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Second Proof DL 31-3-2016 - 14
• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
पुण्योदय । दूरस्थः काल-दृष्टि से 2500 वर्ष पूर्वस्थ एवं क्षेत्र-दृष्टि से ऊर्ध्वलोकस्थ ऐसे 'महतोऽपि महीयान' महामानव महावीर का महावीरवत् प्रतिरूप हमने इन दोनों में अंश रूप में - लघु रूप में देखा है। महावीर महान हैं, निस्सन्देह महान हैं, महासिद्ध हैं, पर वे अब दूर हैं... बहुत दूर... पहुँच के बाहर ऊपर सिद्धालय में...! वे सागर-महासागरवत् हैं, परन्तु उनसे ही निर्मल शीतल जल पाये हुए ये दोनों परमपुरुष छोटे-से जलकलश रूप ही सही, निकट हैं, हमारी अंतस्-तृषा मिटाने में, हमें हाथ पकड़ कर ऊपर उठा ले जाने में अपनी अंगुलि पकड़वाकर महावीर का दर्शन-अंतर्दर्शन, प्रतिदर्शन-परिदर्शन पूर्णरूप से कराने में समर्थ हैं। कौन हैं ये परमपुरुष ?
एक तो इस काल में, इस क्षेत्र में महावीरवत् महावीर का-सा ही साधना जीवन (उदयानुसार बाह्यदशा भिन्न होते हुए भी अंतर्भावदशापूर्वक, अप्रकट, गुप्त, मौन रूप से) जीनेवाले, उनकीसी ही अंतर्ध्यान-आत्मसातत्य की अप्रमाद-युक्त आराधना अपनाये हुए, परम ज्ञानावतार युगप्रधान, निष्कारण करुणावंत परमकृपालुदेव श्रीमद् राजचन्द्रजी... । विमला ताई के शब्दों में उनके आत्मजागृत जीवन में "पलभर का भी प्रमाद और रत्तीभरका भी असत्य नहीं था।"
और दूसरे हैं - श्रीमद्जी को ही अनन्यभाव से समर्पित, स्वयं मुनिवेश एवं देव-प्रदत्त "युगप्रधानपद" - धारक होते हुए भी प्रभुश्री लघुराजजी वत् लघुताधारी, अहंशून्य, विनम्रतामूर्ति ऐसे योगीन्द्र श्री सहजानंदघनजी-भद्रमुनि ।
एक महावीरवत् ही आत्म-सम्पदा-बीज सम्पन्न, उदयाधीन अवशिष्ट कर्मयोगी गृहवासी-रल व्यापारधर्मी, 'अपूर्व अवसर' आकांक्षी, 'आत्मसिद्धि' - संप्राप्त ऊर्ध्वरेता-जिन्होंने बीच बीच में महावीरवत ही कुछ वनप्रदेशों, ईंडर आदि पहाड़ियों में एकाकी मौन ध्यानपूर्वक विचरण कर बाहरीभीतरी अंतर्गुफाओं में प्रवेश कर, समाधिस्थ बन, महावीर के अंतस्-स्वरूप की आत्म चेतना को प्राप्त किया। प्रायः गुप्त और अप्रकट रहकर गांधीजी, लघुराजजी, सौभागजी, अंबालाल, जुठाभाई आदि थोड़े ही 'अधिकारी' जनों को वह आत्म-चेतना प्रदान कर तैंतीस वर्ष की अल्पायु में ही 'बीजकेवली दशा' प्राप्त कर, आत्मस्वरूप में लीन होकर, उन्होंने महाविदेह क्षेत्र को प्रयाण कर दिया - पूर्ण परमपद-प्राप्ति की आगामी यात्रार्थ । ___ दूसरे, महावीर और श्रीमद् दोनों के पचिह्नों पर चलने, युवावस्था से ही, स्वयं पूर्वजन्म-साधना के अंतरादेशानुसार, "सर्वसंगपरित्यागी" प्रथम मुनिदीक्षाधारी एवं पश्चात् गिरिकंदरा-गुफावासी। इन दोनों के एक एक पद, एक एक वचनामृत, महावीर बोध की ही प्रतिछाया रूप हैं।
इस पंक्तिलेखक अल्पात्मा के लिये तो प्रथम सत्पुरुष थे ध्यानगम्य पूर्वजन्म-परोक्ष (पर जन्मजात परिचित-से !) और दूसरे वर्तमान जन्म-प्रत्यक्ष (अल्प-कालखंड के लिये भी सही !) दोनों की अनुभूति-प्रतीति-लक्ष्यधारा ने हम जैसे अल्पज्ञों को भी परिप्लावित कर दिया। अपनी छोटी-सी धारा को बढ़ा दिया ।