથોના સર્જક છે. સંગીતજ્ઞ છે. ધ્યાન સંગીત એમની વિશેષતા છે. ૧૯૭૪માં મહાવીર જન્મના ૨૫૦૦ વર્ષની ભારતે ઉજવણી કરી ત્યારે “મહાવીર દર્શન” શીર્ષકથી જૈન જગતને હિંદી-અંગ્રેજીમાં મહાવીર જીવન અને ચિંતનને પ્રસ્તુત કરતી કથાની સંગીત સભર સી.ડી.નું એમણે સર્જન કર્યું હતું જેને ખૂબ સારો આવકાર પ્રાપ્ત થયો હતો.
શ્રી મુંબઈ જૈન યુવક સંઘે “મહાવીર કથા” યોજી પછી વિલેપાર્લે-મુંબઈમાં, એપ્રિલ ૨૪, ૨૫, ૨૬ના ચિંતન સંસ્થા દ્વારા ત્રિદિવસીય ‘મહાવીર કથા’'નું આયોજન કરાયેલું હતું. પ્રા. પ્રતાપભાઈ ટોલિયા અને એઓશ્રીના શ્રીમતી બહેન શ્રી સુમિત્રાબહેન, કે જેઓ પણ ગાંધી વિચારધારાના વિદૂષી છે, અનેક ગ્રંથોના અનુવાદક અને સંગીતજ્ઞ છે - આ દંપતીએ સંગીત સાજીંદાઓના સથવારે ત્રિદિવસીય મહાવીર કથા પ્રસ્તુત કરી શ્રોતાઓને મંત્રમુગ્ધ કર્યા હતા.
બેંગલોર સ્થિત શ્રી પ્રતાપભાઈનો ફોન નંબર છે ૦૮૦-૬૫૯૫૩૪૪૦; મોબાઈલ : ૦૯૬૧૧૨૩૧૫૮૦.
આ મહાવીર કથાનો પ્રાપ્ય સંક્ષિપ્ત અહેવાલ પ્ર.જી.ના વાચકો સમક્ષ પ્રસ્તુત કરતા અમે આનંદ-ગૌરવ અનુભવીએ છીએ..... તંત્રી પ્રબુધ્ધ જીવન)
તારીખ ૨૪-૨૫-૨૬ એપ્રિલના રોજ ‘ચિંતન' - વિલેપાર્લે દ્વારા આયોજિત ‘મહાવીર કથા’ પ્રો. પ્રતાપકુમાર ટોલિયા તથા શ્રીમતિ સુમિત્રાબેન ટોલિયાના સ્વમુખે પ્રબુદ્ધ જિજ્ઞાસુ જનોની હાજરીમાં સંપન્ન થઈ.
(79)
ભગવાન મહાવીરનો પહેલો પ્રશ્ન શ્રોતાઓ સમક્ષ આંતરશોધરૂપે મુક્યો. ‘હું કોણ છું ?’નો આ શોધપ્રશ્ન અને તેનો સ્પષ્ટ અનુભવ સભર પ્રત્યુત્તર કે ‘હું આત્મા છું’ - ‘સચ્ચિદાનંદી શુદ્ધ સ્વરૂપી આત્મા’. તે ભગવાન મહાવીરના જીવન દર્શનનો પ્રધાન બોધ છે. આ આંતરબોધ સૂચક તેમના સૂત્ર જે એગં જાણઈ સે સવ્વ જાણઈ' (જેણે આત્મા જાણ્યો તેણે સર્વ જાણ્યું)નો ઘોષ-પ્રતિઘોષ ભગવાન મહાવીરની સ્વયં જીવન કથામાં સર્વત્ર ગૂંજતો રહ્યો.
પ્રભુ મહાવીરની ક્ષત્રિયકુંડ ગ્રામની ભૂમિમાં બ્રાહ્મણ કુંડ વચ્ચે થતા થતા તેમાં શ્રીમદ્ રાજચંદ્રની નિશ્રય વ્યવહારના સમન્વયની તત્ત્વદૃષ્ટિ તેમાં ભળી અને તેમાં પણ તેમના પદો તથા સ્વર્ગસ્થ શ્રી શાંતિલાલ
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• મહાવીર સર્જન - મહાવીર
થી
શાહના હિન્દીમાં કરેલા ગીતો સાથ આપતા રહ્યાં. તદુપરાંત ઉપાધ્યાય અમરમુનિ અને ઉપાધ્યાય યશોવિજયજી તથા મહાયોગી આનંદઘનજીનાં પદો પ્રસંગે પ્રસંગે ડોકાતા રહ્યા.
પ્રભુના માતાના ૧૪ સ્વપ્નો સૂચિત સર્ગભાવસ્થાનો સંભાળ કાળ એવી રીતે આલેખાયો કે વર્તમાનની અને સર્વકાળની માતાઓ માટે આદર્શરૂપ થઈ શકે. પ્રભુની બાલક્રીડાના સર્પ અને હાથીને નાથવાના પ્રસંગો, વિદ્યાશાળામાં ઈન્દ્ર દ્વારા પ્રભોનો મહિમા વધારતા પ્રસંગો અને કલિકાલ હેમચન્દ્રાચાર્ય વર્ણિત યશોદાના પાણીગ્રહણનો, ત્રિશલામાતા અને વર્ધમાનકુમારના હૃદયસ્પર્શી પ્રસંગો સહુને એક ઉપેક્ષિત ભૂમિમાં લઈ જનારા બન્યા.
પ્રભુ મહાવીરના સિદ્ધાંતો જેવા કે અહિંસા, સત્ય, બ્રહ્મચર્ય, અપરિગ્રહ અને ક્ષમાપનાને આજે પણ જગતના જૈનો ઉપરાંત અન્ય ધર્મના લોકો પણ માનતા થયા છે.
પ્રભુએ મહાભિનિષ્ક્રમણ કરી સર્વ સંબંધોનો ત્યાગ કરી એકલવિહારી બની ચાલી નીકળ્યા અને આ પ્રસંગ લોકોમાં હૃદયદ્રાવક બની ગયો. ત્યારપછી પ્રભુ મહાવીરના પ્રસંગો જેવા કે ચંડકૌશિક નાગે જ્યારે પ્રભુને ડંશ દીધો તેમાંથી દૂધની ધારા છૂટી અને ચંડકૌશિકને “બુઝ બુઝ' કહી તેના જીવનનો ઉદ્ધાર કર્યો. ચંદનબાળાનો ઉદ્ધાર કરી પ્રભુએ સ્ત્રી જાતિનું સન્માન કરી પુરુષ સમોવડી આલેખી અને તેમના કટ્ટર દુશ્મન ગોશાલાને પોતાના દોષયુક્ત જીવનનો પશ્ચાત્તાપ કરાવ્યો.
આ પ્રમાણે પોતાનું જીવન વિતાવતા ઘોરાતિઘોર ઉપસર્ગો સાડાબાર વર્ષ સુધી ભોગવ્યા અને છેલ્લે સંગમ દેવતાએ પ્રભુની ખ્યાતિ દેવલોકમાં સાંભળી ત્યારે તેનામાં ઈર્ષાભાવ આવ્યો અને પ્રભુને પરેશાન કરવા પૃથ્વીલોકમાં આવ્યો અને પ્રભુને અનેક જાતના ઉપસર્ગો કર્યા. દરેક ઉપસર્ગો પ્રભુએ જે રીતે સહન કર્યા તેનાથી એ થાકી પાછો વળ્યો ત્યારે પ્રભુની આંખમાં બે બિંદુ આંસુના ટપકી પડ્યા જેના થકી દુશમનને પણ પશ્ચાત્તાપ કરાવ્યો.
તેમના પ્રથમ શિષ્ય ઈન્દ્રભૂતિ ગૌતમ તેમના ૧૧ ગણધરમાંના પ્રથમ ગણધર બન્યા. આ બધા ગણધરો પ્રભુને જ્ઞાનમાં હરાવવા આવ્યા હતા પણ જેવા એક પછી એક ગણધરો પ્રભુના સમોસરણમાં આવ્યા ત્યારે પ્રેમથી તેમના નામ બોલી તેમને આવકાર્યા. બધા ગણધરો પોતાના શિષ્યો સહિત પ્રભુના માર્ગમાં જોડાઈ ગયાં.
સાડાબાર વર્ષ સુધી પ્રભુએ ઘોર તપ કરી જુવાલિકા નદીના કિનારે ગો-દોહિકા આસને બેસીને ધ્યાનમગ્ન હતા ત્યારે શાલિવૃક્ષ નીચે કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત થયું. ( આ પ્રમાણે પ્રભુ પોતાનું જીવન વિતાવતા વિતાવતા તેમના જીવન સંધ્યાના વિનય મહિમાના વિનયસૂત્રના ઉદાહરણો સાથે અને તેમની અંતિમ ક્ષણોમાં વર્ણનો સાથે ધીર-ગંભીર ઘોષ અને સંગીતના કરુણતમ સ્વરો સાથે પ્રવકતા પ્રસ્તુત કરી રહ્યા હતા ત્યારે સૌને માટે એ તદ્દન નવો જ આગવો અનુભવ હતો. એક બાજુથી પ્રભુ નિર્વાણના એ અદ્ભુત પ્રસંગમાં સહુને ડુબાડી રહ્યો હતો, બીજી બાજુથી તેમના જીવન સંદેશ ભણી સ્પષ્ટ આંગળી ચીંધી રહ્યો હતો તો ત્રીજી બાજુથી પ્રભુ-પ્રદર્શિત આત્મધ્યાનના પ્રદેશમાં
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• महावीर दर्शन
જીવનભર ડોકિયું નહીં કરી શકનારાઓમાં એક અકળ અજંપો, એક ઉગ્ર અવસાદ પણ ઊભો કરાવી રહ્યો હતો. પ્રભુ જાણે જતાં જતાં કહી રહ્યાં હતા કે ‘અબ હમ અમર ભયે ન મરેંગે' તો આપણે ક્યારે આ અમરતાનું ગાન ગાઈ શકીશું ? ક્યારે મહાપુરુષના એ પંથે વિચરી શકીશું ? એવી ચિનગારી પોતાના જીવનદર્શન દ્વારા જગાવી રહ્યા હતા. ( मुद्रित 'प्रभुध्ध भुवन' भुन -२०००) 'चिंतन', ४ गोविंह निवास, १७८, सरोकनी रोड, विलेपारले (वे.), मुंबई-४०००५. ફોન નં. : ૦૨૨-૨૬૧૧૫૪૩૫
प्रतिभाव :
महावीर कथा •
સાહિત્ય સંગીત રત્ન પ્રો. પ્રતાપકુમાર ટોલિયા દ્વારા મહાવીર કથા
વિલેપાર્લે સ્થિત ‘ચિંતન’ સંસ્થા દ્વારા એપ્રિલ ૨૪ના સાંજે સાડા સાત, તા. ૨૫ સવારે સાડા નવ અને તા. ૨૬ના સાંજે સાડા સાતે, શ્રી ઘેલાભાઈ કરમચંદ ટ્રસ્ટ, શ્વેતાંબર મૂર્તિપૂજક જૈન દેરાસરના ઉપાશ્રય-વિલેપાર્લે (વેસ્ટ), સ્ટેશન ફાટક પાસે, પ્રા. પ્રતાપકુમાર ટોલિયા ધ્યાન સંગીત સાથે મહાવીરના જીવન પ્રસંગો વર્ણવતાં મહાવીર કથા પ્રસ્તુત કરાઈ.
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"प्रभुध भुवन" १-५-२०१०
बेंगलुर के कलाकारों द्वारा मुंबई में महावीर कथा
बेंगलुर : मुंबई की एक दार्शनिक संस्था 'चिंतन' के सौजन्य से यहाँ विले पार्ले में त्रिदिवसीय संगीतमय कथा का गत दिनों आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम में बेंगलुर के प्रो. प्रतापकुमार टोलिया व उनकी पत्नी श्रीमती सुमित्रा टोलियाने भगवान महावीर के जीवन पर आधारित 'महावीर दर्शन' कार्यक्रम की प्रभावपूर्ण प्रस्तुति दी और उपस्थित श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया । संगीत, साहित्य व तत्व दर्शन के त्रिविध कथा निरूपण में वॉयलिन वादक भरत शाह की वॉयलिन और सितार के साथ की गई संगत से वातावरण सम्मोहक बन गया । कथा के दौरान आयोजित काव्य पाठ का भी श्रोताओं ने भरपूर आनन्द उठाया। तीन दिनों तक चली इस आध्यात्मिक ज्ञान गंगा में सभी श्रोता नहाते रहे और आनन्दानुभूति प्राप्त करते रहे। कार्यक्रम के अध्यक्ष एवं 'प्रबुद्ध जीवन' के सम्पादक डॉ. धनवंत शाह ने अपने समापन भाषण में तीन दिनों तक चले इस कार्यक्रम को प्रेरणाप्रद व सराहनीय बताया ।
('दक्षिण भारत' 2-5-2010)
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
प्रतिभाव :
| परिशिष्ट-3
प्रो. प्रतापकुमार टोलिया द्वारा प्रस्तुत महावीर कथा
लेखक : मनहरभाई कामदार - नवनीतभाई डगली
परिचय-संक्षेप : प्रा. प्रतापकुमार टोलिया जैन साहित्य के गहन अध्येता है।अनेक भाषाओं के ज्ञाता हैं। श्रीमद् राजचन्द्र के 'आत्मसिद्धि शास्त्र' का उन्होंने 'सप्तभाषी आत्मसिद्धि' शीर्षक से सात भाषाओं के अनुवाद का सम्पादन किया है। इसके अतिरिक्त अनेक ग्रंथों के सर्जक हैं। संगीतज्ञ हैं। ध्यान संगीत उनकी विशेषता है। 1974 में महावीर निर्वाण के 2500 वर्ष का महोत्सव भारत ने मनाया तब 'महावीर दर्शन' शीर्षक से जैन जगत को हिन्दी-अंग्रेजी में महावीर जीवन और चिंतन को प्रस्तुत करती हुई कथा की संगीत सभर रिकार्ड-सी.डी. का उन्होंने सृजन-समर्पण किया था जिसको बहुत अच्छा प्रतिभाव प्राप्त हुआ था।
- श्री मुंबई जैन युवक संघ ने 'महावीर कथा' का आयोजन किया तत्पश्चात् 'चिंतन' संस्था द्वारा विले-पार्ले-मुंबई में 24-25-26 अप्रैल को त्रिदिवसीय 'महावीर कथा' का आयोजन किया गया था । प्रा. प्रतापभाई टोलिया और आपश्री की पत्नी श्रीमती सुमित्रा बहन, कि जो भी गांधी विचारधारा की विदुषी हैं, अनेक ग्रंथों की अनुवादक एवं संगीतज्ञ हैं - इस दंपती ने संगीत वादक कलाकारों के सहयोग से त्रिदिवसीय महावीर कथा प्रस्तुत करके श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया था।
बेंगलोर स्थित श्री प्रतापभाई का फोन नं. है 080-65953440/09611231580
इस महावीर कथा का प्राप्त संक्षिप्त रिपॉर्ट 'प्रबुद्ध जीवन' के पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए आनंद-गौरव अनुभव करते हैं - सम्पादक, प्रबुध्ध जीवन)
दिनांक 24-25-26 अप्रैल को 'चिंतन'-विलेपार्ले द्वारा आयोजित 'महावीर कथा' प्रो.प्रतापकुमार टोलिया एवं श्रीमती सुमित्राबेन टोलिया के स्वमुख से प्रबुद्ध जिज्ञासुजनों की उपस्थिति में संपन्न हुई।
भगवान महावीर का प्रथम प्रश्न श्रोताओं के समक्ष आंतखोज के रूप में रखा गया कि 'मैं कौन हूँ?'। यह खोज-प्रश्न और उसका स्पष्ट, अनुभवसभर प्रत्युत्तर कि 'मैं आत्मा हूँ' - 'सत्त्विदानंदी शुद्ध स्वरूपी आत्मा' - वह भगवान महावीर के जीवन दर्शन का प्रधान बोध है। यह आंतबोधसूचक उनके सूत्र 'जे एगं जाणई से सव्वं जाणई' (जिसने आत्मा को जाना उसने सबकुछ जाना) का घोष-प्रतिघोष भगवान महावीर की स्वयं की जीवन कथा में सर्वत्र अनुगुञ्जित होता रहा।
इसस
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• महावीर दर्शन महावीर कथा •
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प्रभु महावीर की क्षत्रियकुंड ग्राम की जन्मभूमि में ब्राह्मणकुंड के बीच होते होते उसमें श्रीमद् राजचंद्र की निश्चय व्यवहार के समन्वय की तत्त्वदृष्टि... सम्मिलित हुई। उसमें भी उनके पद और स्व. श्री. शांतिलाल शाह के हिन्दी में अनुदित गीत साथ देते रहे। इसके अतिरिक्त उपाध्याय अमरमुनि और उपाध्याय यशोविजयजी एवं महायोगी आनंदघनजी के पद प्रसंग प्रसंग पर सुनाई देते रहे ।
प्रभु के माता के १४ स्वप्नों द्वारा सूचित गर्भावस्था का समय इस प्रकार आलेखित किया गया कि वर्तमान की एवं सर्वकाल की माताओं के लिये आदर्शरूप बन सके। प्रभु की बालक्रीडा के सर्प एवं हाथी को वश करने के प्रसंग और कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य वर्णित यशोदा के पाणिग्रहण का, त्रिशलामाता और वर्धमानकुमार के हृदयस्पर्शी प्रसंग सभी को एक उपेक्षित भूमि में ले जाने वाले बने ।
प्रभु महावीर के सिद्धांत जैसे कि अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और क्षमापना आज भी जगत के जैनों के अतिरिक्त अन्य धर्म के लोग भी मानने लगे हैं।
प्रभु महाभिनिष्क्रमण कर, सर्व संबंधों का त्याग कर एकलविहारी बन कर चल निकले और यह प्रसंग लोगों में हृदयद्रावक बन गया । इसके बाद के प्रभु के प्रसंग भी हृदयस्पर्शी बने जैसे कि चंडकौशिक नाग ने जब प्रभु को दंश दिया तब उसमें से दूध की धारा फूट पड़ी और चंडकौशिक को 'बुज्झ बुज्झ' कहकर उसके जीवन का उध्धार किया; चंदनबाला का उधार कर प्रभु ने स्त्री जाति का सन्मान कर उसे पुरुष समान आलेखित की और उनके कहर दुश्मन गोशाले को अपने दोषयुक्त जीवन का पश्चाताप कराया ।
इस प्रकार अपना जीवन व्यतीत करते हुए घोरातिघोर उपसर्ग प्रभु ने साड़े बारह वर्ष तक सहन किये और अंत में संगम देवता ने प्रभु की प्रशंसा देवलोक में सुनी तब उसमें ईर्ष्याभाव उत्पन्न हुआ और प्रभु को परेशान करने पृथ्वीलोक में आया और प्रभु के प्रति अनेक प्रकार के उपसर्ग किये । प्रत्येक उपसर्गं प्रभु ने जिस प्रकार सहन किये उससे थककर वह लौटा, तब प्रभु की आँखों से दो अश्रुबिन्दु टपक पड़े जिसके द्वारा शत्रु को भी पश्चात्ताप करवाया गया ।
उनके प्रथम शिष्य इन्द्रभूति गौतम उनके ११ गणधर में से प्रथम गणधर बने। ये सब गणधर प्रभु को ज्ञान में पराजित करने हेतु आये थे, परंतु जैसे ही एक के बाद एक गणधर प्रभु के समवसरण में आये, तब प्रेम से उनके नाम बोलकर प्रभु ने उनको संबोधित किया ।
प्रभु ने साड़ेबारह वर्ष तक घोर तप करके ऋजुवालुका नदी के तट पर गोदोहिका आसन में बैठकर ध्यानमग्न बने थे तब शालिवृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त किया ।
इस प्रकार प्रभु अपना जीवन बीताते बीताते अपनी जीवनसंध्या में "विनय महिमा" के विनयसूत्र के उदाहरणों के साथ, अपनी अंतिम क्षणों के धीरगंभीर घोषपूर्वक जो महत्त्व का संदेश दे रहे थे. उसे जब प्रवक्ता ने संगीत के करुणतम स्वरों के साथ प्रस्तुत किया तब सभी श्रोताओं के लिये वह एक बिलकुल नया ही विशिष्ट अनुभव था। वह अनुभव एक ओर से प्रभु-निर्वाण के उस अद्भुत
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प्रसंग में सब को डूबा रहा था, दूसरी ओर से उनके जीवन के संदेश की और स्पष्ट अंगुलि निर्देश कर रहा था, तो तीसरी ओर से प्रभु-प्रदर्शित आत्मध्यान के प्रदेश में जीवनभर नहीं झाँक सकनेवालों में एक अकल अजंपा, एक तीव्र अवसाद भी उत्पन्न करा रहा था । प्रभु मानों जाते जाते कह रहे थे कि 'अब हम अमर भये न मरेंगे।' तो हम कब इस अमरता का गान गा सकेंगे ? कब महापुरुष के उस पंथ पर विचरण कर सकेंगे ? ऐसी चिनगारी प्रभु अपने जीवनदर्शन द्वारा जगा रहे थे । 'चिंतन', ४ गोविंद निवास, १७९, सरोजिनी रोड़, विलेपार्ले (वे.) मुंबई - ४०००५६. फोन नं. 022-26115435 - • 'प्रबुद्ध जीवन' : जुन 2010.
प्रतिभाव :
गुजरात में
• महावीर दर्शन महावीर कथा •
प्रतापकुमार टोलिया - सुमित्रा टोलिया की महावीर कथा- श्रृंखला
श्री मधुभाई पारेख, स्वाध्यायकार, श्रीमद् राजचन्द्र ज्ञानमंदिर, राजकोट- 2011
महावीरजयंती दि. 16-4-2011 के दिन बोरडी - दहाणु में जैन उपाश्रय-छात्रालय सागरतट पर शांत वातावरण में यो.यु. श्री सहजानंदघनजी के महोत्सव के प्रारंभ में टोलिया दंपत्ती द्वारा श्रोताओं को तल्लीन करती हुई महावीर कथा के बाद राजकोट श्रीमद् राजचन्द्र ज्ञानमंदिर पर उसकी प्रस्तुति विशेष प्रभाव छोड़ कर गई ।
श्रीमद् राजचन्द्र परम समाधि दिन महोत्सव निमित्त से गुरुवार दि. 21-4-2011 के प्रातः के स्वाध्याय-सत्र में प्रा. प्रतापकुमार टोलिया का " श्रीमद् राजचन्द्रजी समर्पित यो. यु. श्री सहजानंदघनजी" विषयक मननीय प्रवचन हुआ । उसके पश्चात् उसी संध्या को इस दंपती ने " ध्यान संगीतमय महावीर प्रस्तुत की । सारा ही समय सर्व श्रोता अंतर्मुख बनकर भगवान महावीर के जीवन में डूबे हुए रहे। उसमें भी गणधरवाद की एवं अंत में विनय-महिमा के वीरवचन की उक्तियाँ बाह्यरूप से "आत्मा है, वह नित्य है; है कर्त्ता निजकर्म" और "ऐसा मार्ग विनय का भाषित श्री वीतराग” जैसी 'श्री आत्मसिद्धि शास्त्र' - पंक्तियों की ही स्मृति दिलाती थी ।
कार्यक्रम संपन्न होने के पश्चात् अनेक ध्यानानंद-विभोर श्रोता कहते रहे कि "सारा ही समय हम प्रभु के जीवन में साक्षात् यात्रा करते हुए कहाँ खोये हुए रहे, उसका भी हमें पता नहीं रहा ।" गुणानुमोदक अनेक संतों वक्ताओं को सत्संग प्रवचनों का भी ज्ञानमंदिर में लाभ प्राप्त हुआ । उनके भी आशीर्वाद मिले। इसके बाद प्रा. टोलिया के वतन अमरेली में भी श्री रसिकभाई शाह जैसे प्रबुद्ध चिंतक और श्री हर्षद वंदाराणा जैसे " गांधी- गुरु श्रीमद् राजचन्द्रजी की आत्मसिद्धि के अनुमोदक" आषु-कवियों की उपस्थिति में भी इस वर्ष की गुजरात की तीसरी महावीर कथा की सफलता के समाचार मिले। = मधुभाई, ३०, श्रीमद् पार्क, रॅइस कोर्स, राजकोट- 1.
('प्रबुद्ध जीवन : जुन- 2010 )
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
प्रतिभाव :
परिशिष्ट-3 (B) मुम्बई में अभूतपूर्व महावीर कथा प्रा. प्रतापकुमार टोलिया निर्मित 'महावीर कथा' संगीत-साहित्य-तत्वदर्शन कृति लांग प्लेकोम्पैक्ट डिस्क का विस्तृत मंचन कलकत्ता में प्रस्तुत करने के पश्चात् अभी अभी मुम्बई-विले पार्लेमें भी किया गया। अप्रैल अंत के इस त्रि-दिवसीय आयोजन में वहाँ की दार्शनिक संस्था 'चिंतन' ने, अभूतपूर्व रूप से, प्रा. प्रतापकुमार टोलिया, श्रीमती सुमित्रा टोलिया द्वारा महावीर जीवन कथा 'महावीर दर्शन' का प्रभावपूर्ण प्रस्तुतीकरण करवाया । इस संगीत-साहित्य-तत्त्वदर्शन के त्रिविध कथा-निरूपण में विविध भारतीय वाद्यसंगीतवृंद का सहयोग मिला था - स्वर्गीय जैन संगीतकार श्री शांतिलाल शाह के स्वनाम धन्य संगीत निर्देशक सुपुत्र श्री भरत शाह का, जो कि श्री कल्याणजी आणंदजी के सहायक रहे हैं एवं वायलिन-वादन पर उनका पचास वर्षों का विशुद्ध अधिकार है। बांसुरी एवं सितार आदि के साथ उनकी संगीत प्रस्तुति महावीर कथा के गीतों और कथानकप्रसंगों को जो उठाव, जो आकार दे रही थी वह देखते और सुनते ही बनता था। मानों कोई दैवी अनुग्रह !
ऐसे संगीत के माहौल में महावीर कथा के दौरान सतत बहती वागधारा-कोमेन्ट्री एवं काव्यधाराकविता पाठ भी अपना अमिट प्रभाव श्रोतासमूह पर छोड़ती और बरसाती गई। रोज के दो दो घंटो के तीन दिवसों से अंतर्लीन श्रोता मौन-शांत-प्रशांत रूप में महावीर जीवन के अगमलोक में अंतर्यात्रा-ध्यानमय भीतरी सफर करते करते जैसे खो ही गये थे दूसरी दुनिया में। ...
जन्म से लेकर निर्वाण तक के महावीर-जीवन-प्रसंग चलचित्र की लगातार चलती पट्टी और सरिता की निरंतर बहती धारा की भाँति प्रस्तुत होते गये... श्रोता मंत्रमुग्ध एवं अपना देहभाव विस्मृत होकर उसमें नहाते गये और अलौकिक आनंद की एक अपूर्व अनुभूति पाते गये... । इस प्रकार सारी ही, आधान्त कथा के मर्मी, बहुश्रुतः विद्वान् श्रोता एवं "प्रबुद्ध जीवन" के सम्पादक, कार्यक्रमअध्यक्ष, डो. धनवंत शाहने अपने इस आनन्दानुभव का प्रतिभाव समापन-संभाषण में इन शब्दों में दिया :
"हमारा यह शुभ पुण्यकर्म कि 'चिंतन' संस्था ने हमें यह सुअवसर प्राप्त करवाया । इन तीन दिनों कथागंगा, भक्तिगंगा, तत्त्वगंगा-यह सारा प्रतापभाई ने हमारे लिये परोसा ही नहीं, प्रवाहित किया है- झरने की भाँति बहता किया है। और सुमित्रा बहन कि जिसने कितना बड़ा साहित्य कार्यअनुवाद कार्य-संगीत निर्देशन कार्य किया है कि वह कुछ बोले ही नहीं, पर केवल 'गाती' ही है... ऐसे सुमित्रावहन हमें मिले, प्रतापभाई से भी दो कदम आगे ऐसी उनकी स्वरगंगा बही... ज्ञानगंगा
और वाग्गंगा दोनों मिले तो हमें कितना अपार आनन्दानुभव प्राप्त हो । उन दोनों और 'चिंतन' को मेरे इस कथा के सुंदर आयोजन के लिए अनेकशः नमन, अभिनंदन, अभिवादन...!"
- जिनभारती (080-26667882 / 45953440) (बेंगलोर-3-5-10)
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• મહાવીર હર્શન - મહાવીર તથા •
પ્રતિભાવ :
પરિશિષ્ટ-4 ]
પ્રો. પ્રતાપકુમાર ટોલિયા દ્વારા સંગીતમય મહાવીર કથા. - શ્રી મધુભાઈ પારેખ, સ્વાધ્યાયકાર, શ્રીમદ્ રાજચંદ્ર જ્ઞાનમંદિર, રાજકોટ
(ચેરમેન, કાર્યક્રમ આયોજન સમિતિ)
મહાવીર જયંતી ૧૬-૪-૨૦૧૧ના દિને બોરડી-દહાણુમાં જૈન ઉપાશ્રય-છાત્રાલય સાગર તટે શાંત વાતાવરણમાં યો.યુ. સહજાનંદઘનજીના મહોત્સવ પ્રસંગે ટોલિયા દંપતી દ્વારા શ્રોતાઓને તલ્લીન કરતી મહાવીર કથા બાદ રાજકોટ શ્રીમદ્ રાજચંદ્ર જ્ઞાનમંદિર પર તેની રજૂઆત વિશેષ પ્રભાવ મૂકી ગઈ.
શ્રીમદ્ રાજચંદ્ર પરમ સમાધિ દિન મહોત્સવ નિમિત્તે ગુરુવાર દિ. ૨૧-૪-૨૦૧૧ના સવારના સ્વાધ્યાયમાં પ્રા. પ્રતાપકુમાર ટોલિયાનું “શ્રીમદ્ રાજચંદ્રજી-સમર્પિત યો.યુ.શ્રી સહજાનંદઘનજી” વિષયક મનનીય પ્રવચન થયું ત્યાર પછી તે જ સાંજે-રાતે આ દંપતીએ ધ્યાનસંગીતમય “મહાવીર કથા” રજૂ કરી. સારો યે સમય બધા શ્રોતાઓ અંતર્મુખ બની ભગવાન મહાવીરના જીવનમાં ડૂબેલા રહ્યાં. સતત સજગ, આત્મસ્થ ભગવંતનું નવા જ રૂપે દર્શન કરતા રહ્યા. તેમાં પણ ગણધરવાદની અને છેલ્લે વિનયમહિમાની વીરવચનની ઉક્તિઓ હૂબહૂ “આત્મા છે, તે નિત્ય છે, છે કર્તા નિજકર્મ.” અને “એવો માર્ગ વિનય તણો ભાખ્યો શ્રી વીતરાગ” જેવી શ્રી આત્મસિદ્ધિ શાસ્ત્રની જ સ્મૃતિ આપતી રહી. કાર્યક્રમ સંપન્ન થયા પછી અનેક ધ્યાનાનંદ વિભોર શ્રોતાઓ આવીને કહી રહ્યાઃ “સારો યે સમય અને પ્રભુના જીવનમાં સાક્ષાત યાત્રા કરતાં ક્યાં ખોવાયેલા રહ્યા તેની અમને જાણ ન રહી.” ગુણાનુમોદક અનેક સંતો-વક્તાઓના સત્સંગ પ્રવચનોનો પણ જ્ઞાનમંદિરમાં લાભ મળ્યો, તેમના પણ આશીર્વાદ મળ્યા.
' મહાવીર કથાની આ ફલશ્રુતિ પ્રો. ટોલિયાના ૨૩.૪.૨૦૧૧ના સુશ્રી વિમલાતાઈના વિમલ સૌરભ' પરના જૈનસૂત્રો-ઉપનિષદો-ભજન કવરોના કાર્યક્રમમાં પણ ઝલકતી રહી. તેમના તુલનાત્મક પ્રસ્તુતીકરણમાં ત્યાં “બ્રહ્મ સત્ય નાભિથ્થા' ના પ્રસિધ્ધ શંકર-સૂત્રને “બ્રહ્મ સત્ય નસ્
ઋર્તિઃ' ના સંશોધિત વિનોબા-સૂત્રનો સંદર્ભ મૂકી શ્રીમદ્ભા આર્ષ-વચન “સકળ જગત તે એઠવત્ અથવા સ્વપ્ન સમાન” (આસિ. ૧૪૦) સાથે રજૂ કરતાં, આ લખનારને પણ ત્યારે તત્ત્વ-તુલના કરવાકહેવાનો લાભ મળ્યો.
રાજકોટના આ સફળ સાર્થક કાર્યક્રમો સ્મરણીય બની ગયા. આ પછી પ્રો. ટોલિયાના વતન અમરેલીમાં પણ શ્રી રસિકભાઈ શાહ જેવા પ્રબુદ્ધ ચિંતકો અને શ્રી હર્ષદ ચંદારાણા જેવા “ગાંધી-ગુરુ શ્રીમદ્ રાજચંદ્રજીની આત્મસિધ્ધિ'ના અનુમોદક આષ-કવિઓની ઉપસ્થિતિમાં પણ ગુજરાતમાંની ત્રીજી
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• મહાવીર દર્શન
મહાવીર કથાની સફળતાના સમાચાર મળ્યા. જેની વિડિયો સી.ડી. પર આશાસ્પદ યુવક ટોલિયાએ ભારે જહેમતપૂર્વક આ ત્રણેય સ્થાનોની મહાવીર કથાઓના સહજ બની ગયેલ આયોજનના નિમિત્ત બનવાના શ્રેયનો શ્રીમદ્ રાજચંદ્ર જ્ઞાનમંદિર રાજકોટને લાભ મળ્યો તેનો અમને આનંદ છે.
महावीर कथा •
= શ્રી મધુભાઈ પારેખ (094279 63060) 30, શ્રીમદ્ પાર્ક, લાઈફ બિલ્ડીંગ પાસે, રેસકોર્સ, રાજકોટ-૧.
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ધ્યાનસંગીત
અંતર્યાત્રા
શ્રીમદ્ રાજચંદ્ર, શ્રી વિમલાતાઈ તથા શ્રી ગુરુદયાલ મલ્લિક વગેરે મહાનુભાવોનો પ્રેમ પ્રાપ્ત કરનાર બેંગલોર નિવાસી શ્રી પ્રતાપભાઈ ટોલિયા પોતે જીવનસાધક છે, સંગીતના ઊંડા જ્ઞાતા છે. તેઓના પત્ની શ્રીમતી સુમિત્રાબેન તથા પુત્રી ભાવિતા સાથે તેઓ ધ્યાનસંગીત દ્વારા અધ્યાત્મ, યોગ, ભારતીય સંસ્કૃતિ તથા જૈનધર્મના મૂળ તત્ત્વ રજૂ કરે છે.
તેઓ તા. ૨૩ એપ્રિલ, શનિવારના રોજ વિમલ સૌરભ, વાણિયાવાડી, શેરી નં. ૯, રાજકોટ ખાતે સાંજે ૬.૩૦ થી ૯.૦૦ વાગ્યા સુધી કવિલોક સરિતાથી આત્માના આનંદલોકના સાગર સુધીની પ્રસ્તુતિ રજૂ કરશે. જેમાં જૈન સૂત્રો, ઉપનિષદો, રવીન્દ્ર સંગીત, સપ્ત સંગીત વગેરેનું ગાન કરશે. રસ ધરાવતા મિત્રો આ લાભ લેવા અચૂક હાજર રહે તેવું નિમંત્રણ ગુજરાત બિરાદરી - રાજકોટ કેન્દ્ર તરફથી છે. (“બિરાદર’” : એપ્રિલ ૨૦૧૧)
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દશાશ્રીમાળી વાડીના વ્યાખ્યાન હોલમાં
તા. ૨૪ના ‘મહાવીર કથા'નું આયોજન
જૈનોના અને સૌના જૈન ધર્મના છેલ્લા તીર્થંકર ભગવાન મહાવીરના જીવન કવનની મહાવીર કથાનું આયોજન અમરેલી શહેરની પ્રતાપરાય આર્ટ્સ કોલેજના પૂર્વ પ્રાદ્યાપક અને બેંગલોર વસતાં આંતરરાષ્ટ્રીય સંસ્થા વર્ધમાન ભારતીના પ્રણેતા પ્રા. શ્રી પ્રતાભભાઈ ટોળીયા સર્વ પ્રથમ વખત અત્રે મહાવીર કથા શ્રી દશાશ્રીમાળી મહાજન વાડી નં. ૨ વ્યાખ્યાન હોલમાં તા. ૨૪-૦૪-૨૦૧૧ રવિવારના સાંજે ૭-૦૦ થી ૯-૦૦ સુધી રખાયેલ છે. તો સર્વે નગરજનોને પધારવા હાર્દિક ભાવભર્યું નિમંત્રણ છે. (– અમરેલીના સમાચાર પત્રો)
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
अहिंसा, अनेकांत और आत्मविज्ञान का प्रसारक संस्थान श्री वर्धमान भारती-जिन भारती :
प्रवृत्तियाँ और प्रकाशनादि
बेंगलोर में 1971 में संस्थापित 'वर्धमान भारती' संस्था आध्यात्मिकता, ध्यान, संगीत और ज्ञान को समर्पित संस्था है । प्रधानतः वह जैनदर्शन का प्रसार करने का अभिगम रखती है, परंतु सर्वसामान्य रूप से हमारे समाज में उच्च जीवनमूल्य, सदाचार और चारित्र्यगुणों का उत्कर्ष हो और सुसंवादी जीवनशैली की ओर लोग मुड़ें यह उद्देश रहा हुआ है । इसके लिये उन्होंने संगीत के माध्यम का उपयोग किया है । ध्यान और संगीत के द्वारा जैन धर्मग्रंथों की वाचना को उन्होंने शुद्ध रूप से कैसेटों में आकारित कर ली है। आध्यात्मिक भक्तिसंगीत को उन्होंने घर-घर में गुंजित किया है । इस प्रवृत्ति के प्रणेता है प्रो. प्रताप टोलिया । हिन्दी साहित्य के अध्यापक और आचार्य के रूप में कार्य करने के बाद प्रो. टोलिया बेंगलोर में पद्मासन लगाकर बैठे हैं और व्यवस्थित रूप से इस प्रवृत्ति का बड़े पैमाने पर कार्य कर रहे हैं। उनकी प्रेरणामूर्तिओं में पंडित सुखलालजी, गांधीजी, विनोबा जैसी विभूतियाँ रहीं हुई हैं । ध्यानात्मक संगीत के द्वारा अर्थात् ध्यान का संगीत के साथ संयोजन करके उन्होंने धर्म के सनातन तत्त्वों को लोगों तक पहुँचाने का प्रयत्न किया। श्री प्रतापभाई श्रीमद् राजचन्द्र से भी प्रभावित हुए । श्रीमद् राजचन्द्र के 'आत्मसिद्धि शास्त्र' * आदि पुस्तक भी उन्होंने सुंदर पठन के रूप में कैसेटों मे प्रस्तुत किये। जैन धर्मदर्शन केन्द्र में होते हुए भी अन्य दर्शनों के प्रति भी आदरभाव होने के कारण प्रो. टोलिया ने गीता, रामायण, कठोपनिषद् और विशेष तो ईशोपनिषद् के अंश भी प्रस्तुत किये। 1979 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई ने उस रिकार्ड का विमोचन किया था । प्रो. टोलिया विविध ध्यान शिबिरों का आयोजन भी करते हैं।
प्रो. टोलिया ने कतिपय पुस्तक भी प्रकाशित किये हैं। श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, हंपी के प्रथम-दर्शन का आलेख प्रदान करनेवाली 'दक्षिणापथ की साधनायात्रा' हिन्दी में प्रकाशित हुई है। मेडिटेशन एन्ड जैनिझम', 'अनन्त की अनुगूंज' काव्य, 'जब मुर्दे भी जागते हैं !" (हिन्दी नाटक), इ. प्रसिद्ध हैं । उनके पुस्तकों को सरकार के पुरस्कार भी मिले हैं । 'महासैनिक' यह उनका एक अभिनेय नाटक है जो अहिंसा, गांधीजी और श्रीमद् राजचन्द्र के सिद्धांत प्रस्तुत करता है । काकासाहब कालेलकर के करकमलों से उनको इस नाटक के लिये पारितोषिक भी प्राप्त हुआ था । इस नाटक का अंग्रेजी रूपांतरण भी प्रकट हुआ है । 'परमगुरु प्रवचन' में श्री सहजानंदघन की आत्मानुभूति प्रस्तुत की गई है।
प्रो. टोलिया का समग्र परिवार इस कार्य के पीछे लगा हुआ है और मिशनरी के उत्साह से काम करता है। उनकी सुपुत्री ने 'Why Vegetarianism ?' यह पुस्तिका प्रकट की है। बहन
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• महावीर दर्शन - महावीर कथा •
वंदना टोलिया लिखित इस पुस्तिका में वैज्ञानिक पद्धति से शाकाहार का महत्त्व समझाया गया है । उनका लक्ष्य शाकाहार के महत्त्व के द्वारा अहिंसा का मूल्य समझाने का है। समाज में दिन-प्रतिदिन फैल रही हिंसावृत्ति को रोकने के लिये किन किन उपायों को प्रयोग में लाने चाहिये उसका विवरण भी इस पुस्तिका में मिलता है।
उनकी दूसरी सुपुत्री पारुल के विषय में प्रकाशित पुस्तक 'Profiles of Parul' देखने योग्य है। प्रो. टोलिया की इस प्रतिभाशाली पुत्री पारुल का जन्म 31 दिसम्बर 1961 के दिन अमरेली में हुआ था । पारुल का शैशव, उसकी विविध बुद्धिशक्तियों का विकास, कला और धर्म की ओर की अभिमुखता, संगीत और पत्रकारिता के क्षेत्र में उसकी सिद्धियाँ, इत्यादि का उल्लेख इस पुस्तक में मिलता है । पारुल एक उच्च आत्मा के रूप में सर्वत्र सुगंध प्रसारित कर गई । 28 अगस्त 1988 के दिन बेंगलोर में रास्ता पार करते हुए सृजित दुर्घटना में उसकी असमय करुण मृत्यु हुई । पुस्तक में उसके जीवन की तवारिख और अंजलि लेख दिये गये हैं। उनमें पंडित रविशंकर की और श्री कान्तिलाल परीख की 'Parul - A Serene Soul' स्वर्गस्थ की कला और धर्म के क्षेत्रों की संप्राप्तियों का सुंदर आलेख प्रस्तुत करते हैं । निकटवर्ती समग्र सृष्टि को पारुल सात्त्विक स्नेह के आश्लेष में बांध लेती थी। न केवल मनुष्यों के प्रति, अपितु पशु-पक्षी सहित समग्र सृष्टि के प्रति उसका समभाव और स्नेह विस्तारित हुए थे। उसका चेतोविस्तार विरल कहा जायेगा । समग्र पुस्तक में से पारुल की आत्मा की जो तस्वीर उभरती है वह आदर उत्पन्न
करानेवाली है । काल की गति ऐसी कि यह पुष्प पूर्ण रूप से खिलता जा रहा था, तब ही वह मुरझा गया ! पुस्तक में दी गईं तस्वीरें एक व्यक्ति के 27 वर्ष के आयुष्य को और उसकी प्रगति को तादृश खड़ी करती हैं। पुस्तिका के पठन के पश्चात् पाठक की आंखें भी आंसुओं से भीग जाती हैं । प्रभु इस उदात्त आत्मा को चिर शांति प्रदान करो । ___ वर्धमान भारती' गुजरात से दूर रहते हुए भी संस्कार प्रसार का ही कार्य कर रही है वह समाजोपयोगी और लोकोपकारक होकर अभिनन्दनीय है। 'त्रिवेणी'
___- डॉ. रमणलाल जोशी लोकसत्ता-जनसत्ता
(सम्पादक, 'उद्देश') अहमदाबाद, 22-03-1992 * इसी का सात भाषाओं में श्रीमद् राजचन्द्रजी कृत 'सप्तभाषी आत्मसिद्धि' रूप
संपादित-प्रकाशित ।
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परिचय : मीन- प्रसून
महावीर - कथा
(महिमा गान )
पावन कथा, मन भावन कथा, तन-मन-जन लुभावन कथा । कर्मन की आवन - जावन कथा, वेदन-संवेदन विदारण कथा ॥
ज्ञाता दृष्टा सहन सुहावन कथा, उपसर्ग-परिषह, परिप्लावन कथा ।
"
स्व-सहाय स्व- पुरुषार्थ अवगाहन कथा, (निज) स्वरूप ध्यावन (परि) दर्शावन कथा
नहीं चित्त भटकावन यत्र तत्र धावन ( कथा ) यथा तथा ऐसी यह पावन प्रभु वीर - कथा, महावीर - कथा ॥
बहिर्मुक्त अंतर सुध्यावन कथा, अनुभूति- अनुभव - अनुपालन कथा । नहीं डरन डरावन दुभावन कथा, अभय अद्वेष- अखेद अवधारण कथा ||
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विगलित जहाँ पर सकल व्यथा ऐसी यह पावन प्रभु वीर कथा, महावीर - कथा ॥
समकित सावन-सँवारन कथा, कर्मे उद्दीरण- आवाहन कथा । ध्यान - अनल कर्म- जलावन कथा, ऊर्ध्वाति ऊर्ध्वगमन की गावन कथा
comme
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सांत अनंत मिलावन कथा ऐसी यह पावन प्रभु वीर-कथा, महावीर - कथा ॥
मनमयूर नचावन तन-कमल खिलावन, कष्ट गलावन कर्म जलावन कथा । विरही मिलावन, हीन दीन उठावन, दलित-पतित उद्धारण कथा ।
ऐसी यह पावन प्रभु वीर कथा, महावीर-कथा ॥
सुषुप्त चेतन जगावन, अनंत आत्मशक्ति दर्शावन कथा ऐसी यह पावन प्रभु वीर कथा, महावीर कथा ॥
देहभान भुलावन कथा, आत्मभान जगावन कथा प्रतिकार स्वीकार सिखावन कथा प्रतिकूल - अनुकूलन करावन कथा, जिनदर्शन में 'निज' दर्शावन कथा ॥
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काल चिरंतन असीम अनंत कथा, ऐसी यह पावन प्रभु वीर कथा प्रभु अनंत, प्रभुकथा अनंता गावहि सब श्रुति जन संता
"
ऐसी यह पावन प्रभु वीर - कथा, महावीर - कथा ॥ निशान्त "
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Dr. 27-2-15 -8
परिचय:
महावीर-कथा : 'महावीर दर्शन': हम संपूर्ण जानें
परम अनंत उपकारक भगवान महावीर हमारे आदर्श हैं, आराध्य हैं। उनकी प्रेरक पावन जीवनकथा हम उनके आराधक कितनी जानते हैं ? हमारे बालक-बालिका-किशोर-युवा कितनी जानते हैं ? उनके जीवन का प्रधान दर्शन और संदेश हम कितना समझते हैं ? आज सर्वत्र प्रचलित रामकथा, कृष्णकथा, अरे अब गांधीकथा जितना भी हमारे इस परमोपकारक परमाराध्य की कथा का "महावीर कथा" का हमने अपने हित में भी क्या प्रचार-प्रसार किया है ?
'महावीर प्रभु' अब सर्वत्र सब जगह होती चलती रहे यह इस युग की आवश्यकता है। विशेषकर हमारी आगामी युवा पिढ़ी के लिये ।
इसका विनम्र मंगलारंभ 'जिनभारती' - वर्धमान भारती इन्टरनेशल फाउन्डेशनने देश और विदेशों में कुछ वर्षों से किया है। इसका आयोजन करवाने का आप सभी को भी निमंत्रण है . । उसके इन मंचीय कार्यक्रम के सिवा रिकार्डिंग रूप में (सी.डी./कैसेट) उसके हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती रूप तैयार किये गये है। संक्षेप आकार में ये 'महावीर दर्शन' नाम से और विस्तृत आकार में श्री कल्पसूत्र कैसेट मंजुषा के नाम से प्रस्तुत हैं। इस श्री कल्पसूत्र केसेट मंजुषा को कोई ज्ञानदान लाभार्थी बंधु सी.डी. सेट में भी (प्रायः २० सी.डी.) प्रकाशित करवा सकते हैं। परंतु 'महावीर कथा-महावीर दर्शन' का मंच आयोजन (संगीत सह) कोई भी करवा सकते हैं। कलकत्ता, कोचीन, विदेश के कई नगर ऐसे आयोजन करवा चुके हैं। इस चातुर्मास एवं आगामी पर्युषण महापर्व के उपलक्ष्य में ऐसे एक से तीन या पांच दिन तक के आयोजन आप क्यों नहीं करवायें ? विशेष जानकारी हेतु आपकी भावना, जिज्ञासा का स्वागत है, प्रतीक्षा है। आप सभी का विनम्र सहधर्मी सहृदयी,
प्रा. प्रतापकुमार ज. टोलिया (फोन: 080-26667882-R)
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First Proof Dr. 1-3-15."
परिचय एवं माहितिः जिनानुशासन के सर्वोदय-तीर्थ की पावन-मंगल जिन चरणों की प्रभावनार्थ
| "महावीर दर्शन" मंचन आयोजन प्रस्तोता : प्रा. प्रतापकुमार टोलिया, श्रीमती सुमित्रा टोलिया (+ जिनभारती वृंद) • आधार : श्री कल्पसूत्र (श्वे.) महापुराण + महावीर पुराण (दिग.), श्रीमद् राजचन्द्र प्रणीत
समन्वयात्मक जीवनदर्शन का गुरुआज्ञायुक्त अनुभूति ध्यान प्रयोग । समयावधि : एक बैठक, एक दिन की हो तो शा से ३ घंटे 'ध्यानसंगीत' सह दो या तीन दिन की
हो तो तदनुसार विस्तार से । (पूर्व तालीम युक्त सुमधुर कंठों के त्रि-दिवसीय जिनभक्ति संगीत/ ध्यान संगीत/ समग्र
संगीत शिबिर के रूप में भी वैकल्पिक आयोजना) • इस वर्ष के दिन-दिनांक :
१९ अप्रैल १६ मंगलवार महावीर जयंती : चै.सु. १३, २० अप्रैल १६ बुधवार चतुर्दशी (प्रतिक्रमण समय छोड़कर)
२२ अप्रैल १६ गुरुवार चै.सु. १५ (आराधना समय छोड़कर) ध्वनि-प्रकाश : सुचारु व्यवस्था ५ से ६ अच्छे माइक/ मंद प्रकाश स्थान : कोई विशाल सभागृह (होल)।यदि अन्य स्थान हो तो निकट शांत वातावरण। यदि जिनालय
परिसर हो तो दर्शनार्थी के आवागमन एवं घंटनाद आदि पर नियंत्रण।
'इस सारे प्रस्तुति प्रयोग में संपूर्ण शांत वातावरण एवं शांति यह पूर्व आवश्यकता है। शिस्त-व्यवस्था : इस हेतू कार्यकर्ताओं की योजनाबध्ध व्यवस्था बराबर अपेक्षित है, ताकि प्रस्तुतीकरण
प्रत्येक व्यक्ति-श्रोता के लिये कुछ शांत, प्रेरक, अनुभव प्रदाता बन सके । प्रभावना या वितरण : 'महावीर दर्शन', 'वीर वंदना', दो १०० + १०० सी.डी. की प्रत्येक श्रोता को
प्राप्ति हो ऐसी व्यवस्था आवश्यक है, जो कि 'जिनभारती' से अग्रिम खरीदकर (रियासती मूल्य से) काफी समय पूर्व मंगवाई जाये । कार्यक्रम के पूर्व ( यदि सम्भव हो) और पश्चात् इन कृतियों का सदाश्रवण महावीर चेतना दृढ़ करा सकेगा, महावीर का प्रेरक आदर्श सतत बनाये रखेगा। जिनभारती के सी.डी.
कैसेट, पुस्तकों की विक्रय व्यवस्था भी अवश्य हो । .. प्रस्तुतीकर्ताओं, कलावृंद कलाकारों के प्रवास व्यय पारिश्रमिकादि:
स्वयं दोनों का (सिनियर सिटीज़न) A.C. + साथ में दो गानवृंद के III A.C. पारिश्रमिक के रूप में जिनभारती के प्रोजेक्टों को यथाशक्ति + कम से कम महावीर दर्शन के २०० सी.डी.
प्रवास-व्यय कम करने स्थानिक कलाकार (तबला + बांसुरी / वायलिन वादक) चल सकते हैं। • भाषा-माध्यम : हिन्दी अथवा अंग्रेजी अथवा गुजराती (मातृभाषा) अथवा मराठी भी। • आवास-भोजन व्यवस्था : बिना मिर्च-मसाले का (आयंबिल वत्), सूर्यास्त पूर्व जैनाहार । मित्रोंआयोजकों के यहाँ अथवा अन्यत्र आवास-सादगीभरा, बिना अधिक खर्चीला। • पूर्व प्रचार-प्रसार कार्यक्रम का : सर्वत्र, सभी सम्भव माध्यमों से प्रायः एक माह पूर्व ।
सम्पर्क सूत्र : 080-26667882 / 65953440 (M) 96112315080
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Fire Proof Dr. 1-2-15 - 10
परिचय एवं माहितिः
आगामी महावीर जयंति पर "महावीर-दर्शन" :
महावीरकथा
"उस त्रिशलातनय में ध्यान लगाय
ज्ञान विवेक विचार बढ़ाउं, नित्य विशोध कर नव तत्त्व का,
उत्तम बोध अनेक उच्चारं ॥" - श्रीमद् राजचन्द्रजी ('सामान्य मनोरथ' काव्य में) "वर्धमान महावीर का दिल में ध्यान लगाइये । कषाय-मुक्त मुक्तिपथ पर आगे बढ़ते जाइये ॥" - सुश्री विदुषी विमला ठकार ('महावीर जयंती' के प्रेरक पत्र में)
महावीर-ध्यान-विषयक श्रीमद्जी का उपर्युक्त 'सामान्य मनोरथ' हमारे लिये "भव्य मनोरथ" और "ध्यान-संदेश" बना हुआ है। तदनुसार गाने-ध्यान-जीने के उद्देश से त्रिशला तनय प्रभु महावीर की पावन प्रेरक चरित्रगाथा में लीन होकर "महावीर दर्शन" (= महावीर जीवनकथा एवं जीवनदर्शन) प्रत्यक्ष, प्रकट, मंचन के रूप में गाने-प्रस्तुत करने का लाभ हमें, परमगुरु अनुग्रह से, बरसों से मिल रहा है (देश-विदेशों के 25 बार के पर्युषण पर्व "कल्पसूत्र":भी) कि जिसका 2500 वे महावीर निर्वाणोत्सव प्रसंग पर, "महावीर दर्शन" एवं "वीरवंदना" शीर्षक के स्वरस्थ स्वरूप (रिकार्डिंग) स्वरबध्ध किया गया था - तब प्रथम लांग प्लॅ रिकार्ड एवं अब कोम्पेक्ट डिस्क सी.डी. एवं कैसेट आकार में ।
फिर 2600 वे महावीर जन्मकल्याणक महोत्सव के प्रसंग पर 2001 में कलकत्ता में उसका दो बार सफल एवं विशाल मंचन हुआ जो अभूतपूर्व प्रभाव-प्रतिभाव छोड़ गया (एक पत्र संबध्ध)। तत्पश्चात् भारत एवं विदेशों के कई नगरों में भी गुरुकृपा से यह सफल, सार्थक होता चला और हम अल्पज्ञों को इसका निमित्त बनाये रखा। सनातन रूप से प्रेरक एवं प्रासंगिक ऐसा प्रभुजीवन का पावन स्मरण-श्रवण तो हमारी चेतना की धन्यता एवं सार्थकता है। यह तो नित्य चलना चाहिये । जिनकथा में हमारे दिन व्यतीत हो यह हमारी मंगलभावना होती है । यदि सदा न सही तो कम से कम जिनेश्वरों के जन्मकल्याणकों-निर्वाणकल्याणकों-पांचों ही कल्याणकों के अवसर पर यह स्मरण-श्रवण होता रहे तो हमारा जीवन धन्य बन जाय । इस दृष्टि से आगामी महावीर जयंती चैत्र सु. १३ से चैत्र सु. १५ तक हम इसकी आयोजना का लाभ प्राप्त करें।
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INTRODUCTORY
PROF. PRATAPKUMAR TOLIYA + SUMITRA + DAUGHTERS
(Late) Kum. PARUL KINNARI etc.'s ALL TIME ETERNAL MUSICAL,EXTRAVAGANZA of BH. MAHAVIRA'S LIFE - EPISODES
MAHAVIRA DARSHAN
(Hindi..................... English.................... Gujarati)
First Produced : 1975 : BH. MAHAVIRA'S 2500th NIRVANOTSAVA : L.P. Disc Form. Subsequently : 2001 : BH. MAHAVIRA'S 2600th JANMOTSAVA : CD. + CALCUTTA LIVE Recently : 2010 : BH. MAHAVIRA JAYANTI: HAMPI & MUMBAI LIVE : 6 HRS. (Reviews) AT CALCUTTA (KOLKATA) : ORGANISERS BH. MAHAVIRA 2600th BIRTH ANNIVERSARY COMMITTEE & LATE SRI K.M. LODHA, Ex. V.C. CALCUTTA UNIVERSITY, APPLAUDED SAYING "MAHAVIRA DARSHAN" a creative and devotional tribute to Bhagavan Mahavira and his life episodes was really delightful, so to say a musical extravaganza of its own class that spellbound the audience. It was a delight to have Srimati Sumitraji amongst us and an experience of a lifetime to hear her melodious voice." "Your display of Audio Cassettes and C.D.s was highly complimented by the visitors. Audio Cassettes & CDs of this standard were never before seen, in this part of India. Your personal painstaking involvement along with your precious time devotion, deserves high praise." "I take this opportunity to thank you so very much on behalf of Bhagavan Mahavira 2600th Birth Anniversary Celebration Committee for your kind participation in the last Cultural Programme cum Exhibition of Bhagavan Mahavira, being a memorabilia of Jainism at Academy of Fine Arts, Calcutta from 27th of February, 2001 to 5th March 2001." - J.K.NAHAR, Convenor). "... Your participation in the exhibition held in Calcutta gave us a great fillip and encouragement to realise what a man can do and achieve in life with dedication, devotion and involvement I had known about you and your dynamic personality and had also met you before two decades or so. Your visit and our meeting here had only revibrated and renewed our first meeting. I am deeply indebted to you for the two cassettes (DHYAN SANGEET) that you presented to me which I will always preserve as momentoes.......... Kindly convey my regards to Mrs. Toliya who epitomizes great ideals of Indian Womanhood......" (- K.M. LODHA, Ex-Vice Chancellor, Calcutta University). "UNPRECEDENTED MAHAVIRA KATHA AT MUMBAI" ORGANISED BY "CHINTAN" GROUP: - Following Mahavira Jayanti - 'CHINTAN' organised and presented exclusive MAHAVIRA KATHA by Prof. PRATAPKUMAR J. TOLIYA & Smt. SUMITRA P. TOLIYA at Vile Parle. Mumbai on 24th, 25th & 26th April, 2010. This three day event was enjoyed by the inquisitive audience in apt SILIENCE. This unique katha, presented musically, poetically and philosophically, was based on authentic sources of SRI KALPASUTRA and SRIMAD RAJCHANDRAJI'S SYNTHETIC VISION as well as
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all-sided views of other Jain trends. Formerly produced L.P. Record, of MAHAVIRA DARSHAN was very much appreciated all over, across the world. This One Hour Disc was expanded into six hours depicting more worthy episodes and Thinking material. Above all, worth appreciating was its meditational aspect leading into INTERNAL VOYAGE of The LORD'S UNIQUE AND MAJESTIC LIFE." (- MANHAR KAMDAR, Convenor, CHINTAN)....... “MAHAVEER KATHA AT MUMBAI BY BANGALORE ARTISTS : A musical KATHA was organised here at Vile Parle lastthree days by 'Chintan'.... a philosophical institute of Mumbai. In this programme, Bangalore Artists Prof. PRATAPKUMAR TOLIYA and his wife Smt. SUMITRA TOLIYA rendered influensive performance of MAHAVIRA DARSHAN based on the life of Bhagawan Mahavira and spellbounded the listeners present. The atmosphere became enchanting in the three-fold KATHA presentation through the accompaniment of Sri Bharat Shah's Violin along with Flute and Sitar. The listners enjoyed a lot the poetry-reciation narrated in course of the KATHA. The awakened audience remained bathing for three days in this spiritual Ganges of knowledge and went on acquiring enlightenment of Joy. Dr. Dhanvant Shah, President of the Programme and Editor of 'PRABUDDHA JEEVAN', applauded this three days long performance as inspiring and worth praising, in his concluding speech." (- 'DAKSHIN BHARAT RASHTRAMAT Daily, B'lore: 6th May 2010) GIST OF ENLIGHTENED LISTENER, PROGRAMME- PRESIDENT & EDITOR OF "PRABUDDHA JEEVAN'S CONCLUDING SPEECH: "This is our meritous prior Deed that CHINTAN Institute availed us of this worthy good occasion. During these three days Pratapbhai has not only presented but also flowed KATHAGANGA, BHAKTIGANGA, SWARGANGA, TATTWAGANGA for us, like a stream. And Sumitraben, who has done tremondous literary work-translation works and Musical presentations, speaks nothing but ONLY SINGS....! We got such a Sumitraben, her two steps forward than Pratapbhai - like Swarganga flowed..... What a joy we get when both the GYANGANGA and VAG-GANGA meet! My innumerable compliments, congratulations and prostrations to both of them and to CHINTAN".
(Dr. DHANVANT T. SHAH). (Detailed Reports of these all separately elsewhere / attached herewith)
BRIEF REQUIREMENTS & INFORMATIONS FOR FUTURE ORGANISERS ABROAD OF "MAHAVIRA DARSHAN KATHA” : (1) Duration: 1 or 2 days. (2) Language: Hindi, English or Gujarati. (3) Venue : Peaceful, Better an Auditorium. (4) Listeners : Inquisitive, Silent. (5) Prior Purchase of MAHAVIRA DARSHAN Hindi / Eng. CDs Min. 100 for prior Distribution/Prabhavana. (6) AIR FARE form India + 2 Musicians from USA / Abroad, RES. & ALLIED EXP. (7) VOLUNTARY REMUNERATIONS. + MUSIC ACCOMPANISTS FROM USA/ABROAD as available. Note: WEEK-LONG KALPASUTRA SESSION DURING PARYUSHANA ALSO INCLUDES THIS KATHA.
(Pl. Feel Free for further inquiries with Prof. Toliya. Mob: 09611231580 or Res. 080-26667882, 65953440) With Best Compliments : Pratap Kumar 1 Toliya,
IN SERVICE OF JAIN WORLD.
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2.
3.
SOME OF V.B.I.F.'S IMPORTANT PUBLICATIONS
By Priyavadini: Late Kum. Parul P. Toliya M.A. Gold Medalist, Dip. Journalism. Why Abattoirs-Abolition? (English/Hindi): On Non-Violent Movement against Slaughter Houses.
1.
4.
47
• महावीर दर्शन
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Musicians of India -1 came Across: Interviews of Pt. Ravishankar and others.
5.
Indian Music & Media (English): Awarded Study paper.
*6. Mahavir Darshan (English): Bhagavan Mahavir's Life & Message Dr. Kum.: Vandana P. Toliya
78
महावीर कथा
Jainism Abroad (English): Various aspects: Ancients Current Contribution of Jaina Art, Music, & Literature to Indian culture (English) Papers & Essays.
Why Vegetarianism? (English): A Scientific & Spiritual Study. By. Prof. Pratapkumar Toliya, M.A. (Hindi, Eng.) Sanitya Ratna
8.
My Mystic Master Y. Y. Sri Sahaj Anandaghanji: Biography *9. Dakshinapath Ki Sadhanayatra (Hindi/Gujrati): Travelogue.
*10. Anant Ki Anugoonj, (Hindi): Poems & Songs : G.O.I. Awarded
11.
Mahasainik (Hindi): On Mahatma Gandhi and Srimad Rajchandraji: A Play (Awarded)
12.
Could there be such a warrior? (English): As per above. 13. Meditation & Jainism (English): Cuttack Int. Seminar Paper. 14. Jab Murde Bhi Jagate Hain (Hindi): Patriotic Play (Awarded) 15. Videshon me Jain Dharma Prabhavana (Hindi/Gujrati)
Sant-Shishyarii Jeevan Sarita (Gujarati): Biography.
Pragyachakshu-nu Drashti-Pradan (Gujarati): Reminiscences. Sthita Prajna ke sang (Hindi/ Gujarati): Remi. with A. Vinobaji. Days with Vinoba (English): Reminiscences.
20.
Gurudeo KeSath (Hindi): LateGurdial MallikjionTagore.
21. Jain Contribution to Kannada Literature & Culture (Eng/Hindi) *22. Speeches & Talks in U.S.A.& U.K. (English/Gujarati) 23. Profiles of Parul (English): Biography
(37)
*Audio and/or video Cassettes of these titles are available. (Only a few Books from these available now) Available from :
VARDHAMAN BHARATI INTERNATIONAL FOUNDATION 12, Cambridge Road, Bangalore-5600 008 (INDIA) Phone (Off) 2251552 (Res.) 5300556 PRABHAT COMPLEX, K.G. ROAD, BANGALORE-560 009.
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जिनमार्ग परिचय
• जैन धर्म महानता जिन वीर महिमा •
स्याद्वादो वर्तते यस्मिन्, पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्यपीडनं किंचिद, जैनधर्म: स उच्यते ॥ अनेकान्त की दृष्टि जहाँ है, और न पक्षपात का जाल मैत्री करुणा सब जीवों पर, जैनधर्म है वह सुविशाल ।
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥
"
- उपाध्याय अमरमुनि ।
भव बीजांकुर जनना, रागादयः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो, जिनो वा नमस्तस्मै ॥
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आचार्य हरिभद्र सूरि ।
- आचार्य हेमचन्द्रसूरि "बुद्ध वा वर्धमानं, शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा । " "बुध्ध, वीर, जिन, हरि, हर, ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहें ।"
जुगलकिशोर मुख्तार
( वीतरागस्तोत्र )
तव चेतसि वर्तेऽहमिति वार्तापि दुर्लभा । मच्चित्ते वर्तसे चेत्वमलमंचेत केनचित् ॥ चतुर्वर्गफलां नित्यं जैनीं वाचमुपास्महे । रुपैदादशभिर्पिश्यं यथा नाट्ये धृतं पथि ॥ १ ॥
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('नाट्यदर्पण: रामचन्द्र गुणचन्द्र)
"बंध - मोक्ष की यथार्थ व्यवस्था जिस दर्शन में यथास्थित कही गई है वही दर्शन मोक्ष का निकटतम कारण है। इस यथार्थ व्यवस्था को कहने योग्य यदि हम किसी को विशेष रूप से मानते हैं, तो वह श्री तीर्थंकर देव ही हैं।
श्रीमद् राजचंद्रजी "वे ( श्रीमद् राजचंद्रजी ) मुझे कहते थे कि, जैनधर्म के प्रति मेरा परिपूर्ण आदरभाव है, क्योंकि जिनागम साहित्य में आत्मज्ञान की पराकाष्ठा है ।
महात्मा गांधीजी
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