Book Title: Antarlok Me Mahavir Ka Mahajivan
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation

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Page 56
________________ Second Proof DL 31-3-2016 - 56 • महावीर दर्शन - महावीर कथा . (प्र. F) और फिर..... (प्र. M) ..... फिर ध्यान-लीन महातपस्वी महावीर विहार करते करते कौशाम्बी नगरी में पधारे, जहाँ प्रतीक्षा कर रही थी - (प्र. F) चन्दनबाला..... ! (प्र. M) बड़ा अद्भुत है इतिहास इस राजकुमारी का, वैशाली नगरी में बेची गई एक नारी का। ग्रंथ गवाह हैं - पांच माह पच्चीस दिन के उपवासी भविष्यदर्शी महावीर का यह अभिग्रह था कि (- प्रतिध्वनि सूत्रघोष Echo) "जब तक एक उच्च कुल की फिर भी कर्मवश दासी बनी हुई, मुंडित केश, बंदी शरीर और रोती हुई आंखोंवाली अबला हाथों में उडद लिये भिक्षा देने द्वार पर प्रतीक्षा करती न मिले, तब तक वे किसीसे भिक्षा नहीं लेंगे।" (-कल्पसूत्र) (प्र. F) वही नारी थी - (गीत F) (राग-मिया मल्हार : मिश्र : बसन्त, त्रिताल)"चन्दनबाला ! तेरा अद्भुत है इतिहास (गीत M) इस इतिहास के पृष्ठ पृष्ठ पर (F) प्रगटे दिव्य प्रकाश... ॥ चन्दनबाला..... । (गीत F) एक दिन थी तू राजकुमारी, राजमहल में बसनेवाली दासी होकर बिक गई पर, बनती ना उदास... ॥ तेरा... चन्दनबाला ... । दुःखों का कोई पार न आया, फिर भी अड़िग रही तुज काया । कर्म (काल) कसौटी करे भयंकर, फिर भी भई न निराश ॥ तेरा... चन्दनबाला। वीर प्रभु को दे दी भिक्षा, प्रभु ने भावी में दे दी दीक्षा । . .. (M) श्रध्दा के दीपक से दिल में (2) (F) कर दिया दिव्य-प्रकाश ॥ तेरा... चन्दनबाला। (प्र. F) चन्दनबाला जैसी अनेक महिलाओं को उबारते एवं गोशालक जैसे उपसर्गकर्ताओं को क्षमा करते और अनेक उपसर्गों की कतारों को पार करते करते ध्यानलीन तपस्वी महावीर अपने आत्मध्यानमय निग्रंथ जीवन के साड़े बारह वर्षों के पश्चात्... एक दिन... आ पहुँचे अपनी उद्देश्यसिद्धि, अंतिम आत्मसिध्धि के द्वार पर (Soft Divine Music : Vibro +) (प्र. M) (Deeply Eestic rendering) वह ढ़लती दोपहरी... वह ज़म्भक ग्राम , .. (Pictorial Words) वह ऋजुवालुका नदी... वह खेत की श्यामल धरती..... और वही शाल का वृक्ष..... ! (Celestial Soft Instrumentel Music) (प्र. F) इसी... बस इसी शालवृक्ष के नीचे, गोदोहिका आसन में, 'पृथक्त्व वितर्क विचार' के पराकोटी के शुक्ल ध्यान में लीन निर्ग्रन्थ महावीर...! (गान पंक्ति BGM) "भिन्न हूँ, सर्व से, सर्व प्रकार से... भिन्न हूँ।" (सहजानंदघनजी) (56)

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