Book Title: Anekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 224
________________ पहिच्छत्र समन्तभद्र विरचित देवागम स्तोत्र का पाठ कर रहे थे । पाजकेशरी ध्यानपूर्वक उसे सुन रहे थे। उनके मन की अनेक शंकायों का समाधान स्वत होता गया । उन्होने पाठ समाप्त होने पर मुनिराज से स्तोत्र दुबारा पढने का अनुरोध किया। मुनिराज ने दुबारा स्तोत्र पढा । पात्रकेशरी उसे सुनकर अपने घर चले गये और गहराई में तत्व- चिन्तन करने लगे। उन्हें अन्य दर्शनो की अपेक्षा जैनदर्शन सत्य लगा । किन्तु अनुमान प्रमाण के सम्बन्ध मे उन्हे अपनी शका का समाधान नही मिल पा रहा था । इससे उनके चित्त में कुछ उद्विग्नता थी । तभी पद्मावती देवी प्रगट हुई और बोली - "विप्रवर्य ! तुम्हे अपनी शका का उत्तर कल प्रातः पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा द्वारा प्राप्त हो जायेगा।" दूसरे दिन पात्रकेशरी पार्श्वनाथ मन्दिर मे पहुचे । जब उन्होने प्रभु की मूर्ति की ओर देखा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नही रहा । पार्श्वनाथ प्रतिमा के फण पर निम्नलिखित कारिका लिखी हुई थी अन्यथानुपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यचानुपन्नत्व यत्र तत्र प्रयेण किम् ॥ इस कारिका को पढ़ते ही उनकी शका का समाधान हो गया । उन्होने जैन धर्म को सत्य धर्म स्वीकार करके अङ्गीकार कर लिया। तत्पश्चात् वे जैन मुनि बन गये। अपनी प्रकाण्ड प्रतिभा के कारण जैन दार्शनिक परम्परा के प्रमुख माचायों मे उनकी गणना की जाती है। - आराधना कथाकोश कथा - १ पामकेशरी के पश्चात सभी दार्शनिक जैन माचायों ने अपने ग्रन्थों में और जैन राजाओं ने शिलालेखो मे इस घटना का बड़े चादर पूर्वक उल्लेख किया है। वादिराज सूरि ने 'न्यायविनिश्चयकार' नामक अपने भाष्य मे उक्त कारिका के सम्बन्ध मे लिखा है -- उक्त श्लोक पद्मायती देवी ने तीर्थङ्कर सीमन्धर स्वामी के समवशरण में जाकर गणधरदेव के प्रसाद से प्राप्त किया था । श्रवण बेलगोला 'मल्लिषेण प्रशस्ति' नामक शिलालेख में (०५४/६७) जो एक सं० १०५० का है, लिखा 爱 महिमा सपात्र केसरि गुरोः परं भवति यस्य भक्त्यासीत् । २०१ पद्मावती सहाया त्रिलक्षण - कदर्थनं कर्तुम् ॥ -उन पात्र केशरी गुरु का बड़ा माहात्म्य है जिनकी भक्ति के वश होकर पद्मावती देवी ने 'त्रिलक्षण कदर्थन' की रचना में उनकी सहायता की । यह ज्ञातव्य है कि उपर्युक्त कारिका के आधार पर ही प्राचार्य पात्रकेशरी ने 'त्रिलक्षण कदर्थन' नामक महत्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ की रचना की थी । - इसी प्रकार की एक दूसरी चमत्कार पूर्ण घटना का उल्लेख 'आराधना सार कथाकोप' (कथा ६० में उपलब्ध होता है । उस समय इस नगर का शासक वसुपाल था । उसकी रानी का नाम वसुमति था। राजा ने एक बार महिन्छ नगर मे बड़ा मनोज सहस्रकूट चैत्यालय का निर्माण कराया और उसमे पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा विराजमान कराई। राजा की श्राज्ञा से एक लेपकार मूर्ति के ऊपर लेप लगाने को नियुक्त हुआ । लेपकार माम भक्षी था। वह दिन मे लेप लगाता था किन्तु रात मे लेप गिर पड़ता था। इस प्रकार कई दिन बीत गये। लेपकार के ऊपर राजा अत्यंत क्रुद्ध हुआ और उसने लेपकार को मार-पीट कर भगा दिया। एक दिन अन्य लेपकार आया उसके मन मे स्वतः भावना हुई और उसने किन्ही मुनि के निकट जाकर कुछ नियम लिए, पूजा रचाई। दूसरे दिन से उसने जो लेप लगाया, वह फिर मानो व बन गया। यहाँ क्षेत्र पर एक प्राचीन शिखरबन्ध मन्दिर है। उसमे एक वेदी तिरवाल वाले बाबा की है। इस वेदी में भगवान पार्श्वनाथ की हरित पन्ना की एक मूर्ति है तथा भगवान के चरण विराजमान है। इस तिरवाल के सम्बन्ध मे बहुत प्राचीन काल से एक किम्बदन्ती प्रचलित है । यह कहा जाता है कि जब इस मन्दिर का निर्माण हो रहा था, उन दिनों एक रात को लोगों को ऐसा लगा कि मन्दिर के भीतर चिनाई का कोई काम हो रहा है। ईटो के काटने छांटने की आवाज स्पष्ट सुनाई दे रही थी। लोगों के मन मे दुःकार्य होने लगी और उन्होंने उसी समय मन्दिर खोलकर देखा तो वहाँ कुछ नहीं था । १. मुनि श्री चन्द्रकृत कहकोषु संधि ६ कडवक भ, पृ. ६६

Loading...

Page Navigation
1 ... 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272