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* अनेकान्त .
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श्रावक' थे।
निर्वहन किया तो दूसरी पोर जन-भावना को जानने के नन्द वश में क्रमश: सात नन्द राजा हए । कल्पक की लिये परिव्राजकता के क्रम को भी चालू रखा। वंश-परंपरा में भी अनेक प्रज्ञा-संपन्न व्यक्ति हुए और उन चाणक्य महामात्य होते हुए भी परम सन्तोषी वृत्ति सभी ने महामात्य-मुद्रा ग्रहण की। सप्तम नन्द राजाके में था। प्रावश्यक चूर्णिकार प्राचार्य हेमचन्द्र तथा प्राचार्य समय महामात्य शकडाल हुमा । उसने महामाश्य-पद की हरिभद्र ने श्रावक के विशिष्ट लक्षणो से चाणक्य को उपगरिमा का निर्वहन करते हुए कल्पक से चली पाने वाली लक्षित करते हुए इसी सन्तोष वृत्ति का उल्लेख किया है धार्मिकता का भी सम्यक अनुगमन किया।
और यह वृत्ति जीवन-पर्यन्त तदूप ही रही। मुद्राराक्षस
नाटक में महामान्य-पद पर आसीन चाणक्य को उसी मगध साम्राज्य के महामात्यों को परपरा में ब्राह्मण
सन्तोष वृत्ति का गौरव के साथ समुल्लेख करते हुए लिखा त्व तथा श्रावकत्व अनुस्यूत रहा है। चाणक्य ने कल्पक वंश में जन्म न लेने पर भी श्रावकत्व को अक्षुण्ण रखते
___ गया है:
उपल सकल मेतद् मेवक गोमयानां हुए राज्य व्यवस्थाओं का दूरदर्शिता पूर्ण संचालन किया, उपर्युक्त घटनाये इस तथ्य की विशेष साक्षी हैं।
वटुमिरूपहताना बहिणां स्तोम एवं
शरणमपि समिद्भिः शुष्यमारणामि राभि पौराणिक मान्यता के अनुसार यज्ञोपवीत का प्रचलन
विनमित पठलान्तं दृश्यते जीणं कुइयम् । प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव के युग में प्रथम चक्रवर्ती
"कण्डे तोड़ने के लिये एक छोटा सा पत्थर, विद्यार्थियों भरत द्वारा किया गया था। उस समय तथा उसके बाद
द्वरा उपहृत दूर्वा समूह तथा एकत्रित ईन्धन राशि ही सब विशिष्ट श्रावक ही इसका उपयोग करते थे। प्राज भी
कुछ है । झुके हुए छज्जे व टूटी-फूटी दीवार की कुटिया बहुत सारे जैन यज्ञोपवीत का प्रयोग करते हैं। यज्ञोपवीत " वैदिकत्व का ही प्रतीक नहीं है।
चाणक्य के जैनत्व के विरुद्ध एक तर्फ यह भी दिया श्रमण और वैदिक, दोनों ही परंपरागों में परिबाज- जाता है कि उसने जिस अर्थशास्त्र का प्रतिपादन किया है, कता प्रचार तथा कार्य-सुगमता का माध्यम रही है। उसमें वर्णाश्रम व्यवस्था पर विशेष बल दिया गया है। चाणक्य को राजा नन्द से प्रतिशोध लेना था। वह तभी इस सन्दर्भ में भी कुछ तथ्य विमर्षणीय हैं। वधिम सभव था, जबकि जन-सहयोग प्राप्त किया जा सके । परि व्यवस्था सामाजिक स्वस्थता को वृद्धिमत करने की सामव्रजकता इसमें विशेष हेतुभूत हो सकती थी । जन-पहयोग यिक पद्धति थी। युगानुरूप उसमें परिवर्तन तथा परिवर्धन के प्राधार पर ही चाणक्य ने राजा पर्वत को भी मित्र होता रहा है। चाणक्य ने अपने समय में इस व्यवस्था को बनाया तथा उसे नन्द साम्राज्य के विरुद्ध भडकाया। राजा उपयोगी समझा था। अन्य भी समाज व्यवस्थापकों ने पर्वत ने चाणक्य का साथ दिया । चाणक्य अपने उद्देश्य समय समय पर इसका अवलम्बन लिया था। जैन परपरामें सफल हुअा। राज्य-प्रप्ति के बाद भी उसके सुचारू नुसार इस व्यवस्था का प्रारभ भगवान ऋषभदेव के युग वइन के लिये जन-भावना का अकून मावश्यक था । उसके में हो चूका था। आवश्यकतानुसार उसमे उद्वर्तन तथा प्रभाव मे जन-विद्रोह की मी पापाका थी। चाणक्य कूट- अपवर्तन होता रहा है। नीति के माध्यम से हर पहलू के सुदूर तक पहुंचता था। एक तर्क यह भी प्रस्तुत किया जाता है कि चाणक्य उसने एक प्रोर महामात्य-पद के गुरूतर दायित्व का शिखाधारी था। शिखा का प्रचलन जैन समाज में नही हैं, १-बही, श्लोक १३, १४ तथा १८
प्रतः इस परपरा से कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता । वर्तमान १-विस्तार के लिए देखें, परिशिष्ट पर्व, प्रथम सर्ग में यह किसी उपेक्षा से सङ्गत कहा जा सकता है । किन्तु, ३-विस्तार के लिये देखें 'मरत-मुक्ति' पुस्तक में लेखक इसके लिये प्राचीन परपरापो का अनुशीलन भी प्रावश्यक
द्वारा लिखित 'मरत मुक्तिः एक अध्ययन' पृ० ६५, ६६ होगा। प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव अवजित होने के लिये जब