Book Title: Anekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 261
________________ २३२, वर्ष २६, कि०६ अनेकान्त द्वेष से ऊपर उठकर वीतरागी महान् विषयों के अनुभव का विचार करता है, उसकी गहराई में जाकर पुदगल युक्त बचनों का ध्यान करना चाहिए, जिससे साधना में तथा चेतन द्रव्य के सम्बन्धों का भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों सहायता लिले । से विचार करता है तब उसके चरित्र में दढ़ता आती है। ___साधक को अपने दोषों यानी कमजोरियों के स्वरूप यानी चारित्र मोहनीय कार्यों का नाश होता है, सत्याको समझकर उन्हें दूर करने का चिन्तन करना चाहिए। चरण में दृढ़ता पाती है। राग-द्वेषादि कषायों के कारण ही तो सभी बाधाएँ खड़ी यद्यपि जड़ चेतन द्रव्य पृथक् है, तथापि सयोग से होती हैं। समता में बाधक परिस्थिति पर विचार कर मिल जाते है। इनमें से किसी एक तत्त्व का अवलम्बन उन्हें दूर करने का चिन्तन करना चाहिए। असत्य मार्ग लेकर उसके किसी एक परिणाम पर चित्त को निश्चल पर किस तरह चला जा सकता है, इसका चिन्तन करना करने से ध्यान मे दृढ़ता आती है। अनेक विषयों की ओर चाहिए, ताकि दुख से बचा जा सके। पाप कर्मों से निवृत्त भड़कने बाले मन को किसी एक विषय पर के हित करने हुआ जा सके। से जैसे जलते हुये चूल्हे मे से ईधन निकाल लेने पर आग किस कार्य का क्या फल मिलता है, इस पर विचार वुझ जाती है, वैसे ही मन चञ्चलता के नष्ट हो जाने से करना भी शुद्धि की पोर ले जाने में सहायक है। बुराई निष्कम्प बन जाता है। इससे प्रात्मा के ज्ञान में बाधा न का परिणाम भोगना ही पड़ता है। इस तरह के मंथन से पहुचाने वाले सब कर्मो का विलय होकर ज्ञान का प्रकाश साधक बुराई से छुटकर शुद्ध होता है। कई लोग जन्म फैल जाता है और साधक सर्वज्ञता को प्राप्त होता है। से ही नीरोग, बुद्धिमान और तेजस्वी होते है और कई जो धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान, जो बन्ध में मुक्ति बीमार, दुखी, बुद्धिहीन । यह सब शुभ-अशुभ कृत्यो का दिलाने में सहायक होते है। तभी किये जा सकते है, परिणाम है। संसार के स्वरूप का, उसकी विकलता, जब मन शरीर सुदृढ और नीरोग हो। व्यापकता, स्थिति तथा विनाशशीलता का चिन्तन तथा कहा गया है कि धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान के उसके विविध द्रव्यों की परिवर्तनशीलता जान लेने पर लिए वज वृषभनाराच संहनन जेसा बलिष्ठ शरीर पावमनुष्य सहज ही उसके प्रति अनासक्त होता जाता है और श्यक है। स्वस्थ शरीर के बिना मन स्वस्थ नहीं होता व्याकुल नहीं होता। और स्वस्थ मन के बिना अच्छा ध्यान नहीं हो सकता। शुक्ल ध्यान-जब साधक जड़ और चेतन के भेद (पृष्ठ २२५ का शेषांस) सफलतापूर्वक सम्पादन किया। उन्होने स्वयं भी 'हिन्दी याधीजी के असहयोग आन्दोलन आदि कार्यक्रमो को गल्प' नामक पत्र निकाला। ६० वर्ष की आयु में १२ देश की आजादी के लिए उठाया जाने वाला कदम सम- दिसम्बर १९६१ को उनका देहान्त हो गया।" झते हुए भी दीवान रूपकिशोर राजनीति की ओर दीवान रूपकिशोर की तरह गत १०० वर्षों में ऐसे उन्मुख न हो सके । उन्होंने अपना सपूर्ण समय साहित्य की कई जैन साहित्यकार हो गए और अभी भी विद्यमान हैं गतिविधियों तक ही सीमित रक्खा। जब भारत स्वाधीन कि जिन्होंने केवल जैन सम्बन्धी ग्रन्थ ही लिखकर उपहो गया और जमीदारी प्रथा समाप्त कर दी गई, तब वह न्यास, कहानी आदि सार्वजनिक साहित्य भी विशेषरूप मे विजयगढ़ से अपने पुत्रों के पास दिल्ली चले पाये और लिखा है एवं लिख रहे है। जैन समाज के लिए यह एक अन्तिम समय तक दिल्ली में ही रहे । उल्लेखनीय बात होगी कि जैन साहित्यकार केवल जैन दीवान रूपकिशोर ने चार पत्रों का सम्पादन भी धर्म सम्बन्धी रचना हचना ही नही करते पर सर्वजनोपकिया। बिजनौर से प्रकाशित 'वीर' विजयगढ से, 'महा- योगी साहिन्य का भी प्रचुर परिमाण सर्जन करते रहे है। वीर' और हाथरस से निकलने वाले 'मार्तण्ड' का उन्होंने

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