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Second Proof Dt. 31-3-2016 53
• महावीर दर्शन महावीर कथा
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"શુધ્ધ બુધ્ધ રીતન્યવન, સ્વયં જ્યોતિ સુખધામ; બીજું કહીએ કેટલું, કર વિચાર તો પામ."
( आ.सि. 117)
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(प्र. F) ( परंतु ) निजधाम का उनका यह ध्यान कोई 'खाला का खेल' नहीं था। बातों का, शुष्कज्ञान भरा, कोरा अध्यात्म नहीं था 1
(प्र. M) वह तो संतुलन और संमिलन था निश्चय और व्यवहार का, उपादान और निमित्त का। इसी स्वस्थ, समन्वित भाव से वे सदा, सर्वत्र, सभी सानुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच से, अपने इस स्वयंज्योति आनंदधाम- निजधाम का ध्यान लगाते हुए, उसी ध्यानदशा में रहते हुए निहारते रहे, देखते रहे, दिखलाते रहे, केवल एक आत्मा को, सहजात्मा को शुद्धात्मा को, सिद्धात्मा को सभी साधनाओं के बीच, सभी विचरणों के बीच बस एक ही लौ, एक ही रटना, एक ही संज्ञान : आत्मा... आत्मा... आत्मा... !
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( गान : S CH) "मैं तो आत्मा हूँ, जड़ शरीर नहीं ।" (सहजानंदधनजी भक्ति कर्तव्य ) "हुं तो आत्मा धुं, ४७ शरीर नथी. "
"हम ऐसे देश के / आतम-देश के वासी हैं, जहाँ राग नहीं और द्वेष नहीं, जहाँ मोह नहीं और शोक नहीं, जहाँ भेद नहीं और खेद नहीं;
जहाँ भरम नहीं और चाह नहीं, हम ऐसे देश के वासी हैं/ आतम देश के वासी हैं।
इस देश के सिर्फ प्रवासी हैं, हम सिद्धदेश के/ महाविदेह के / सिध्धालय के / सिद्धलोक के/ सिध्धशिला के वासी हैं, हम आतमदेश के वासी हैं- सिध्धात्म देश के बासी हैं । (संकलित ) (प्र. F) जिस आत्मप्रदेश में आत्मलोक के जिस ऊर्ध्वाकाश में अप्रमत्तरुप से प्रभु विहार संचार कर रहे थे, जिस आत्मा को पहचानने और संपूर्ण समग्रता में पाने के लिये वे चले थे, वह अब करीब करीब उनकी पहुँच के भीतर ही था - - (Dhin Instrumental)
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(सूत्र-प्रतिघोष : गान) "सच्चिदानंदी शुद्धस्वरूपी, अविनाशी मैं आत्मा हूँ (२)"
"हम मगन भये निजध्यानमें" ।
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(प्र. M) यह वही भाव था, वही ध्यान का सागर था, जिसकी अतल गहराईयों से वे कष्ट सहन के, क्षमा के एवं निरपेक्ष स्नेहकरुणा के अनमोल मोती ले आये थे
(Sound of Sea Weaves Effect) (प्र. F) अन्यथा ऐसे घोर कष्ट, परिषह और उपसर्ग वे कैसे सह सकते थे ? (प्र. M) ऐसी कठोर, सुदीर्घ साधना वे आनंदमय कैसे बना सकते थे ?
(प्र. F) वे तो डूबे रहे, खोये रहे बिना किसी विकल्प के, बिना विभाव के अपने विशुद्ध आत्मध्यान में