Book Title: Anekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 11
________________ ४, वर्ष २८, कि०. अनेकान्त है। दार्शनिक विषयों के निरूपण में ये अमृतचन्द्र का शुद्ध नय की अपेक्षा जीव को कमों से अस्पृष्ट माना अनुसरण करते हैं और उनकी वृत्ति का भी उपयोग करते हैं। इनका समय बारहवीं शताब्दी के द्वितीय चरण के "ओवे कम्मं बद्धं पुष्ठं चेदि ववहारणयाणवं। पासपास है। प्रभातचन्द्र कृत "सरोज भास्कर" पवयण सुधणयस्स दुजोवे प्रबद्धपुटठं हवा कम्मं ॥ सार की तीसरी टीका है। उसकी रचना समयसार की व्यवहार नय की अपेक्षा जीव कर्मों से स्पष्ट है, शुद्ध बालचन्द्र कृत टीका के पश्चात् हुई है। इनका समय नय की अपेक्षा तो उसे प्रबद्ध और प्रस्पष्ट समझना चौदहवीं शताब्दी का है। मल्लिषेण नामक किसी दिगम्बर चाहिए। ने इस पर संस्कृत में टीका लिखी थी, ऐसा माना जाता कर्म भाव के नष्ट हो जाने पर कर्म का फिर से उदय है। इनके अलावा वर्षमान ने भी एक वृति लिखी है। नही होता: हेमराज पाण्डे (वि० सं० १७०६) ने हिन्दी में बालावबोध पक्के फलम्मि परिव जहः ण फलं यज्झबे पुणों विहे। लिखा है, इसका प्राधार अमृतचन्द्र की टीका है। जीवस्स कम्मझावे पडिदे ण पुणोदयमवेह ॥ ३. समयसार: जेसे पक्के फल के गिर जाने पर फिर अपने डंठल से समयसार कुन्दकुन्दाचार्य को जैन शौरसेनी में पद्य में यक्त नही होता, वैसे ही कर्मभाव के नष्ट हो जाने पर रचित एक महत्वपूर्ण कृति है। इसकी दो वाचनाए मिलती फिर से उसका उदय नहीं होता। हैं"। प्रथम में ४१५ पद्य है तथा द्वितीय में ४३६ है। २९ है। टीकाएं: समयसार पर अमृत चन्द्र ने 'प्रात्मख्याति' ममतचन्द्र ने समग्र कृति को ६ विभागो में व्यक्त नामक टीका लिखी है। इसमें २६३ पद्य का एक किया है। प्रथम ३८ गाथानो को पूर्व रंग कहा है। कलश है। कुन्दकुन्दाचार्य की प्राप्त सभी कृतियों में समयसार सबसे जयसेन ने 'तात्पर्यवृत्ति'१५ नाम की संस्कृत टीका बड़ा है। जयसेन को टीका में १० अधिकार है। पहले लिखी है। इसके अलावा निम्न टीकाकार भी हैंमें स्वसमय, परसमय, शुद्धनय, मात्मभावना और सम्यक्त्व (१) प्रभाचन्द्र, (२) नयकीति के शिष्य बालचन्द्र, का प्ररूपण है। दूसरे में जीव-प्रजीव, तीसरे में कर्म-कर्ता, विशाला कीति तथा जिनमुनि। इस पर एक अज्ञातकृतक चौथे में पुण्य-पाप, पांचवें में मानव, छठे मे संवर, सातवें में निर्जरा, माठ में बन्ध, नवें में मोक्ष और मन्तिम संरकृत टीका भी है। दसवें में शुद्ध पूर्ण ज्ञान का प्रतिपादन है। ४. नियमसार: समयसार का स्वरूप प्रतिपादन करते हुए कहा है : श्री कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित यह पद्यात्मक कृति कम्म बबमबद्ध जीवं एवं तु जाण णयपखं । भी जैन शोरसेनी मे है तथा प्राध्यात्मिक विषय को लिए पक्साहिपकंतो पुण भण्णवि जो सो समयसारो॥ हए है। इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक् जीव कर्म से बद्ध है या नहीं, यह नयों की अपेक्षा से चारित्र को नियम-नियम से किया जाने वाला कार्यही जानना चाहिए । जो नयो की अपेक्षा से रहित है उसे एवं मोक्षोपाय बतलाया गया है और मोक्ष के उपाय भूत समय का सार समझना चाहिए। सम्यग्दर्शनादि का स्वरूपकथन करते हुए उनके अनुष्ठान ११. अनुवाद के साथ 'सेकरिड बुक आफ द जैन्स' सिरीज त्मक अनुवाद जैन भतिथि सेवा समिति, सोनगढ़ की में १९३० में तथा अमृतचन्द्र पौर जयसेन की पोर से १९४० में प्रकाशित हुआ है। टीकामों के साथ सनातन जैन 'ग्रंथमाला' बनारस ये १ १२. इस कलश पर शुभ्रचन्द्र ने सस्कृत मे तथा रायमल्ल और जयचन्द्र ने एक-एक टीका हिन्दी मे लिखी है। से भी १९४४ में यह छप चुका है। इनके अतिरिक्त १३. इसमे पंचस्थिकाय संग्रह को अपनी टीका का उल्लेख श्री हिम्मतलाल जेठालाल शाह का गुजराती पथा- किया है।

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