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Second Proof DL31-3-2016.48
• महावीर दर्शन - महावीर कथा .
(गीतपंक्ति -M)
"वैभव में वह बसते हुए भी जलकमल की भाँति रहे;
भोगी होकर भी योगी की भाँति, रागी होकर भी विरागी रहे।" (प्र. F) इसी आदर्श के अनुसार, भोग को रोग की भाँति भुगतकर, बीत रहे उनके गृहस्थाश्रम के दौरान उनके घर पुत्रीरत्न 'प्रियदर्शना' का खेलना, गृहस्थधर्म निभाते हुए पत्नी-पुत्री को स्वयं के भावी विरागी जीवन को लक्ष्य कर धर्म-मार्ग पर सुदृढ़ और तैयार करना ... और माता-पिता का स्वर्ग सिधारना - इन सभी अनुकूल-प्रतिकूल घटनाओं में भी महावीर का आत्मचिंतन निरंतर चलता रहता है - (प्रतिध्वनियुक्त गीतपंक्ति) (M) "मैं कौन हूँ? मैं कौन हूँ? कोऽहम् ? कोऽहम् ? मैं कौन हूँ? आया कहाँ से ? क्या स्वरूप है मेरा सही ? मैं कौन हूँ?
(- श्रीमद् राजचंद्रजी : "अमूल्य तत्व विचार") (हुं कोण छु ? क्याथी थयो ? शुं स्वरूप छे मारं खरं ? हुं कोण छु ?)(प्र. F) तीव्रता पकड़ते हुए इस आत्मचिन्तन के प्रत्युत्तर में उन्हें लंबे अर्से से पुकारती हुई वह आवाज़ (भीतर से) सुनाई देती है, वह आवाज़, वह कि जिस में एक मांग है, एक बुलावा है, एक निमंत्रण
है
(प्रतिध्वनि घोष-M) "जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ।" जो एक को, आत्मा को जान लेता है, वह सब को, सारे जगत को जान लेता है ..... ! आ, और अपने आप को पहचान, अपने आप को पा...।" (Soormandal : Celesteal MasD Instrumental Echoes) (प्र. F) और इसे सुन वे तड़प उठे हैं। उनकी छटपटाहट जाग सठती है। इस आवाज़ का वे उत्तर देना चाहते हैं, स्वयं को खोजना और सदा के लिए पाना चाहते हैं - (प्र. M) ना, वैशाली के राजमहल में अपनी इस आत्मा को पाया नहीं जा सकता ....!
(Soormandal) (प्र. F) और इस के लिए एक ही मार्ग था - "सर्वसंग परित्याग"... भीतरी भावदशा से भरे इस वीरोचित सर्वसंग परित्याग के अवसर की ताक में वे तरसते रहे..... (प्रतिध्वनि गीत-M) "अपूर्व अवसर (2) ऐसा आयेगा कभी ? “અપૂર્વ અવસર એવો ક્યારે આવશે ? कब होंगे हम बाह्यांतर निग्रंथ रे ?
ક્યારે થઈશું બાહ્યાંતર નિગ્રંથ જો; सर्व सम्बन्ध का बंधन तीक्ष्ण छेदकर, સર્વ સંબંધનું બંધન તીક્ષ્ણ છેદીને, कब विचरेंगे महत्पुरुष के पंथ रे ? अपूर्व." वियरशुं महत् पुरुषने पंथ ले !"
(श्रीमद् राजचन्द्रजी । अनु. 'निशान्त')
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