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तीर्थकर और प्रतीत-पूजा
वाणिज्य और शिल्प की शिक्षा दी। इन्द्र ने अयोध्या योढ़ियों में लटकवाये । यह मानवकृत प्रथम प्रतदाकार मगरी की रचना की। ऋषभदेव ने भवन-निर्माण करने प्रतीक स्थापना थी। की विद्या बताई, जिससे भवनो का निर्माण होने लगा। किन्तु इतने से सम्राट भरत के. मन को सन्तुष्टि इस काल मे संघटित जीवन की परम्परा प्रारम्भ हुई, नही हुई। इससे भगवान की पूजा का उनका उद्देश्य पूरा जिसने ग्रामो, पुरो, नगरो को जन्म दिया। जीवन के नही होता था। तब उन्होने इन्द्र द्वारा बनाये हुए जिनाप्रत्येक क्षेत्र में और जीवन की प्रत्येक आवश्यकतापूर्ति के यतनों से प्रेरणा प्राप्त करके कैलाशगिरि पर ७२ जिनालिए ऋषभदेव ने जो विविध प्रयोग करके मानव समाज को यतनो का निर्माण कराया और उनमे अनय रत्नों की बताये और उसे व्यवस्थित नागरिक जीवन बिताने की जो प्रतिमायें विराजमान कराई । मानव के इतिहास में तदाशिक्षा दी, उसके कारण तत्कालीन सम्पूर्ण मानव समाज कार प्रतीक-स्थापना और उसकी पूजा का यह प्रथम ऋषभदेव के प्रति हृदय से कृतज्ञ था। और जब ऋषभ- सफल उद्योग कहलाया। अतः साहित्यिक साध्य के आधार देव ने संसार से विरक्त होकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली तथा पर यह स्वीकार करना असंगत न होगा कि नागरिक दिगम्बर निर्ग्रन्थ मुनि के रूप मे घोर तप करके केवलज्ञान सभ्यता के विकास-काल की उपा-बेला मे ही मन्दिरों, प्राप्त कर लिया, उसके पश्चात् समवसरण में, गन्धकुटी मूर्तियो का निर्माण प्रारम्भ हो गया था। में सिंहासन पर विराजमान होकर उन्होने धर्म-देशना दी। पौराणिक जैन माहित्य मे मन्दिर और मूर्तियों के मानव-समाज के लिए वह धर्मदेशना अश्रुतपूर्व थी, समव- ।
उल्लेख विभिन्न स्थलो पर प्रचुरता में प्राप्त होते है। सरण की बह रचना अदष्टपूर्व थी। उनका उपदेश मगर चक्रवर्ती के माठ हजार पत्रो ने भरत चक्र कल्याणकारक था, हितकारक था, सुखकारक था और बनाये हा इन मन्दिरों की रक्षा के लिए भारी उद्योग शान्तिकारक था। इससे सम्पूर्ण मानव-समाज के मन में किया था और उनके चारों ओर परिखा खोदकर भागीतीर्थकर ऋषभदेव के प्रति श्रद्धा और भक्ति की अजस्र रथी के जल से उसे पर्ण कर दिया था। लंकाधिपति घारा बहने लगी। वे सम्पूर्ण मानव-समाज के प्राराध्य रावण इन मन्दिरो के दर्शन के लिए कई बार पाया था। बन गये और उसके मन मे समवसरण की प्रतिकृति बना लंका मे एक शान्तिनाथ जिनालय था, जिसमे गवण पूजन कर उसमे ऋषभदेव की तदाकार मूर्ति बना कर उसकी किया करता था और लंका-विजय के पश्चात् रामचन्द्र, पूजा करने की ललक जागृत हुई।
लक्ष्मण आदि ने भी उसके दर्शन किये थे।
साहित्य मे ई० पू० ६०० से पहले के मन्दिरो के इन्द्र ने अयोध्या का निर्माण करते समय नगर की
उल्लेख मिलते है। भगवान पार्श्वनाथ के काल मे किसी चारो दिशाओं मे और नगर के मध्य मे पाँच देवालयो या कवेरा देवी ने एक मन्दिर बनवाया था, जो बाद में देवजिनालयों की रचना करके जिनभवनो का निमोण करन निर्मित बोद स्तप कहा जाने लगा। यह सातवे तीर्थङ्कर
और उसमे मूर्ति स्थापना करने का मार्ग प्रशस्त कर सूपाश्र्वनाथ के काल में सोने का बना था। जब लोग दिया था।
इसका सोना निकाल कर ले जाने लगे, तब कुबेरा देवी एक बार जब सम्राट भरत कैलाश गिरि षर भग- ने इसे प्रस्तर खण्डो और ईटो से ढक दिया। (विविध वान ऋषभदेव के दर्शन करके अयोध्या लौटे तो उनका तीर्थकल्प-मथुरापुरीकल्प)। स्थापत्य की इस अनुपम मन भगवान की भक्ति से प्रोत-प्रोत था। उन्होंने भगवान कलाकृति का उल्लेख ककाली टीला (मथुरा) से प्राप्त के दर्शन की उस घटना की स्मृति को सुरक्षित रखने के भगवान मुनिसुव्रत की द्वितीय सदी की प्रतिमा की चरणलिये कैलाश शिखर के आकार के घण्टे बनवाये और उन चौकी पर अंकित मिलता है। पर भगवान ऋषभदेव की मूर्ति का अंकन कराया। ये भगवान पार्श्वनाथ के पश्चात् दन्तिपुर (उडीसा) घण्टे नगर के चतुष्पथो, गोपृरो, राजप्रासाद के द्वारों और नरेश करकण्डु ने तेरापुर गुफामो मे गुहा-मन्दिर (लयण)