Book Title: Anekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 246
________________ नि २१७ का रंजन, साम्राज्य का विस्तार, भौर चक्रवर्ती पद मंड- कभी न होगा। देव प्रतिमाओं का स्थान देवालय ही हैं। राने महराने लगे। भार्य संस्कृति में भाज भी विश्व को देने की क्षमता है। तब वह याचक क्यों बने। भारत की गरिमा प्रक्षुण्ण रहेगी । यवनराज को भारत छोड़ना ही होगा, छोड़ना ही होगा। उसे भारत की महानता को, पवित्रता को कलंकित करने की घुष्टता का फल भोगना ही होगा। और बत्तीस वर्ष के युवक सम्राट् की चतुरंगिणी जब झारखण्ड के मार्ग से होकर मगच पहुंची, पवन-सेना में एक भयंकर भूचाल आ गया। ईमेजिय ने जब सुना कि राजगृही, गोरयगिरि दुर्गों पर खारवेल का पताका फहरा रही है, उस पर भयानक रूप से प्रातंक छा गया। दूसरे क्षण वह और उसकी यवन सेना भारत विजय का स्वप्न छोड़, कठोर सत्य का दर्शन करके न केवल मगध से अपितु भारत की सीमा से निकल गई। (२) मगध सम्राट् ब्रहद्रथ को मारकर उनका महामंत्री पुष्यमित्र मग साम्राज्य का भोग और विस्तार कर रहा था । अश्वमेघ यज्ञ करके चक्रवर्ती पद प्राप्त कर लिया था। वाल्हीक का पचन नरेश देंमेत्रिय पवर्ती के बनने की महत्त्वाकांक्षा में निरन्तर प्रागे बढ़ता जा रहा था। वह शौरसेन, पांचाल और साकेत विजय करके मगध साम्राज्य को निगलता हुआ पाटलीपुत्र तक पहुच चुका था । सम्राट् खारवेल ने गम्भीरता से सोचा- क्या इस अवसर पर यह उचित होगा कि एक आर्य वंश को पराभूत करके अपने अपमान का प्रतिशोध लू। मेरे इस प्रति शोध में भारतमाता की पराधीनता निहित है । प्रपने सम्राट् स्वामी का वध करने वाले पुष्यमित्र का चक्रवर्ती पद उसके बल में नहीं, छल में छिपा है। उस छल का जाल समय पर तोड़ा जा सकेगा। किन्तु यदि यवनराज मैत्रय को मगध पर अधिकार करने का अवसर मिल गया तो भारत की प्रार्य सभ्यता यवन साम्राज्य की ज्वाला में भस्मसात हो जाएगी। तब भारत माता के चरणों को कोटि-कोटि भारतीयों का अच्छे नहीं, वनों की लोह बेड़ियाँ सजायेंगी। क्या मेरा शौर्य, मेरा प्रभाव और मेरी यह विशाल चतुरंगिणी विदेशी यवनों की भाकांक्षापूर्ति का साधन होगी । सम्राट् ने सोचा, फिर सोचा। एक ओर वे देख रहे थे- उनकी विजय वैजयन्ती प्रतापशाली सात बाहन वंशी शातकर्ण के प्रासादों पर फहरा रही हैं, मूषिक, राष्ट्रिक, योजक सब राजा छत्र और भिरंगार हीन भूमि पर लोट रहे हैं। सारे दक्षिणपथ में 'जय कलिंग जिन' का नाद हो रहा है। दूसरी ओर उन्होंने देला शौरसेन, पांचाल मौर साकेत के विशाल देवालय भूमिसात् हो रहे हैं। देव प्रतिमाएं सिंहासनों के पाये बन रही है। मायं संस्कृति कन्बार और वाल्हीक की भोर मुंह फाड़े दीन भाव से बेच रही है। सम्राट् खारवेल अपनी विजय की सुरभि से मगध वासियों को प्राकर्षित करके जब लौटे तो भारत माँ ने उनकी भारती उतारी, देवताओं ने उनके मार्ग फूलों से भर दिए । (३) ठीक चार वर्ष बाद पुष्पमित्र ने अपने पराभव की वेदना के चिन्ह और परिजनों में ध्यान प्रवहेलना को के लिए दुबारा श्रश्वमेघ यज्ञ किया। विभिन्न राज्यों के राजाओं द्वारा भेंट किवा ग्रहण करके पुनः चक्रवर्ती पद धारण किया । वह अपने राज्य की सुरक्षा की ओर विशेष ध्यान देने लगा । और राज्य का पुनर्गठन करके अपने भाठों पुत्रों को उपरिक बनाकर विभिन्न नगरों का दायित्व सौंप दिया। प्रजाजन को सन्तुष्ट करने के लिए धर्म के नाम पर शासन करने लगा। उसने राज्य की सीमाओं पर चर भेज दिए। धायुक्तकों के अधीन एकएक अक्षौहिणी कर दी। सीमान्त दुर्गों का उद्धार करके भटाश्वपतियों के अधीन कई-कई प्रक्षौहिणी मेज दी। दिन रात युद्धाभ्यास होने लगा । लगता था मानों सारा मगध साम्राज्य एक विशाल युद्ध शिविर बन गया है। युद्ध कला के मर्मज्ञ सम्राट् खारवेल से विश्वस्त उनके अन्तर से जोरों की हुक उठी-"नहीं, यह चरों द्वारा इन युद्धाभ्यासों और सतर्क तैयारियों का पता

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