________________
Second Proof Dt. 31-3-2016 12
• महावीर दर्शन
-
अंतिमा :
अंत में, इस प्रकार विशाल विश्व स्तर पर महावीर दर्शन महाजीवन कथा प्रस्तुत करने जाते समय हमें थोड़ा-सा विनम्र प्रतिपादन करना है। हमारी स्वयं की इस सृजन की पश्चाद्भूमिका स्पष्ट करते हुए और हमारे भीतर के "अंतलॉक में विराजित सर्वज्ञ सर्वदर्शी, सर्वस्पर्शी महाष्यानी महावीर" की स्वल्प झलक का प्रकट प्रतिदर्शन कराते हुए, सार-संक्षेप के रूप में, हमें जो कहना है वह यह है :
महावीर कथा
हम अल्प होते हुए भी महावीर, महावीर की अंतर्चेतना, महावीर की महाध्यान- सम्पदा, महावीर की आत्मज्ञान- केन्द्रित अलख अलौकिक अनन्य-अद्वितीय साधना हमारे लिये सब कुछ है, आदर्श रूप है। महावीर दर्पण में, महावीर के दर्शन-प्रतिदर्शन में, हमें अपना-अपनी सिद्ध समान शुद्धात्मा को देखना है। वे ही हमारे गति-मति हैं, वे ही हमारे आश्रय-आलंबन -
-
"तू गति, तू मति, आशरो, तू आलम्बन मुज प्यारो रे; 'वाचकयश' कहे माहरे, तू जीव जीवन आधारो रे...... गरवारे गुण तुम तणा श्री वर्धमान जिनराया रे
सुणतां श्रवणे अमी झरे, मारी निर्मल थाये काया रे " ( यशोविजयजी)
ऐसे निर्मलता प्रदायक, जीव जीवन आधार रूप हैं महावीर । (ये) महाकरुणावंत महालोकालोक प्रकाशक, महाध्यानी- महाज्ञानी महा तपस्वी महावीर का जीवन-मध्यवर्ती केन्द्र, मर्मरहस्य, सर्वोपरि साध्य क्या था ? आत्मा ! अनंत वीर्य आत्मा !! सर्वकाल सर्व समयों का सार आत्मा !!! इस आत्म-केन्द्रित ध्यानमय अप्रमत्त आराधना थी उनका पुरुषार्थ - साधना । ऐसे सत् पुरुषार्थ सतत सजग पुरुषार्थ से ही वे मानव से 'महामानव' बने । बस ये महापुरुषार्थी महावीर, मानव से महामानव और महामानव से महासिद्ध बनकर ऊर्ध्वलोक-सिद्ध लोक के सर्वोच्च सिद्धपद पर विराजित महावीर हमारे अंतर्लोक में भी सदा-सर्वदा विराजित हैं । हृदयकमल-सिंहासन-आरुढ़ ये अनंत असीम सिद्ध परमात्मा अपने वर्तमान में प्रवर्तमान प्रतिरूपों से हमें नित्य अपने संदेश- आदेशआज्ञा भेजते रहते हैं - उनके ध्यान के द्वारा एवं उनके इन वर्तमान प्रतिरूपों, प्रतिनिधियों के द्वारा उनके ऐसे अनेक प्रतिरूप, प्रतिनिधि स्वरूप हैं उन्हीं की आदेशाशा आरूढ़, उन्हीं के पदचिह्नों पर सतत अप्रमत्त सत्-पुरुषार्थ लिये चली हुई कुछ सिध्धसमान धन्य आत्माएँ, जिनके सिध्ध-स्वराजमय संगीत - साज से यह दिव्यध्वनि झंकृत होती रहती हैं:
"सर्व जीव हैं सिध्ध सम, जो समझे बन जाहिं ।
सद्गुरु आज्ञा, जिनदशा, (दो) निमित्त कारण मांहि ॥"
(12)
(- श्रीमद् राजचन्द्र : आत्मसिध्धि शास्त्र 135 )