Book Title: Anekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 255
________________ तत्त्व क्या है ? . प्राचार्य तुलसी मानव की आत्मा में अमित प्रकाश है। उसमें अन्वे- योगी साधन सबको सुलभ नहीं। उसी दशा में दूसरों के षण और पथप्रदर्शन की शक्ति है । ज्ञान-विज्ञान का अक्षय लिए अपनी सुख-सुविधाओं का त्याग करना उनका लक्ष्य कोष मानव बुद्धि का सुफल है। मानव की वाणी और है। आध्यात्मिक त्याग का उद्देश्य प्रात्मसंयम है। विश्व विचारों ने साहित्य, दर्शन और विज्ञान को जन्म दिया। का प्रत्येक प्राणी सुख-साधनों से फलीभूत हो, ऐश्वर्य से इसीलिए मानव शक्ति और अभिव्यक्ति का केन्द्र माना दब रहा हो' धन वैभव से लद रहा हो तो भी प्राध्यागया है। भौतिकवाद और अध्यात्मवाद दोनों का स्रष्टा त्मिक व्यक्ति अपनी प्रात्मा की शुद्धि के लिए भोगमय मानव है। बाह्य दृष्टियो वाले व्यक्तियो ने चेतन सत्ता सुख-साधनों को ठुकराता हुआ आत्मसंयम के मार्ग पर को भुलाकर जड़ शक्ति में विश्वास किया और आत्मा का अग्रसर होता है। अस्तित्व मानने वाले बाहरी शक्तियो का अनुभव करते भौतिकवाद मे समानता की भावना है। फिर भी हुए भी अन्तरंग अन्वेषण से विमुख न हुए। उसमे अहिंसा के लिए कोई स्थान नही । समानता भी जीवन क्या है, हम क्या है, संसार क्या है, प्रश्न उठे भौतिकता तक सीमित है। प्रात्मवादी भौतिक समानता और समाहित हुए। समाधान में दोनों वादों ने भाग के उपरान्त भी हिंसा के दोष से बचना चाहता है। इन लिया। भौतिकवादी वर्ग जड़ शक्ति का प्राधान्य मानकर दोनों में क्या और कितना भेद है ? इसका पूर्व दर्शित सब कुछ सुलझाने की चेष्टाएं कर रहा है। आत्मवादियो प्रणाली के अनुसार सरलता से पता लगाया जा सकता का दृष्टि बिन्दु पात्मा पर टिका हुआ रहा है और वे है। उस प्रचेतन प्ररूपी सत्ता के सहारे जटिल गुत्थियाँ सुल- आज का युग विज्ञान के इंगित पर चल रहा है। झाते हैं। उसकी हाँ की पोर ना कि प्रतिध्वनि में ही लोग अपना भौतिकवाद की जड़ मे वर्तमान जीवन का ही मूल्य श्रेय समझते है । मुझे विज्ञान अप्रिय नहीं और न मैं उसे आंका जाता है अतः वहाँ मुड़कर आगे बढ़कर दृष्टि पणा की दृष्टि से देखता हूं। फिर भी उसमे जो त्रुटि है, दौडाने की प्रावश्यकता नहीं रहती। अध्यात्मवाद की वह तो कहनी ही चाहिए । दोष अन्ततः दोष ही है । भित्ति प्रात्मा है। प्रात्मा के साथ जन्मान्तर, कर्म, स्वर्ग, चाहे वह कहीं भी क्यों न हो ? वर्तमान विज्ञान भौतिकमरक और मोक्ष की कड़ियां जुड़ी हुई है। अतीत के वादी दृष्टिकोण के सहारे पनपा है इसलिए वह जड़ तत्त्वो जीवन भलाए नहीं जा सकते और भविष्य जीवन की अोर की छानवीन में लगा हुमा है । आत्मा अन्वेषण से मांखें नही मूदी जा सकतीं। से उदासीन है। यदि यह बात न होतो तो आज प्राध्यात्मिक क्षेत्र मे धर्म-कर्म कल्पना की सृष्टि नही, इतना संघर्ष न हुआ होता। भौतिकता स्वार्थमूलक है। वे तात्विक तथ्य है। स्वार्थ साधना में संघर्ष हुए बिना नही रहते । प्राध्यात्मिमाज के युग का प्रमुख दृष्टिकोण जड़वादी है। कता का लक्ष्य परमार्थ है-इसलिए वहाँ संघर्षों का अन्त उसमें त्याग और संयम की प्रमुखता नहीं है। त्याग का होता है। यह सच है कि संसारी प्राणी पौद्गलिक वस्तुओं प्रयोग किया जाता है पर संयम के लिए नही। भोगों की से पूर्णतया सम्बन्ध विच्छेद नहीं कर सकता फिर भी उन वृद्धि के लिए। भोग सामग्री की कमी हो, जीवन के उप- पर नियन्त्रण करना प्रावश्यक है। धर्म के अतिरिक्त अन्य

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