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Second Proof Dt. 31-3-2016 58
• महावीर दर्शन
(प्र. F) देवों के विमान उड़े, मानवों के समूह उमड़े, पशुओं के झुंड (वृंद) दौड़े, दिव्य समवसरण खड़े हुए, अष्ट प्रतिहारी सेवा में चले, दिव्य-ध्वनि एवं देवदुन्दुभि के नाद गूँज उठे और (Soormandal)
(प्र. M: BGM Soft Celestial Instrumental) परंतु ये भी अभी थे सर्वज्ञ केवली जिन प्रभु के बाह्य वैभवातिशय... जब कि उनकी अंतस्-संपदा के अनंत अनंत ज्ञान दर्शनमय आत्मवैभव तो अभी भिन्न थे, शब्दातीत अनुभवज्ञानमय एवं अनहद-अनाहई गानमय थे ! (BEM)
( गाथागान BGM Dhoon
महावीर कथा
"जो जिन देह-प्रमाण अरु, समोसरणादि सिद्धि । जिन स्वरूप माने वही, बहलावे निज बुद्धि ॥"
ब में !!
" दिन हे प्रभाश ने, समवसरणाहि सिधि; વર્ણન સમજે જિનનું, રોકી રહે નિજ બુદ્ધિ.”
(- श्रीमह् रामचंद्र : आत्मसिध्धि 25 ) (प्र. F) प्रभु के उस अनंत आंतर्-वैभव - आत्मवैभव का स्वरूप-वर्णन तो केवल अनुभवगम्य ही ! (BGM : ह छतां लेनी हशा पर्ते हेहातीत.....)
(सप्तभाषी आ.सि. 25)
(प्र. M) बाह्यांतर निर्ग्रथ दशा में, देह होते हुए भी देहातीत दशा में जो गम्य होता था उसमें बाहरभीतर की सारी ही ग्रंथियों को सर्व संग सम्बन्धों को छेद-भेदकर, पंच प्रमादों और विषय कषायों को सर्वथा झकझोर कर शून्यशेष बनाकर, मौन - महामौन - त्रिविध मौन धारण कर, मन से तो पूर्ण मुक्त होकर प्रभु छद्यस्थ और केवलज्ञान प्राप्त दोनों अवस्थाओं में सतत, सर्वत्र आत्मदशा में ही विचरते रहे ! चरण और विचरण पृथ्वी पर होते हुए भी और देह के भीतर अंतर्पथ आकाश भी उनका दिव्य विहार तो ऊर्ध्वगगन में ! बाह्यपथ धरती पर, हुए
(58)
(प्र. F) बाह्य और आंतरिक, निश्चय और व्यवहार, इस जगत की समस्याएँ एवं परलोक के गंतव्य - किसी की भी उपेक्षा नहीं, दोनों का समन्वय 'जहाँ जहाँ जो जो योग्य है' की विवेकदृष्टि में। (परंतु ) स्वयं का लक्ष्य तो सदा ऊर्ध्व और ऊर्ध्व उस सिद्धलोक की ओर, कि जो उनका अंतिम गंतव्य है, जहाँ उन्हें अंत में पहुँचना है ! सतत वही संचरण, वही स्मरण, वही दर्शन-आत्मप्रदेश का, शुद्धात्मप्रदेश का सिद्धात्म प्रदेश का !!... उस दिव्यलोक में बहती आनंदगंगा का यहीं बस रहे अपने आत्मप्रदेश में अवतरण :
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