________________
Second Proof Dt. 31-3-2016 5
परमगुरु संग सत्संग का परम आलंबन :
इस शोध में पूज्य पिताजी के द्वारा ही प्रथम परिचय हुआ मुनिश्री भुवनविजयजी (आचार्य श्री भुवनरत्नसूरि ) - योगनिष्ठ आ. श्री केसरसूरिजी के शिष्य जैन मुनि का, जिन्होंने अपने प्रभावपूर्ण प्रवचनों और श्रीमद्जी-आनंदघनजी दोनों के मस्तीभरे पदगानों के द्वारा इन दोनों का आतम - रंग हम पर एक नशे-का-सा चढ़ा दिया। इन तत्त्वपूर्ण पदों ने विराट महावीर जीवन और अद्वितीय तत्त्वबोध को पाने की जिज्ञासा बढ़ा दी ।
सद्गुरुओं के संग सत्संग के द्वारा यह जिज्ञासा धारा फिर अनेक रूपों में बहती विकसित होती गई । मुनिश्री संतबालजी "संतशिष्य" नानचंद्रजी, 'नादानंद' बापूरावजी, आचार्य विनोबाजीबालकोबाजी, चिन्नम्मा माता और परमोपकारक प्रज्ञाचक्षु डो. पंडित श्री सुखलालजी, आचार्य गुरुदयाल मल्लिकजी, आचार्य पूर्णानंदसूरिजी - विमलसागरजी निर्मलसागरजी, उपाध्याय अमरमुनिजीमुनिश्री सुशील कुमारजी, साध्वीश्री मृगावतीजी निर्मला श्रीजी, आर्थि का ज्ञानमती माताजी, श्री.जे. कृष्णमूर्ति एवं विदुषी विमलाताई, आदि आदि निकटस्थ दूरस्थ, स्मृत-विस्मृत अनेक खोजी सत्पुरुष1 महावीर के महत् पुरुष पंथ पर चलने वाले । इन सभी के अंत में फिर सर्वाधिक प्रभावपूर्ण उपकारक 'सद्गुरु रहे यो युगप्रधान श्री सहजानंदघनजी एवं आत्मा जगत्माता माताजी धनदेवीजी, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम हम्पी (कर्णाटक) के अधिष्ठाता ।
-
-
• महावीर दर्शन - महावीर कथा
उन्होंने हमारे जन्मजात, पूर्वोक्त, परमोपकारक परमगुरु श्रीमद् राजचन्द्रजी के प्रति ही अपना जीवन समर्पण कर रखा था स्वयं महावीरवत् ही इस काल में महावीर पथ पर बाह्यांतर दोनों
-
रूपों से, अक्षरशः ही चलनेवाले "अप्पणाणेण मुणि होई" के आचारांग सूत्र एवं "आत्मज्ञान वहाँ मुनिपना" के आत्मसिध्धि-प्रतिमानों के अनुसार सच्चे मुनि होते हुए भी ! लघुता में प्रभुताई से भरे इस अहं शून्य समर्पित मुनिश्रेष्ठ का अंतर्भाव था -
-
"अनन्य आत्मशरण-प्रदा सद्गुरु राज विदेह । पराभक्तिवश चरण में, धरं आत्मबलि एह ।"
इस गुप्त, मान- विलुप्त सत्पुरुष- सद्गुरुदेव के स्व-लिखित " उपास्यपदे उपादेयता", "अनुभूति की आवाज़", समझ-सार, आनन्दघन पदविवेचन, सहजानंद-सुधा, सहजानंद पत्रावली, परमगुरु प्रवचन- श्री कल्पसूत्र प्रवचन, दशलक्षण धर्म प्रवचन (अंतिम तीन स्वरस्थ ) आदि विशेष दृष्टव्य हैं। फिर उन पर लिखे गये इस पंक्ति लेखक के "दक्षिणापथ की साधनायात्रा", "श्री सहजानंदघन गुरुगाथा " 1 Mystic Master आदि एवं श्री भँवरलालजी नाहटा लिखित 'सिरि सहजानंद चरियं" (प्राकृत हिन्दी), आदि पुस्तक भी कुछ अधिक कहेंगे। परन्तु एक पद में प्रस्तुत उनका यह आत्मपरिचय भी सांकेतिक है -
"नाम सहजानंद मेरा नाम सहजानंद.....
"
अगम देश, अलख नगर वासी में निर्द्वद ।" (सहजानंद सुधाः १२४ )
(5)