Book Title: Anekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 244
________________ स्यावाद : एक अध्ययन २१५ जैन दर्शन में जो विरोध देखने को मिलता है जैसे- विरोध या भेद-भाव उत्पन्न नहीं होगा। यही कार्य पापी और पाप दोनों बिल्कुल भिन्न है । पाप और पापी जैनियों का स्यादवाद करता है। जैन दार्शनिकों का ऐसा दोनों एक ही हैं। विचार है यह जो सामने काला पडा है वह स्थान विशेष जैन दर्शन में से परस्पर विरोधी बातें बगैर व समय विशेष के कारण सत्य है और स्थान विशेष स्यादवाद के समझ में नहीं पा सकती। जब कोई पापी समय विशेष के कारण असत्य भी है, अर्थात् दोनों है। सामने पाता है तब देखना चाहिए कि पापी और पाप इसलिए केवल अपने मत को सत्य कहना अन्य मत को भिन्न हैं, इसलिए पापी को मारने से क्या ? परन्तु अब असत्य कहना ठीक नहीं है। हमसे कोई पाप का आचरण होता है तो सोचना चाहिए अन्त मे हम यही कह सकते हैं कि जैन दार्शनिको कि मैं और पाप दोनों भिन्न नहीं बल्कि एक ही है। की उदारता का मुख्य स्रोत स्याद्वाद ही रहा है । इस इसलिए जितना ही मैं अधिक कष्ट सहूगा उतना ही मेरे बात को ठीक प्रकार से समझने के लिए हम उनकी पाप का बोझ हल्का होता जाएगा। यहां पर जैन दार्शनिक मान्यतामों को अन्य दार्शनिको की मान्यतामों से करके अपने को अत्यन्त अहिसा की कोटिपर पहुचा देते है देख सकते । जबकि बौद्ध मंज्झिम मार्ग का अनुसरण करते हैं। (१) किसी भी प्रात्मा में मोक्ष की तीव्र अभिलाषा दर्शन में जो गति और स्थिति, एक और अनेक, उत्पन्न होने पर वह एक दिन अवश्य मोक्ष विस्था को नित्य और अनित्य, द्वैत, और ईश्वरवाद और अनीश्वर- प्राप्त होगा। वाद प्रादि दार्शनिक तत्वों को लेकर जो पचड़े खड़े होते (२) मोक्षावस्था की भावना जैन को ही हो यह है उनका भी समाधान स्याद्वाद से हो जाता है। जैन प्रावश्यक नहीं। परिकल्पना के आधार पर वस्तु के निरूपण की कठिनाई (३) जैन दर्शन से घणा होने पर भी यदि उसमे योकि हम सिद्धात के अनसार पदार्थ मोक्षेच्छा की तीव्रता हो तो वह अंत में मोक्ष को प्राप्त के रूप में उद्देश्य और विधेय समान है और रूपभेद और होगा। दष्टिभेद के कारण भिन्न दिखलाई पड़ते है । यथार्थ सत्ता औरणभित दिखलाई पडते । यथार्थ सत्ता (४) मोक्ष प्राप्त करने के लिए, जैनधर्म का ही का गतिशील स्वरूप व स्थिर स्वरूप केवल सापेक्ष और अनुकरण करें यह जरूरी नही। सोपधिक निरूपण के साथ ही मेल खा सकता है। प्रत्येक (५) जैनधर्म को माननेवाला ही स्वर्ग में जाएगा सिद्धांत की स्थापना कुछ विशेष अवस्थामो मे और अन्य नरक में जाएगे; ऐसे जैन दार्शनिकों की मान्यता विशेष काल मे या परिकल्पित रूप मे दी सत्य है और नहीं हैं। असत्य भी है। (६) जैन कुल मे उत्पन्न होने पर भी यदि पात्र नावाद को लेकर इतने उदार है कि अयोग्य हो तो नर्क में जाएगा, जबकि जैन विरोधी कुल भारतीय दर्शन मे जो घिरोध पाया जाता है कि तप से मे उत्पन्न होने पर भी यदि पात्र योग्य हो तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होगी, भक्ति से मोक्ष की प्राप्ति होगी. स्वर्ग की प्राप्ति होगी। ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होगी या योग से मोक्ष को प्राप्ति जैन दार्शनिक इतना उदार होते हुए भी जैनियों की होगी और समाज सेवा धर्म है, इन सभी का समन्वय सख्या बहुत कम है, तो इसके लिए कोई पाश्चर्य की बात स्याद्वाद मे हो जाता है। स्याद्वाद को लेकर यहा पर नहीं है । इसके लिए प्राचार्य विनोबा भावेजी के शब्द जैनियों का मत होगा कि इसमे कोई भी तप एव कर्म काफी हैं ..--. झूठा नही है, इतना ही है कि वे परस्पर की बात माने "जैनियों मे दूसरे दार्शनिकों की अपेक्षा संख्या और उसको स्थान विशेष, समय विशेष की दृष्टि से सत्य बहुत कम है । मुझसे लोग पूछते है कि भाज जैनियों या असत्य का निर्णय करें तो उनमें किसी प्रकार का की सख्या बहुत कम क्यों है ? मैं कहता हूं कि कन

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