Book Title: Anekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 269
________________ २४०, वर्ष २६, कि०६ अनेकान्त शोलन से ज्ञान की वृद्धि हुई और उन्होंने मौलिक और सुन्दर और भारतीय ज्ञानपीठ के अनुरूप हुआ है । प्रत्येक टीका ग्रन्थों की रचना की, वह उनकी धार्मिक लगन का लायब्ररी में इसका संग्रह होना चाहिए । ही परिणाम है। इतना ही किन्तु उन्होंने उदयपुर में रह- सोश के मंकलनकर्ता जिनेन्द्रवर्णी और भारतीय कर वहां के निवासियों में अपने प्रवचनों द्वारा धामिक ज्ञानपीठ के संचालक गण इस सन्दरतम कृति के प्रकाशन संस्कारों को जागृत किया। लोगों की धामिक भावनाओं के लिए धन्यवाद के पात्र हैं। को बढ़ाया, और जैनधर्म का प्रसार किया। -परमानन्द शास्त्री डा. कासलीवाल का यह प्रयल प्रशंसनीय है। क्षेत्र कमेटी को इस कार्य में गति प्रदान करना चाहिए । और ३. महावीर व्यक्तित्व, उपदेश और प्राचार मार्गपच्चीससौवें महावीर निर्वाण महोत्सव के शुभ अवसर पर प्रकाशन-भारत जैन महामण्डल, भारत इंशुरेंस बिल्डिंग किसी प्रकाशित रचना को प्रकाशित करना चाहिए। दूसरा मंजिल 15 A, हानिमन सर्कल फोर्ट वम्बई-१, ग्रन्थ का प्रकाशन सुन्दर है। स्वाध्यायी जनों को उसे मूल्य तीन रुपये। मंगा कर अवश्य पढ़ना चाहिए। प्रस्तुत पुस्तक जैन समाज के प्रसिद्ध विद्वान श्रीरिषभदास ३. जैन सिद्धान्तकोश भाग चौथा-क्षुल्लक जिनेन्द्र रांका द्वारा लिखी गई है। भाकर्षक एवं इसका प्रावरण वर्णी प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी ४ बड़ा णमोकार मंत्रके पदों द्वारा कलात्मक ढंगसे बनाये गये भगसाइज पृष्ठ संख्या ५४० सजिल्द प्रति का मूल्य ५०) वान महावीर के चित्र से शोभित है। पुस्तक के प्रारम्भ रुपया। में प्राचार्य तुलसी द्वारा 'दो बोल' के अन्तर्गत पुस्तक एवं प्रस्तुत विशाल कोश चार भागों मे पूर्ण हुआ है। लेखक का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। यह विश्वकोश के समकक्ष का कोश है, जिसमे जैन शब्दो विद्वान लेखक ने प्रागैतिहासिक श्रमण संस्कृति का का चयन प्रकारादि क्रम से किया गया है । जैन तत्त्वज्ञान, अनेक उदाहरणो एवं प्रमाणों द्वारा शोषपूर्ण इतिहास माचार, शास्त्र, भूगोल, कर्मसिद्धान्त, पौराणिक व्यक्ति, प्रस्तुत करने के बाद तीर्थकर वर्धमान का विस्तृत परिराजवंश, पागमशास्त्र प्रादि छह हजार शब्दों और इक्कीस चय दिया है। इसके बाद सर्वजन हितकारी भगवान हजार विषयो का विवेचन किया गया है। विषय विवेचन महावीर के उपदेशों का बड़े ही सरल ढग से प्रतिपादन को रेखा चित्रों, सारणियों और सादे एवं रंगीन चित्रों किया है। आवश्यकतानुसार जैन प्रामाणिक ग्रन्थों के द्वारा स्पष्ट करने का भी प्रयत्न किया गया है। जैन उद्धरण भी दिये गये है। पाठक चाहे जैन हो या अर्जन, सिद्धान्त का तो यह प्रागार ही है। इसके अध्ययन करने भगवान महावीर के महान् सिद्धान्तो का परिचय प्रस्तुत से जैन सिद्धान्त के पारिभाषिक शब्दो का ही केवल ज्ञान पुस्तक द्वारा बड़े ही सुबोध ढग से प्राप्त कर सकता है। नही होता, प्रत्युत उनके भेद प्रभेदों का मी परिज्ञान हो जाता है । यह कोश जिनेन्द्र वर्णी के १७ वर्षों का अथक पुस्तक मे जहा अनेक अच्छाइयां है वहां कुछ न्यूनश्रम का परिणाम है। इसके संकलन करने में उन्होंने ताएं भी नजर आई । पुस्तक का मूल्य कुछ अधिक है। कितना श्रम किया है, यह भुक्तभोगी ही जान सकता है। यदि मूल्य कम रखा जाता तो सर्वसाधारण के लिए यह प्रत्येक स्वाध्याय प्रेमी के लिए इसका वाचन उपयोगी है। और उपयोगी भी हो सकती थी। प्रूफ एवं प्रतिलिपि कोश में यदि ऐतिहाशिक विषय न दिया जाता तो अच्छा सम्बन्धी अशुद्धियां भी कुछ रह गई है। जैसे पृष्ठ १०३ होता । कोश अपने वैशिष्टय को लिए हुए है। लोक- पर प्रथम अनुच्छेद की अन्तिम पंक्ति में प्रायश्चित के स्वर्ग नरक मादि का चित्रो द्वारा विषय स्पष्ट किया गया स्थान पर व्युत्सर्ग छप गया है। है। प्रस्तुत भाग में श से ह तक के व्यंजन भाग का पुस्तक उपादेय एवं संग्रहणीय है। निरूपण है । इस विशाल काय महत्त्वपूर्ण कोश का मुद्रण -प्रकाशचन्द्र जैन

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