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कुन्दकुन्वाचार्य और उनकी रचनाएँ करके इसका प्रारम्भ किया गया है।
किया गया है। कुल मिलाकर २७५ गाथाएं हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध में षड्द्रव्य और पांच प्रस्तिकायों का प्रथम श्रुतस्कन्ध : व्याख्यान किया गया है। यहाँ द्रव्य का नक्षण, द्रव्य के सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक चारित्र का भेद, सप्तभंगी, गुण और पर्याय, काल द्रव्य का स्वरूप, मोक्ष मार्ग के रूप में उल्लेख, चारित्र का धर्म के रूप में जीब का लक्षण, सिद्धों का स्वरूप, जीव और पुद्गल का धर्म का शम के साथ ऐक्य, और शम द्रव्य के लक्षण, जीव बंध, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल के लक्षण के शुभाशुभ और शुद्ध परिणाम, सर्वज्ञ का स्वरूप, 'स्वयंभ' का प्रतिपादन किया गया है। द्वितीय स्कन्ध में नौ की व्याख्या, ज्ञान द्वारा सर्वव्यापिता, श्रुतकेवली, सूत्र पौर पदार्थों के प्ररूपण के साथ मोक्षमार्ग का वर्णन किया प्रतीन्द्रिय ज्ञान तथा क्षायिक ज्ञान की व्याख्या, तीर्थपुर गया है। पुण्य, पाप, जीव, मजीव, प्रास्रव, बंध, संवर, द्रव्य, पर्यायों मादि के लक्षण, स्वभाव एवं अनन्तता, निर्जरा और मोक्ष का कथन किया गया है।
प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ज्ञान की व्याख्या, सिद्ध परमात्मा की सूर्य टीकाएं : उपरोक्त कृति पर अमृतचन्द्र ने तत्वदीपिका के साथ तुलना, इन्द्रियजन्य सुख की प्रसारिता प्रादि । अथवा समय व्याख्या नाम की टीका लिखी है। व्याख्या
द्वितीय श्रुतस्कन्ध : कार ने इसमें कहा है कि द्रव्य में प्रति समय परिवर्तन होने
द्रव्य, गुण और पर्याय के लक्षण, स्वरूप तथा पारपर भी उसके स्वभाव को अबाधित रखने का कार्य प्रगुरु
स्परिक सम्बन्ध, सप्तभगी की व्याख्या जीवादि पांच और लघु नामक गुण करता है । इसके अतिरिक्त जयसेन',
काल का निरूपण, परमाणु और प्रमेय की व्याख्या, शुद्ध ब्रह्मदेव, ज्ञानचन्द्र, मल्लिषण और प्रभाचन्द्र ने भी संस्कृत
____मात्मा पोर बन्ध की व्याख्या आदि। टीकाएं लिखी है, इसके अलावा प्रज्ञातकृतक दो संस्कृत टीकाएं भी है जिनमे से प्रथम का नाम तात्पर्यवृति है। तृतीय श्रुतास्कन्ध : ऐसा उल्लेख जिनरत्नकोष (विभाग १ पृष्ठ २३१) में चारित्र श्रुतस्कन्ध में श्रामण्य के चिह्न, छेदोपस्थापक है। मूल कृति पर हेमराज पाण्डे ने हिन्दी में बालावबोध श्रमण, छेद का स्वरूप, युक्त पाहार, उत्सर्ग और पपलिखा। बालचन्द्र देव की कन्नड़ टीकाएं भी हैं। प्रभा- वादमार्ग, पागमज्ञान का महत्व, श्रवण का लक्षण, मोक्ष चन्द्र की हिन्दी टीका भी प्राप्त होती है।
तत्वादि का प्ररूपण है। २. प्रवचनसार:
टोकाएं : पवयणसार पर संस्कृत, कन्नड़ और हिन्दी "पवयणसार" प्राकृत के एक प्रकार के शौरसेनी में, में अनेक व्याख्यायें की गई हैं। संस्कृत व्याख्यानों में मार्या छन्द में रचित है । इस ग्रन्थ में तीन तस्कन्ध है, अमृतचन्द्र की वृत्ति सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण है। प्रथम में ६२, द्वितीय में १०८ एवं तृतीय में ७५ गाथाए दूसरी संस्कृत में जयसेन की टीका तात्पर्यवृत्ति' है। इसमें है। इसमें कमशः ज्ञान, ज्ञेय और चरित्र का प्रतिपादन टीकाकार ने पंचाथिकायसंग्रह की टीका का निर्देश किया ६. इनकी टीका का नाम 'तात्पर्यवृति' है । इसकी उल्लेख पवयणसार की उनकी टीकामों में है। इन
पुष्पिका के अनुसार मूलवृति तीन अधिकारों में तीनों में से पंचस्थिकाय संग्रह की टीका में सबसे विभक्त है। प्रथम अधिकार में १११ गाथाएं हैं और
अधिक उद्धरण पाते हैं। पाठ अन्तराधिकार है, द्वितीय अधिकार में ५० ७. इनकी टीका का नाम 'प्रदीप' है। गाथाए हैं और दस अन्तराधिकार हैं तथा तृतीय
५. कई लोगों के मत से देवजित ने भी संस्कृत में टीका
लिखी है। अधिकार में २० गाथाएं हैं और वह बारह विभागों
९. बालचन्द्र ने कन्नड़ में टीका लिखी है। में विभक्त हैं। इस तरह इस टीका के अनुसार कुल
१०. देखिये-पृष्ठ १६२-१८६ जैन इतिहास-मेहता १८१ गाथाएं होती हैं। जयसेन की इस टीका का एण्ड कापड़िया।