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Second Proof Dt. 31-3-2016 54
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• महावीर दर्शन
(प्र. M) खड़े हुए भी, बैठे हुए भी, चलते हुए भी सर्वत्र सजग, सर्वत्र अंतरस्थित, सर्वत्र उपयोगवन्त जयं विडे, जयं चरे... !'
(प्र. F) विशुद्ध आत्मध्यान घोरातिघोर उपसर्गों के बीच आत्मध्यान जिसमें
( गान M) "एक परमाणुमात्र की मिले न स्पर्शना, पूर्ण कलंकरहित-अडोल स्वरूप रे; शुध्य निरंजन चैतन्यमूर्ति अनन्यमय अगुरु-लघु, अमूर्त, सहजदरूप है।" (श्रीमद् राजचंद्रजी; अपूर्व अवसर )
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महावीर कथा
(प्र. M) ऐसे उपसर्गो परिषहों तपस्याओं के साथ साथ चले और पले अक्षय धारावत् ध्यान को मानव इतिहास ने एक ही साथ अक्षय धारावत् और इतनी विशाल संख्या में न कहीं देखा है, न सुना, न दर्शाया ! बेजोड़, अद्वितीय, अनुपमेय, अभूतपूर्व !!
(प्र. F) बाहुबली, गजसुकुमाल महामुनि, स्कंधक मुनि, आदि आदि के ऐसे घोर उपसर्गमय ध्यान भी थोड़े ही या अल्पावधि के ही ! ( थे)
(प्र. M) दिल दहल उठता है, रोंगटे खड़े हो जाते हैं, अभूतपूर्व अतिवीर महावीर के उन घोरातिघोर उपसर्गों, निरंतर ध्यान और अखंड तपस्याओं ('वीरस्य घोरं तपो...') का स्मरण भी करते हुए ! (प्र. F) शूलपाणि यक्ष के रातभर के उत्पातों-उपसर्गों और प्रभु के प्रभात काल के १० स्वप्न । ( + पूर्वकथा )
(प्र. M) चंडकौशिक के दंशोपसर्ग के बीच "बुज्झ, बुज्झ !" के माधुर्य द्वारा जन्मांतरों की जातिस्मृति का उसे प्रदान ।
(प्र. F) चौराक के पहरेदारों, राद्देश के अनार्यलोगों, कृपय के ग्रामजनों के प्राणांत कष्ट... । (प्र.M) इढ़भूमि के (उपसर्ग) पेढ़ाल उद्यान में संगमक देव के, मेरु को भी तोड़नेवाला खरवीत, कालचक्र, पवनवातचक्र एवं सिंह आदि के २० बीस उत्कृष्ट मरणांत उपसर्ग... !!
(प्र. F) लाटदेश में कठिन कर्मों को तोड़नेवाले हिलना के उत्पात ।
(प्र. M) शालशीर्ष ग्राम में ध्यानमध्ये त्रिपृष्ठभव की अपमानित राणी कठपूतना व्यंतरी के लोकावधिज्ञान,प्रकटकर्ता शीतजल उपसर्गो । ग्वाले द्वारा छह माह भीतर रहे कानों में ठोके गये - शरकट वृक्ष के कीलों ।
(प्र. F) सुभटों द्वारा ध्यानस्थ प्रभुचरणों में अग्निज्वालाएँ और कृतघ्नी गोशालक द्वारा छोड़ी गई तेजोलेश्याएँ.... |
(प्र. M ) अच्छन्दक जैसे पाखंडी ज्योतिषियों के पर्दाफाश......
(प्र. F) पुष्य जैसे निमित्तज्ञ सामुद्रिकों की प्रभुमहिमार्थ इन्द्र द्वारा सहायताएँ....
(प्र. M) ऐसे तो कितकितने हज़ारों-हज़ार प्रसंगों, उपसर्गों, परिषहों, तपश्चर्याओं को सहे : सभी मनपूर्वक, समता - ध्यान पूर्वक, स्वयं गुप्त, अप्रकट रहकर, कतार के कतार, चले लगातार, जैसे वर्षा अनराधार !
अकेले, असंग, बिना अन्य आधार; केवल एक स्वात्म-शक्ति (का) पारावार !!
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