Book Title: Anekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 256
________________ तत्त्व क्या है? २२७ कोई तत्त्व नियन्ता नही हो सकता। अब भी चेतो। शुष्क बुद्धिवाद में जीवन की बहुमूल्य धर्म विशाल हृदय है। अहिसा उसकी प्रात्मा है- घड़ियाँ यों ही मत खोप्रो। प्राणीमात्र के साथ विरोध न करो, उनको आत्मवत् लोग कहते हैं-यह तर्कवादी युग है। मुझे लगता समझो । हिंसा मृत्यु है मोह बन्धन है, बैर है । जो दूसरे है यह युग अनुकरण प्रेमी है। अनुकरण और तर्क की की हिंसा करता है, वह अपना बंर बढ़ाता है । विज्ञान जोड़ नहीं बनती। भेड़ उक पशु हैं। उसकी अनुकरण के बड़े-बड़े घातक और डरावने अस्त्र-शस्त्र उत्पन्न किए क्रिया क्षम्य हो सकती है। एक भेड़ के पीछे अनेक भेंड़े है। उनसे भय बढ़ा, आतंक बढ़ा और आशंकाएं बढी। बोलें, यह नही प्रखरता। बुद्धिशील मानव बिना सोचेएक समान दूसरे समाज को, एक जाति दूसरी जाति को समझे, किसी की हाँ में हां मिलाये यह प्रखरने जैसी बात और एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को संदिग्ध दृष्टि से निहार है। कुछ भौतिकवादियों ने धर्म को अफीम कहा तो बहुत रहा है। हिंसा ने संसार का सारा खाका ही बदल डाला। सारे लोग प्रवाह में बह चले । धर्म अफीम क्यों है ? धर्म सिंह भय के मारे भागा जा रहा है कि कही काले माथे अनावश्यक क्यों है ? यह भी कभी सोचा? यदि सोचा वाला मुझे मार न दे। मनुष्य इस भय से मरा जा रहा तो उसमें अफीम जैसी क्या वस्तु मिली। रोग सोहन के है कि कहीं बाघ मुझे खा न जाये । आज के संसार की है और इलाज मोहन का किया जाए, यह विफल चेष्टा भी यही मनोदशा है । इस स्थिति मे कौन अभय दे सकता है। धर्म ननोन: है। धर्म से न तो खून की नदियां बहीं और न लड़ाइयाँ है। आशंका की लपट में झुलसते पाए जगत को कौन हुई। धर्म ने न तो धन के कोष जमा किये और न गगनउबार सकता है। इस पोर जनता ध्यान दे, सोचे और चुम्बी अट्टालिकायें खड़ी की। यह सब स्वार्थ की काली समझे। करतूतें है। स्वाथियों के हथकण्डे हैं। उन्होंने धर्म को सन्तोष धर्म का जीवन है । इच्छा प्राकाश के समान अपनी स्वार्थसिद्धि का साधन बनाया और उनके नाम पर अनन्त है। उसे सीमित करो । संग्रह भावना मत रक्खो। बडे अन्याय और अत्याचार किए। उनके स्वार्थ सधे धर्म अधिक सग्रह से जीवन अधिक दुखी बनेगा। परिग्रह के । बदनाम हुअा। लोगों की उस पर से प्रास्या हटी। धर्म साथ माया, कपट, अभिमान, दण्ड और दुर्भावनाए बढ़ती हिंसा को हिंसा और परिग्रह का सबसे बड़ा विरोधी है। उससे हमें है। सारे लोक में परिग्रह के समान दूसरी निबिड जंजीर शान्ति, सद्भावना और विश्व मैत्री का संदेश मिला है। कोई नहीं : अर्थलोलुपता प्राज चरम सीमा पर पहुंची धर्म वाक्यों ने परिग्रह की जितनी भर्त्सना की है, उतनी हई है। दुनिया के बड़े-बड़े मस्तिष्क अर्थोपार्जन की किसी भी बाट ने नहीं की व्यायाम विधि से संलग्न है । एक दूसरे को हड़पना चाहता धर्म को धन की चाह नहीं। धन तुम्हारी रक्षा नही कर है। निगलना चाहता है । भूमि उतनी कृपण नही बनी है, सकता । धन दुख का दाता है, अनर्थ का मूल है । ये वाक्य जितनी मानव की जठराग्नि तेज बनी है। वह अनन्त धार्मिक क्षेत्र के सिवाय और कही भी नही मिल सकते। धनराशि को पचा सकती है। सामग्री अल्प है। भोक्ता धर्म से घणा मत करो-डरो नहीं। धर्म के नाम पर जो अधिक है। संचय की भावना उनसे भी अधिक है । इस विकार फैला हुआ है, उसकी शल्य चिकित्सा कर डालो। लिए तो वर्ग युद्ध छिड रहा है। नये-नये बाद जन्म ले धर्म सोना है, उसे उठा लो । वह उपेक्षा की वस्तु नहीं । रहे है। स्पर्धा और संघर्ष की चिनगारियाँ उछल रही है। पाश्चर्य है, दुनिया इस ओर ध्यान नहीं देती कि परोक्ष रूप से धर्म का स्वरूप कई बार पा च का है। धन केवल जीवन निर्वाह का साधन है। साध्य नहीं। प्रत्यक्षतः उसका पारिमाणिक रूप जान लेना चाहिए। साध्य तो कुछ और ही है। सब प्राणी सुख चाहते है। "प्रात्मशुद्धि साधनं धर्मः"-मात्मशुद्धि के साधनवह उनका साध्य है । सुख प्रात्मा का धर्म है। शरीर का अहिंसा, समय और तपस्याए' ये धर्म ही हैं। व्यवहार में नहीं। वह सन्तोष से पैदा होता है, धन से नहीं, चेतो थर्म, महिंसा, सत्य, प्राचार्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन

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