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Second Proof Dr. 31-3-2016.60
• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
(प्र. F) सर्व के मनोज्ञाता, संपूर्ण समग्र ज्ञानी, प्रेम करुणा से भरे प्रभुने अपनी मधुर वाणी बहाई... प्रथम गणधारक इन्द्रभूति गौतम कुछ पूछे उसके पूर्व ही उसके मनःप्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभुने कह दिया कि - (प्र. M) "प्रिय गौतम ! सुखपूर्वक तो आये हो न?... तुम्हारे मन में आत्मा के अस्तित्व के विषय में संदेह है न ?... परन्तु तुम तुम्हारे वेद-पदों का ही सही, सम्यक् अर्थ क्यों नहीं सोचते हो ?...उन पदों का सच्चा अर्थ यह होता है -- (प्र. F) इस प्रकार कहकर, अद्भुत, अभूतपूर्व समाधान देकर, उसके वेदशास्त्रों का ही मंडन करते हुए प्रभु महावीर ने ऐसा सर्वस्वीकार्य, सम्यक्, सरल अर्थबोध दिया कि समस्त समवसरण सभा स्तब्ध और गौतम चकित, गर्वविगलित, नतमस्तक, परास्त और मंत्रमुग्ध ! (प्र. M) संदेहरहित बने हुए गौतम ने तुरन्त ही अपने 500 शिष्यों के साथ प्रभु से दीक्षा ग्रहण कर ली । वे उनके प्रथम शिष्य, प्रथम गणधर बने । (प्र. F) प्रभु के आत्म-तत्त्वदर्शन का महाघोष-गूंज उठा समवसरण में, समस्त विश्व में, सृष्टि के कणकण में - (सूत्रघोष F) "आत्माऽस्ति, स नित्योऽस्ति, कर्ताऽस्ति निजकर्मणः । (अनुष्टुप छंद) भोक्तास्ति च पुनर्मुक्तिर्मुक्त्युपायः सुदर्शनम् ॥ (घोषगान F) "आत्मा है, वह नित्य है, है कर्ता निजकर्म, है भोक्ता अरु मोक्ष है, मोक्षोपाय सुधर्म ॥"
(सप्तभाषी आत्मसिद्धि : 43) (घोषगान CH)"आमा छ, a 'नित्य छे', 'छे saf Hrsh; 'छे मोडता' जी मोक्ष छे; 'मोक्ष पाय सुधर्म'.
(- श्रीमद् राजचंद्र आत्मसिद्धिशास्त्र143) (प्र. F) फिर संदेह थे अन्य गणधरों के : (M) "आत्मा है तो उसका स्वरूप क्या है ?... उसे देखा क्यों नहीं जा सकता ?" इत्यादि (प्र. F) प्रभु के अनेक नयों-दृष्टिकोणों-प्रमाणों से समाधान थे - (सूत्रघोष M) "जो दृष्टा है दृष्टि का, जो जानत है रूप "
अबाध्य अनुभव जो रहे वह है आत्मस्वरूप ।" (सप्तभाषी)
(" या छ हटिनो, neो छ ३५.....") (प्र. F) कुछ ऐसे समाधान उपनिषदों ने भी दिये थे और अनेकभाषी लोककवियों ने भी सरल वाणी मे व्यक्त किये थे। (प्र. M) प्रभु की सर्वस्पर्शी समग्रता और सर्वज्ञता ने विशदता से इस प्रकार आत्मा की सिद्धि करते हुए उसके नित्यत्व, कर्ता-कर्मत्व, भोक्तृत्व, मोक्षत्व एवं मोक्षोपाय सद्धर्मत्व - इन
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