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१६८, र्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
मुनिराज के सहज शान्ति के साथ उत्तर दिया- एक पतली-सी रेखा दिखाई पड़ने लगी और उस रेखा भद्रे ! तुम भ्रम मे हो । जिसमे अतृप्ति हो, आकुलता हो के आलोक मे ही वह अपने को भी देख सकी है । पहिले उसमे सुख कहाँ ? वासना से क्या कभी किसी को तृप्ति वह विलास के नीचे भी नि सत्व थी और आज ! उस मिल सकी है ? वासना खाज को खुजाते समय सुख स्तूप को ठुकराकर भी वह वैभव सम्पन्न हो गई है । अब मालूम पड़ता है किन्तु क्या वह वास्तिविक सुख है ? सुख उसने जो पाया है, वह तो जन्म-जन्मान्तर का संचित कोष वह जिसका परिणाम सुख हो, जिसमे शान्ति हो, सुख हो। है । अब इस कोप ने मिलकर उसके रूप को प्रभासित क्या वासना का सुख ऐसा ही है ?
कर दिया है। किन्तु रूप की इस प्रभा में आज स्निग्धता बुद्धिषणा की मूर्खता पर यह करारा तमाचा लगा। नही, अपितु अातंक व्याप्त हो गया है। अब रूप लुब्ध वह तिलमला उठी। उसने अपना अन्तिम तीर निकाला। युवक उसके चारों ओर नही मडराते । अब उसके प्रासाद विलास और उल्लास सहज प्राप्य नहीं है तो उनका भोग मे पायलो की झनक और मुद्रामो की खनक नही सुनाई ही तो मानव जीवन की चरितार्थता है। इस अवसर को पड़ती। अब उसने स्वेच्छा से नगर बध का गौरव त्याग गवाकर ही तो मानव जीवन, का रस सूख जाता है। दिया है। किन्तु विचित्रमति मदन की पुकार को न ठुकरा मानव जीवन मे तब रह ही क्या जाता है। इस लिए सके । वे आज बुद्धिपेणा के रूप की अग्नि में शलम बनजीवन के जो क्षण विलास और वासना मे बीत जाए। कर कूद पडग। उनको ही मै धन्य समझती हूँ।
यह रूप । आह ! मुनि के हृदय से एक नि श्वास मुनिराज बोले-भद्रे ! गलत समझी हो। वे क्षण
निकल गई। सत्य नही । जीवन की यही सबसे बड़ी बिडम्बना है। वे अमर नही, स्थायी नही, क्षण भगुर है। जिम रूप और
आकस्मिक रूप से आए हुए मुनिराज को देखकर यौवन पर मनुष्य को गर्व है, वह क्षणिक है । किन्तु मानव
बुद्धिपेणा चकग गई । उसने श्रद्धा से विनत होकर निवेजीवन का सत्य क्षणिक सुख नही, अनन्त सुख है। वह
दन किया- मेरे अहो भाग्य है । अाज धर्म अप्रत्याशित वासना के राजपथ से नही। त्याग के विपम मार्ग से चल रूप से मेरे द्वार पर पाया है। विराजिए धर्म राज । कर ही मिल सकेगा?
किन्तु मोहान्ध विचित्रमति पर इसका कोई प्रभाव __बुद्धिपणा का गर्व नष्ट हो गया। मुनिराज ने उसकी
नही पडा । वे बोले–मै भिक्षुक हूं। क्या यह भिक्षा आखो में उंगली डालकर उसे सत्य के दर्शन करा दिए थे। ।
भिक्षा मझे मिल सकेगी। और जब वह वापिस लौटी तो उसकी देह पर प्राभूषण
बुद्धिपणा इस अकल्पित उत्तर पर सहसा विश्वास न का चिह्न तक न रह गया था। आज उमने जो पाया था,
कर सकी-एक मुनिराज ने मुझे नरक से निकालकर-- वह अपूर्व था और उस पर उसे सन्तोष था।
यहा खड़ा किया था और आप मुझे यहा से धकेलकर फिर
नरक मे डालना चाहते है । क्या हमारे जीवन का एकमुनिराज विचित्रमति चर्या के लिए नगर में जा रहे
मात्र लक्ष्य नरक ही है ?
विचित्रमति ने सुना। वे चौक पड़े-क्या कहा, एक थे । यकायक उसकी दृष्टि बुद्धिषेणा पर जा टिकी। वह खड़ी-खड़ी अपने विराट जीवन का अवलोकन कर रही ।
मुनिराज ने तुम्हें नरक से निकाला ? कौन थे वे मुनि
राज? थी। उसने पाया कि उसके सारे जीवन मे कालिमा-केवल उनका पवित्र नाम प्रीतकर मनिराज है। कहतेकालिमा ही पुती हुई है। उसके जीवन का लक्ष्य ही उस कहते बद्धिषेणा ने श्रद्धा से हाथ जोड़कर परोक्ष प्रणाम कालिमा को समेटना रहा है । जब से उसने मुनिराज से किया। सुना कि वासना जीवन का चरम सत्य नही है चरम सत्य क्या कहा, प्रीतंकर मुनिराज ! मेरे गुरु ! मुनि के है त्याग, तबसे उसके अन्वकारपूर्ण जीवन में प्रकाश की मुख पर कालिमा पुत गई । पश्चात्ताप से उनका हृदय