Book Title: Anekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 225
________________ अनेकान्त २०२, वर्ष २६, कि० ४-५ अलबत्ता एक आश्चर्य उनकी दृष्टि से छिपा नहीं रह सका। वहाँ एक नई दीवाल बन चुकी है, जो सन्ध्या तक नही थी और उसमें एक तिरवाल बना हुआ है। अवश्य ही किन्ही धदृश्य हाथों द्वारा यह रचना हुई थी तभी से लोगों ने इस वेदी के भगवान का नाम तिरवाल वाले बाबा' रख दिया। कहते है, जिनके अदृश्य हाथों ने मिनटों में एक दीवार खड़ी करके भगवान के लिए तिरवाल बना दिया, वे ही अपने धाराध्य प्रभु के भक्तों की प्रभु के दरबार में हाजिर होने पर मनोकामना भी पूरी करते है । 1 जिस क्षेत्र पर देवी चमत्कार होते हैं, वहाँ कब, क्या, किसे कितने चमत्कारों के दर्शन हुए, इस सब का कोई लेखा जोखा नहीं होता । यहाँ के कुएँ में भी बड़ा चमत्कार है। इसके जल से अनेकों रोग शान्त हो जाते हैं। प्राचीन काल में आसपास के राजा और नवाब इस कुएं का जल मगाकर काम मे लाते थे । आचार्य जिन प्रभ सूरि ने 'विविध तीर्थ कल्प' के अहिच्छत्र कल्प मे लिखा है- संख्यावती नगरी मे भगवान पार्श्वनाथ कायोत्सर्ग धारण करके खड़े हुए थे। पूर्व खड़े निबद्ध वैर के कारण कमठासुर ने उन्हें नाना प्रकार के उपसर्ग किये। भगवान द्वारा विगत जन्म मे किये हुए उपकार का स्मरण करके नागराज धरणेन्द्र अपनी अग्रमहिषी के साथ वहाँ आया और महस्र फणमण्डल भगवान के ऊपर उठा लिया। तबसे इस नगरी का नाम 'अहिच्छत्र' पड़ गया । (मप्रो पर तीसे नयरीए अहिच्छत्त ति नामं सजायं । ) वहाँ बने हुए प्राकार मे वह उरग रूपी धरणेन्द्र कुटिल गति से जहाँ से गया, वहाँ ईटों की रचना करता गया । कहीं कही अब भी यहाँ प्राकार मे ईंटों की यह रचना दिखाई पड़ती है। सघ ने वहाँ पार्श्वनाथ स्वामी का एक विशाल मन्दिर बनवाया । वहाँ की उत्तरानिघाना वावड़ी के जल में स्नान करने से कुष्ठरोग शांत हो जाता है। इसी प्रकार वहाँ के कुए का जल भी बहुत धारोग्यप्रद बताया है और वहाँ के उपवन मे बनेको बहुमूल्य धौषधियां उत्पन्न होती है-जैसे जयंती, नागदमनी, सहदेवी, मपराजिता सकली, स्वर्णशिला, मुशली, सोमली, रविभक्ता, निर्विषी, मोर शिखा, विशल्या पादि । पुरातत्व एवं इतिहास - यह नगरी भारत की प्राचीनतम नगरियों मे से एक है। भगवान ऋषभ देव ने जिन ५२ जनपदो की रचना की थी, उसमे एक पाचाल भी था । परवर्ती काल में पाचाल जनपद दो भागों में विभक्त हो गया- उत्तर पाचाल और दक्षिण पांचाल । पहले सम्पूर्ण पंचाल की ही राजधानी हिन्छन थी। श्रहिच्छत्र किन्तु विभाजन हो जाने पर उत्तर पचाल की राजधानी अहिच्छत्र रही और दक्षिण पचाल की कम्पिला । जैन साहित्य के इन दो भागो का प्रायः उल्लेख मिलता है। महाभारत काल मे अहिच्छत्र के शासक द्रोण थे और कम्पिला के शासक द्रपद थे। कही कही इस नगरी का नाम संख्यावती और अहिच्छत्रा भी मिलता है। कौशाम्बी के निकट पवोभौसा क्षेत्र की गुफा मे स्थित एक शिलालेख में इसका नाम अधिक्षका भी मिला है। वैदिक साहित्य में इन नामो के अतिरिक्त परिचत्रा, छत्रवती और अहिक्षेत्र भी मिलते है। सभवत. विभिन्न कालों में वे विभिन्न नाम प्रचलित रहे। किन्तु दूसरी से लगभग छवी शताब्दी तक अहिच्छत्रा नाम अधिक प्रचलित रहा। यहाँ की खुदाई मे दूसरी शताब्दी की एक यक्ष प्रतिमा मिली थी तथा गुप्त काली मिट्टी की मोहर मिली थी, उन दोनो पर ही अहिच्छत्रा नाम मिलता है । 'अहिच्छत्रा' नगर का यह नाम सर्प द्वारा छत्र लगाने के कारण पड़ा था, इसमे जैन, वैदिक और बौद्ध तीनो ही धर्म सहमत है । किन्तु इन धर्मो ने इस सम्बन्ध मे जो कथानक दिये है, उनमे जैन कथानक अधिक प्रामाणिक प्रतीत होता है । इसके अनेक कारण है । भगवान पार्श्वनाथ ऐतिहासिक महापुरुष थे । उनका प्रभाव तत्कालीन सम्पूर्ण भारत में विशेषतः उत्तर और पूर्व भारत मे अत्यधिक था । वैदिक साहित्य भी उनके प्रभाव से अछूता नहीं रहा। उनके प्रभाव के कारण वैदिक ऋषियों की चिन्तन धारा बदल गई और उनके चिन्तन की दिशाहिंसामूलक यशो और क्रिया काण्डो से हटकर प्रध्यात्मवादी उपनिषदों को रचना की ओर मुड़ गई।

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