Book Title: Anekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 226
________________ पहिच्छत्र २०३ भगवान पार्श्वनाश सम्बन्धी उपर्युक्त घटना की गूज पार्श्वनाथ सम्बन्धी घटना का एक सांस्कृतिक महत्व उस काल में ही दक्षिण भारत तक पहुची। इस बात का भी है । इस घटना ने जैन कला को विशेषतः जन मूर्ति समर्थन कल्लुर गुड्डु (जिला सीमौगा, मैसूर प्रान्त–सन् कला को बडा प्रभावित किया। पार्श्वनाथ की प्रतिमाओं ११२६) में उपलब्ध उस शिलालेख से भी होता है, का निर्माण इस घटना के कारण ही कुछ भिन्न शैली में जिसमे गंग वंशावली दी गई है। उसमें उल्लेख है कि जब होने लगा। चौबीस तीर्थङ्करों की प्रतिमायें अपने प्रासन, भगवान पार्श्वनाथ को अहिच्छत्र मे केवलज्ञान की प्राप्ति मुद्रा, ध्यान प्रादि दृष्टि से सभी एक समान होती है। हुई थी, उस समय यहाँ प्रियबन्धु राजा राज्य करता था। उनकी पहचान और अन्तर उनके पासन पर अंकित किये वह राजा भगवान पार्श्वनाथ के दर्शन करने अहिच्छत्र गये चिन्ह द्वारा ही किया जा सकता है। किन्तु केवल गया । पार्श्वनाथ की प्रतिमायें अन्य तीर्थङ्कर-प्रतिमाओं से एक १. हरिवंश केतु नेमीश्वर तीर्थ बतिसुत्तभिरे गङ्गकुलां। बात मे निराली है। अरहन्त दशा की प्रतिमा होते हुए _वर भानु पुट्टिदं भा-। सुरतेज विष्णुगुप्त नेम्ब नृपालम् ।। भी उनके सिर पर सर्प-फण रहता है, जो हमें सदा ही पा-धराधिनाथं साम्राज्यपदवियं कैकोण्ड हिच्छत्र-पुरदोलु कमठ द्वारा घोर उपसर्ग करने पर नागेन्द्र द्वारा पार्श्वनाथ सुखमिर्दु नेमितीर्थङ्कर परमदेव-निर्वाणकालदोल् के ऊपर सर्प-फण के छत्र तानने का स्मरण दिलाता है। ऐन्द्रध्वजवेम्ब पूजेयं माडे देवेन्द्रनोसेदु इतना ही नही, अनेको पार्श्व प्रतिमाये इस घटना के अनुपमदरावतमं । मनोनुरागदोले विष्णुगुप्तङ्गित्तम् । स्मारक रूप मे धरणेन्द्र-पद्मावति के साथ निर्मित होने लगी जिन-पूजेयिन्दे मुक्तिम् । ननयमं पडेगु मेन्दोलिदुदु पिरिदे॥ आर सी और इसीलिये जैन साहित्य में इस इन्द्र-दम्पति की ख्याति पार्श्वनाथ के भक्त यक्ष-यक्षिणी के रूप में विशेष उल्लेख ब-अन्ता-प्रियबन्धु सुख-राज्यं गेय्युत्तमिरे तत्समयादोलु योग्य हो गई। पार्श्व भट्टारकग्गे केवलज्ञानोत्पत्ति यागे सौधर्मेन्द्रं नन्दु यह घटना अपने रूप में असाधारण थी। मवश्य ही केवलिपूजयं माडे प्रियबन्धु तानु भक्तिमि बन्दु पूजेयं इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी व्यक्ति भी वहाँ रहे होंगे। उनके माडलातन भक्तिनिन्द्रं मेच्चि दिव्य वप्पदु-तोडगेगल मुख से जब सत्य घटना जन-जन के कानों में पहुंची होगी, कोट्ट निम्मन्वय दोलु मिथ्यादष्टि गळागलोड अदृश्य- तब उन सबका हृदय निष्काम वीतराग भगवान पार्श्वनाथ ङ्गलक्कुमेन्दु पेळदु विजयपरक्कहिच्छत्रमेम्ब पेसरनिह के चरणो में श्रद्धा प्लावित हो उठा होगा और उनके दिविजेन्द्रं पोपुदु मित्तलु गङ्गन्वयं सम्पूर्ण-चन्द्रनन्ते दर्शनो के लिये वहाँ असंख्य जन-वाहिनी एकत्रित हुई पेच्चिमे बत्तिसुत्तमिरे तदन्वयदोलु कम्प-महीपतिगे होगी। और फिर कैसा अलौकिक संयोग कि तभी भगवान पद्मनाभनेम्न मगं पुट्टि । का केवल ज्ञान महोत्सव हुआ। उसे सुनकर प्रथम उपदेश -कल्लुरगुड्डु (शिभोगा परगना) में सिद्धेश्वर को ही सुनकर वे भगवान के उपासक बन गये और जब मन्दिर की पूर्भ दिशा में पड़े हुए पाषाण पर लेख ..........."उनके वंश में प्रियबन्धु हुआ। जिस (शक १०४३-११२१ ई.) समय वह शान्ति से राज्य कर रहा था, उस समय पार्श्व -जैन शिलालेख संग्रहः भागः द्वितीयः । भट्टारक को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। इसी अवसर पर माणिकचन्द दिगम्बर जैनग्रन्थमाला समिति पृ. ४०८-६ स्वय प्रियबन्धु ने पाकर केवलज्ञान की पूजा की। उसकी अर्थ-जब नेमीश्वर का तीर्थ चल रहा था, उस श्रद्धा से प्रसन्न होकर इन्द्र ने पांच प्राभरण उसे दिये। समय राजा विष्णुगुप्त का जन्म हुआ। वह राजा अहि- और कहा-अगर तुम्हारे वंश में कोई मिथ्या मत का च्छत्र पुर राज्य कर रहा था। उसी समय नेमि तीर्थङ्कर मानने वाला उत्पन्न होगा तो ये पाभरण लुप्त हो जायेंगे। का निर्वाण हुअा। उसने ऐन्द्रध्वज पूजा की। देवेन्द्र ने यों कह कर और अहिच्छत्र का विजयपुर नाम रखकर उसे ऐरावत हाथी दिया। इन्द्र चला गया।

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