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महापीर दुनि-मरापीर कथा की पश्चाद भूमिका :
अंतर्लोक में महावीर का महाजीवन
प्रेरणा के परिबल एवं परम आलंबन परमगुरु
• पूर्व संस्कार
परिवार संस्कार परमगुरु संग-सत्संग का परम आलंबन परिदर्शन : अंतर्लोक में ध्यान, बहिर्लोक में अप्रमत्त प्रतिदर्शन परिशीलन ग्रंथों का : उन्मुक्त गुणग्राही तुलना-चिंतन सह प्रवास पदयात्राएँ, विद्यायात्राएँ, क्षेत्र-संस्पर्शना, तीर्थयात्राएँ, भ्रमण परा-अपरा विद्याध्ययन : गुरुकुलों विश्वविद्यालयों में शांति निकेतनादि
परिसृजन : प्रथम : 'महावीर दर्शन' का : पंथमुक्त महावीर मूल की खोज • प्रस्तुति-विशाल विश्वफलक पर : रिकार्ड रूप, प्रत्यक्ष "कल्पसूत्र" - प्रवचन-स्वाध्याय रूप . एवं कथा-रूप में। "तुं गति तुं मति आशरो, तुं आलंबन मुज प्यारो रे..... गरवा रे गुण तुम तणा श्री वर्धमान जिनराया रे....." . - उपाध्याय यशोविजयजी के ये परा-शब्द, "ते त्रिशला तनये मन चिंतवी, ज्ञान विवेक विचार वधार.. - श्रीमद् राजचन्द्रजी के ये प्रेरक-शब्द, "महावीर स्वामी, नयनपथगामी भवतु मे..." - श्री भागेन्दु के ये अंतर्ध्यान-शब्द, "आलंबन हितकारो, प्रभु तुज ।" - श्री. सहजानंदघनजी-भद्रमुनि के ये परम आलंबन शब्द, एवं ऐसे कई परा-वाणी के शब्द मेरे अंतर्गान के प्राथमिक विषय बने । फिर उन शब्दों के अर्थों, भावों, अनुचिंतनों की मेरी अंतर्-ध्यानसंगीत की सरिता बही - ॐकार की दिव्यध्वनि की - और वह ले चली एक पूर्ण आलोकमय परमपुरुष के पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ ध्यानों के पार के एक महासागर की ओर.....शब्दों, नादों, रूपस्थ सीमाओं के पार अ-शब्द, नीरव-नाद, रूपातीत 'शुध्ध-बुध्ध-चैतन्यधन स्वयंज्योति स्वरूप' का वह महासागर था - अभूतपूर्व परमदृष्टा, पूर्णपुरुष प्रभु महावीर के अनन्य, अनुपमेय महाजीवन का!
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