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नैतिक-कथा
उत्थान-पतन
-श्री ठाकुर
(१)
भर उठा वह, अंग अंग ऐंठने लगे उसके और आवेग में बुद्धिषेणा ने जब लेटे ही लेटे अगडाई ली तो मानो उसने बुद्धि को अपने भुजपाश मे जकड़ लिया। बद्धि ने कक्ष की छाती फाड़कर एक बिजली की रेखा खिच गई। इसका कोई विरोध नहीं किया, वह सर्वान्त करण से मोम श्रेष्ठी रामभद्र ने जाने कितनी देर से तृषित नेत्रो से के अंक मे लिपट गई। उसकी ओर देख रहा था। बुद्धिषणा ने मञ्जुल हास्य भवन भास्कर ललचाए से देखते रहे, पवन बुद्धि के बिखेरते हुए उसकी ओर देखा । गवाक्ष में लटकी मोतियों आँचल से सिर धुनता रहा । की माला में अरुणिमा झाक रही थी। सोम को आज इस तभी मोम पूछ बैठा-देवी ! तुम अभी क्या मोच अरुणिमा में एक नयापन अनुभव हुअा अपूर्व और उन्माद रही थी? कारी। उसे स्मरण हो पाया-आज तो मदनपर्व है। आर्य ! मैं सोच रही थी, क्या किसी के प्रति प्रामक्ति तभी बासन्ती बयार ने गवाक्ष के रास्ते से चुपके से प्रवेश ही जीवन का चरम लक्ष्य है ? उसने मुस्कराते हुए उनर किया और बुद्धिषणा की लटो से खेलने लगी।
दिया। सोम ने बधाई दी-देवी। अाज मदनपर्व है। मेरी तो तुम किस निष्कर्ष पर पहच सकी देवी बधाई स्वीकार करें।
मै तो जीवन में जिस एक निर्णय पर पहची है, वह बुद्धि गर्व मे भर उठी। नगर की वह सर्वश्रेठ सुन्दरी यही है जो अब है । मै जीवन का अर्थ समझती हु वासना है, नगर बधू का उसे सम्मानपूर्ण पद प्राप्त है। अयोध्या अतृप्ति, आसक्ति और मदिग। मै सोच भी नहीं पाती, के सारे युवक उसकी एक मुस्कुराहट के लिए लालायित क्या इनके सिवाय भी कोई जीवन है ? रहते है। राजकुल के रसिक भौरे उसकी रूप सुगन्धि से किन्तु जीवन की रिक्तताए क्या केवल वासना और आकर्षित होकर रसपान के लिए मंडराया करते है । पाँच मदिरा से ही भर सकती है ? क्या यही एक दिन वितृष्णा वर्ष से वह नगर की हृदयेश्वरी बनी हुई है। उसके न बन जाएगी, सोम ने बुद्धि को टटोलते हुए पूछा। मन जीवन में अनेको ने स्थान बनाना चाहा और निराश होकर की प्राशका का प्रश्न बन कर-फूट पड़ी। चले गये । किन्तु
किन्तु इस प्रश्न ने बुद्धि को चचल कर दिया। वह सोचने लगी-श्रेष्ठी सोमभद्र के प्रति मेरे मन मे ।
उसने सोम को जोर से जकडते हुए कहा-आर्य पुत्र जो एक लगाव, एक मोह जाग उठा है, उसने मुझे चारो।
वितृष्णा की बात न करे। इस अक मे स्थान पाकर अोर से जकड़ लिया है। सचमुच क्या यह प्रासक्ति ही वितष्णा कैसी? जनम जनम की साध के बाद ही मुझे जीवन का चरम लक्ष्य है ? ।
मेरे काम देव मिले है। तब अपने कामदेव से रति को बह उठी, मदिरा पात्र से रत्न चषक में मदिरा उडेल वितृष्णा हो जाए। यह क्या कभी सम्भव हो सकेगा? कर अपने पोठो से लगाई और मुस्कराकर सोम के मुख और उसने पडे-पडे ही मदिरा पात्र से चषक में फिर मदिरा में लगा दी। सोन की बधाई का ही उत्तर था यह। उड़ेंल कर सोम के मुंह से लगा दी और सोमने भी अांखों सोम के प्यासे अधर मधुपान से तृप्त न हो सके। वह मे कामना भरकर अपने हाथों से बुद्धि को एक चपक पान अतृप्ति एक आकांक्षा बन कर पुकार उठी। उन्माद मे करा दिया।
वितणाव मिले
म के म