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द्रोणगिरि-क्षेत्र
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एक दूसरी किंवदन्ती यह है कि यह गुफा १४-१५ नकल हुक्म दरबार विजावर इजलास जनाब येत. मील दूर भीमकुण्ड तक गई है।
माहगम मुंशी शंकरदयाल साहब दीवान रियासत मूसवते इन किंवदन्तियों में तथ्य कितना है, यह जानने का
दास जैन पचान सभा सेधपा जरिये दुलीचन्द वंशाप्रयत्न सम्भवतः माज तक नहीं हमा। क्षेत्र पर लगभग खिया प्रजना सरक्षक जैन सभा मारु जे १२भई मन १३ फुट ऊंचा ४॥ फुट मोटा वर्तुलाकार एक मानस्तम्भ
१९३१ ईसवीय दरख्वास्त फर्माये जाने हुक्म न खेलने बना हुमा है। स्तम्भ के मूल मे दो-दो इच की पद्मासन शिकार क्षेत्र द्रोणगिरि वा मौजा संघपा पर . मूर्तियां उत्कीर्ण है। तथा स्तम्भ के शीर्ष भाग मे तीन इसके कि विला इजाजत जन सभा दीगर कौम के लोग मोर सवा फुट ऊँची खड़गासन मूर्तियां हैं और एक प्रोर क्षेत्र मजकूर पर न जा सके हुक्मी ईजलास खास रकम पद्मासन मूर्ति विराजमान है। प्रत्येक मूनि के ऊपर दो जदे २५ मई सन् १९३१ ईसवीय ऐमाद कराये जाने दोपक्तियों में १२-१२ खड़गासन मूर्तियाँ बनी हुई हैं जो मुक्तहरी कोई शरूस वगैर इजाजत जैन सभा पर्वत पर न प्राय: तीन इंच ऊँची हैं। इन छोटी मूर्तियों में मनेक जाये न शिकार खेले। खण्डित हैं । कुल मूर्तियों की संख्या १०४ है । पर्वत की तलहटी से एक मील मागे जाने पर श्या
हक्म हुमा जरिये परचा मुहकमा जगल भ मुहकमा मली नदी का जलकुण्ड बना हुआ है, जिसे कुण्डी कहते
पुलिस के वास्ते तामील इत्तला दी जावे । तारीख २८ है। वहाँ दो जलकुण्ड पास-पास में बने हुए हैं, जिनमें एक शीतल जल का है और दूसरा उष्ण जल का
मई सन् १९३१ ई.।
. है। यहां चारों मोर हरं, बहेड़ा, प्रांवला पादि वनौष- इस फर्मान द्वारा द्रोणगिरि पर्वत पर जैन समाज धियों का बाहुल्य है। यहाँ का प्राकृतिक दृश्य अत्यन्त का पूरा अधिकार माना गया है तथा जन सभाको पाकर्षक है। इस वन में हरिण, नीलगाय, रोझ प्रादि प्राज्ञा के बिना शिकार खेलने पर पाबन्दी लगा दी गई है। बन्य पक्ष निर्भयतापूर्वक विचरण करते हैं। कभी-कभी शोकजनक घटनाएं-इस शताब्दी में क्षेत्र पर दो सिंह, तेंदुमा या रीछ भी घर जल पीने मा जाते हैं। प्रत्यन्त शोकजनक घटनाएं घटित हुई। एक तो वीर
क्षेत्र पर शिकार-निषेषका राजकीय प्रादेश-विजा- सम्बत् २४२० मे । इस समय एक चरवाहे ने पाश्वनाथ वर नरेश राजा भानुप्रताप (रियासतों के विलीनीकरण मन्दिर में प्रतिमा के हाथों के बीच में लाठी फंसाकर से पूर्व) के समय से इस तीथं पर शिकार मादि खेलना खण्डित कर दिया था। दूसरी घटना वीर सम्वत् २४५७ राज्य की पोर से निषिद्ध है। इससे सम्बन्धित फर्मान, के लगभग हुई। उस समय किसी ने पार्श्वनाथ स्वामी की जो राज्य दरबार से जारी किया गया था, इस प्रकार मूर्ति को नासिका से खण्डित कर दिया था। अपराधी
बाद में पकड़ा गया था मोर उसे दण्ड भी दिया गया था।
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सुजनता का लक्षण हेत्वन्तरकृतोपेक्षे गुण-दोषप्रवर्तिते । स्यातामादान-हाने चेत् ताव सौजन्यलक्षणम् ॥
-वादीसिंह सत्पुरुष उसे समझना चाहिए जो अन्यान्य कारणों की उपेक्षा कर केवल गुणों के कारण वस्तु को ग्रहण करता है और दोषों के कारण उसे छोड़ता है।