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Second Proof D.31-3-2016.69
• महावीर दर्शन - महावीर कथा •
(F)
“રોકે જીવ સ્વચ્છન્દ તો, પામે અવશ્ય મોક્ષ;
पाभ्या टोम मत छे, माण्युं दिन निप." (आत्मशिधि 15) (प्र. M) स्वच्छन्द का फंद छोड़कर और 'सद्गुरु लक्ष' अपनाकर समकित और मोक्ष पाया जा सकता है ऐसा शिष्य के लिये आवश्यक बतलाकर भगवंत मानो डंके की चोट पर उसे आदेश देते
(घोष M) "गुरुणाम् आज्ञा अविचारणीया" (प्र. F) सद्गुरु-आज्ञा को शिरोधार्य करने में विचार न करें और 'तहत्ति' कहकर व्यवहार करें। (प्र. M) तो दूसरी ओर, सुविनीत शिष्य के ऐसे विनय का अनुचित लाभ उठाने वाले असद्गुरुओं के कथित गुरुओं-कुगुरुओं की भाँति) लालबत्ती बतलाते हुए प्रभु झाड़ते-फटकारतेझकझोरते हैं - (श्लोक-गान M) "असद्गुरु इस विनय को, लाभ लहे जो बिन्दु । महामोहनीय-कर्मसों, चल्यो (डूबत) जाय भव-सिन्धु ॥"
(सप्तभाषी 21) (F) "सगुरु से विनयनो, लाल हे sis;
मामालनीय भथी, जूडे AARTwieी." (मानसिक 21) (प्र. F) कितनी महिमा शिष्य के विनय की और सद्गुरु की सजगता की ! (प्र. M) अन्यथा जैसा कि देखा जाता है, "गुरुलोभी शिष्य लालची, दोनों डूबे साथ ।" - इसीलिये तो परवर्ती, वर्तमान काल के सुचिंतकों को छेद उड़ाना पड़ा है सारे 'गुरुडम' (GURUDOM) का, गुरुड़म की बोलबाला का !! (पर यह दूसरी ओति है, सम्भावना हैं।) प्र. F) दूरदर्शी, त्रिकालज्ञानी भगवान महावीर को सर्व काल में आनेवाली ऐसी सारी ही सम्भावनाओं का ज्ञान था, स्पष्ट पूर्वदर्शन था, दोनों बाजुओं के भयस्थानों का अनुमानआकलन था। (प्र. M) इसीलिये तो उन्होंने अपने साड़े-बारह वर्ष के छद्मस्थ और तीस वर्ष के धर्मतीर्थप्रवर्तनसमय को मिलाकर बयालीस वर्ष के कलिखंड के अंतिम पड़ाव पर आकर, विश्व-विदा से पूर्व विनय-महिमा की यह महती देशना-वाग्धारा बहाई।। (प्र. F) प्रभु का जीवन-समापन निकट देखकर और उनके जन्मनक्षत्र में दो हज़ार वर्ष तक रहनेवाले 'भस्मराशि' नामक ग्रह को संक्रान्त होता देखकर, प्रभु के परम भक्त शक्रेन्द्र अत्यंत चिंतित हुए। (प्र. M) शक्रेन्द्र ने सोचा कि, "यदि यह क्षुद्र भस्मराशि ग्रह इतने दीर्धकाल तक प्रभु के जन्मनक्षत्र में रहेगा तो उतना समय उनके साधु-साध्वी संघ के पूजा-सत्कार उत्तरोत्तर वर्धमान नहीं होंगे..... उनके महान शासनतीर्थ का विकास-विस्तार नहीं होगा।"
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