Book Title: Antarlok Me Mahavir Ka Mahajivan Author(s): Pratap J Tolia Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation View full book textPage 9
________________ Second Proof DL.31-3-2016." • महावीर दर्शन - महावीर कथा • पावन-धरा स्वयं परमात्मा के पवित्र देह परमाणुओं के भस्मकणों के उपरान्त ऐसे ही कुछ समाधिमय देहविलय के पावन परमाणुओं से भी धूलि-घूसरित एवं धन्य बनी हुई थी। वह रोम-हर्षक घटना जो इसी जलमन्दिर की धरती पर घटी थी वह थी १९७५ के इस २५०० वे वीरनिर्वाण से ठीक २२ वर्ष पूर्व की-अगस्त १९५३(श्रावण-शुक्ला १०, बुधवार, वि.सं. २००७) की। वह असामान्य घटना थी प्रभु महावीर के ही पचिह्नों पर चलनेवाली, "देह विनाशी मैं अविनाशी" की आत्मभावना की धुन को पूर्णतः साकार करनेवाली एक आत्मदृष्टा जैन साध्वी के निराकार परब्रह्म के साक्षात्कार-शुध्ध बुध्ध स्वयंज्योति आत्मा के साक्षात्कार के उपरान्त संप्राप्त समाधि मरण की, 'मृत्यु महोत्सव' की। इसी जलमन्दिर पर "मैं अविनाशी" की धुन के पश्चात् हमने श्रीमद् परमगुरु-प्रदत्त "आतमभावना भावतां जीव लहे केवल ज्ञान रे" की दूसरी धुन और तत्पश्चात् महायोगी आनन्दघनजी प्रदत्त "अब हम अमर भये न मरेंगे" की तीसरी धुन जो प्रस्तुत कर जमायी थी, उन्हीं धुनों को हम से कईगुना आत्म-मस्ती में जमाया-आद्यान्त दोहराया था और परम हंस दशा की, शुध्धात्मा की, सिध्धात्मा की प्रभु वीर की अंतर्दशा का मानों आधार-आलंबन-सी आत्मावस्थाभरी समाधि-मृत्यु को पाया था - उस साध्वी श्री सरला ने ! तब उसके अंतर्लोक में था प्रभु महावीर प्राप्त आत्म-ध्यान का आदर्श और बहिर्जगत् में था श्रीमद्सद्गुरु की "आतमभावना" धुन के प्रत्यक्ष-प्रदाता सद्गुरु श्री सहजानंदघनजी का सान्निध्य !! महाभाग्यवान भी कैसी स्वनाम-धन्या यह साध्वी सरलात्मा श्री सरला, कि जिसने आत्मभाव को भाते हुए, अपने सद्गुरु के सन्मुख ही एवं प्रभु महावीर की इस पावन परमाणु धरा पर ही अपना देहत्याग किया ! उनके इस मंगल मृत्यु महोत्सव पर उन्हें अभिवन्दना करते हुए उनके ही इस सद्गुरु ने भी लिखा था0"जिस देह को अवतारी पुरुष भी कायम नहीं रख सके उस देह को ये क्षुद्र-पामर जीव कैसे स्थायी रख सकते हैं? वह जब-तब और जहाँ-तहाँ वस्त्र की भाँति देह से अलग होता है । उसमें सरला ने तो महान योगी पुरूषों की भाँति आत्म-स्थिति जागृत कर देह छोड़ा है। सम्यग् दर्शन जिसकी आत्मा में प्रकाशित हुआ था ऐसी श्री सरला की आत्मा को आत्मभावना से उल्लसित प्रेम से नमस्कार हो । नमस्कार हो !" - यो.यु.श्री सहजानंदघनजी : 19-8-1953 को लिखित पत्र में । इस सम्यग् दर्शन-आत्मदर्शन को अपनी आत्मा में प्रकाशित करनेवाली की समाधि-मृत्यु एवं इसी आत्मदर्शन को परिपूर्ण रूप से सिध्ध और सु-प्रकाशित करनेवाले परमात्मा महावीर के परिनिर्वाण से सम्बन्धित जलमन्दिर के प्रभु चरणों की धन्य-धरा पर मैं पहुंचा था । अपनी ध्यानसंगीत-धुनध्यान की अंतर्यात्रा आरम्भ करने से पूर्व उस दीपावली की रात्रि को इन महान आत्माओं और अपने परमगुरुओं की प्रेरक आत्माओं का स्मरण-वन्दन किया था । इन सभी आत्म-वैभव संपन्न महान् (9)Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 98