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२००, वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
धरणेंद्र ने सर्प का रूप धारण करके पार्श्वनाथ को ऊपर मृत्यु के सम्बन्ध में पूछा। गुरु बोले-महिला के निमित्त उठा लिया और सहस्र फण का मण्डप बनाकर उनके ऊपर से तुम्हारी मृत्यु होगी। यह सनकर शिवशर्मा एकन्त वन तान दिया। देवी पद्माहती भक्ति के उल्लास में वज्रमय में जाकर तपस्या करने लगा। वनदेवियाँ उन्हे याहार छत्र तानकर खड़ी हो गई। इससे सवर देव पार्श्वनाथ के देती थी। साथ-साध धरणेद्र और पद्मावती के ऊपर भी क्षुब्ध हो एक दिन गगादेव नट अपनी पुत्री मदनवेगा और उठा । उसने उनके ऊपर भी नाना प्रकार के ककश वचना साथियों के साथ उसी वन में प्राकर कराया से प्रहार किया। इतना ही नहीं, प्रॉधी, जल, यर्षा, उपल दुष्टि मदनवेगा पर पड़ी। वह देखते ही उस पर मोहित वर्षा प्रादि द्वारा भी चोर उपद्रव करने लगा।
हो गया। मदनवेगा की भी यही दशा हुई। नट ने दोनों किन्त पार्श्वनाथ तो इन उपद्रवों, रक्षा प्रयत्नो अोर का विवाह कर दिया । अब शिवशर्मा नट मण्डली के साथ क्षमा-प्रसगो से निलिप्त रहकर आत्म-ध्यान मे लीन थे। रहने लगा। उन्हे तभी केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया। तब चैत्र कृष्णा एक बार नट-मण्डली भ्रमण करती हुई अहिच्छत्रपुर चतुर्थी का दिन था। इन्द्रो और देवो ने आकर भगवान पाई। सयोग से शिवशर्मा की भेट अपने पूर्व गुरु मनि के ज्ञान कल्याणक की पूजा की । जब इन्द्र ने वहां अपार दभवर से हो गई। उन्होने उसे समझाया और जो अनुजल देखा तो उसने इसके कारण पर विचार किया। वह
चित कृत्य किया है, उसके त्याग का उपदेश दिया। गुरु सवर देव पर अति ऋद्ध हया । सवर देव भय के मारे
का उपदेश सुनकर उसे भी अपने कृत्य पर पश्चाताप कांपने लगा । इन्द्र ने कहा-तेरी रक्षा का एक ही उपाय
हा । वह प्रायश्चित लेकर पुन मनि बन गया। घोर है कि तू प्रभु से क्षमा याचना कर । सबर प्रभु के चरणो
तप किया । और बराड देश की वेत्तातट पुरी में जाकर में जा गिरा। तत्पश्चात, इन्द्र की आज्ञा से धनपनि कुवेर
उसे मोक्ष हो गया। ने वही पर समवसरण की रचना की और भगवान पाश्व
अतिशय क्षेत्र-भगवान पार्श्वनाथ के सिर पर धरणेद्र नाथ का वहाँ पर प्रथम जगत्कल्याणकारी उपदेश हुमा।
द्वारा सर्प-फण लगाने और भगवान को केवल ज्ञान उत्पन्न नागेद्र द्वारा भगवान के ऊपर छत्र लगाया गया था,
होने के पश्चात्, लगता है, तहाँ की मिट्टी में ही कुछ अलौइस कारण इस स्थान का नाम सख्यावती के स्थान पर
किक अतिशय आ गया । यहाँ पर पश्चाद्वर्ती काल में अहिच्छत्र हो गया । और भगवान के केवल ज्ञान कल्याणक
अनेको ऐसी चमत्कारपूर्ण घटनाये घटित होने का वर्णन की भूमि होने के कारण यह पवित्र तीर्थक्षेत्र हो गया।
जैन साहित्य मे अथवा अनुथतियो मे उपलब्ध होता है । -मुनि श्रीचन्द कृत 'कहकोस' नामक अपभ्रश कथा
इन घटनाग्रो मे आचाय पात्रकेशरी की घटना तो सचमच कोष (सन्धि ३३ कडवक १ से ५, पृष्ठ ३३३ से ३३५)
ही विस्मयकारी है । प्राचार्य पात्रकेशरी का समय छठवी, मे यहा के एक व्यक्ति की कथा अाती है, वह इस प्रकार सातवी शताब्दी माना जाता है। (स्व० पं० जुगलकिशोर
मुख्तार और स्व० प्रो० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य के मताअहिछत्रपुर नगर मे शिवभूति विप्र रहता था। उसके
नुमार आचार्य पात्रकेशरी का आनुमानिक समय छठी दो पुष थे-सोमशर्मा और शिवशर्मा । छोटे पुत्र का मन
शताब्दी का अन्तिम अथवा सातबी शताब्दी का प्रारभिक पढ़ने मे नही लगता था। इससे पिता उसे कोडो से पीटा
काल है।) वे इसी पावन नगरी के निवासी थे। उस समय था। और उसका नाम नारन्तक रख दिया था। नगर के शासक अवनिपाल थे । उनके दरबार में पाच सौ शिवशर्मा को इससे इतनी मानसिक ग्लानि हुई कि वह ब्राह्मण विद्वान थे, जो प्रायः तात्विक गोष्ठी किया करते घर से निकल गया और दमवर मनि के पास निम्रन्थ
थे। पात्रकेशरी इनमे सर्वप्रमुख थे । एक दिन यहां के दिगम्बर मुनि बन गया । एक दिन गुरु से उसने अपनी
पाश्र्वनाथ मन्दिर मे ये विद्वान गोष्ठी के निमित्त गये । वहा एक मुनि-जिनका नाम चारित्रभूषण था-प्राचार्य
१. पासनाह चरित