________________
१७०, वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
या पान्तरिक जगत् की प्रकृति अथवा कारण मे किसी भी छिपा नही रहता है जैसे कि तिल मे तैल होता है । परन्तु प्रकार का भेद नही मानता था।
घोड़ा बनाने वाले बढई की बुद्धि में वह कल्पनारूप से जैन विचारप्रवाह का स्वरूप
होता है और वह काष्ठखण्डो के द्वारा मूर्तरूप धारण ऊपर के तीनो विचारप्रवाहों को क्रमशः हम यहाँ करता है। यदि बढई चाहता तो इन्ही काष्टखण्डों से प्रकृतिवादी, परमाणुवादी और ब्रह्मवादी के नाम से घोड़ा नहीं बना करके गाय, गाडी या दूसरी वैसी वस्तु पहचानेंगे । इनमे से पहले के दो विचारप्रवाहो से विशेष बना सकता था । तिल मे से तेल निकालने की बात इससे मिलता-जुलता और फिर भी उससे भिन्न ऐसा एक चौथा
बिलकुल भिन्न है। कोई तेली चाहे जितना विचार करे
१ विचार प्रवाह भी साथ साथ मे प्रवत्त था। यह विचार या इच्छा करे फिर भी वह तिल मे से घी या मक्खन तो प्रवाह था तो परमाणुवादी, परन्तु वह दूसरे विचारप्रवाह नहीं निकाल सकता है। इस प्रकार चतुर्थ विचार प्रवाह की तरह बाह्य विश्व के कारणभूत परमाणुगो को मूल से परमाणुवाद होने पर भी एक अोर परिणाम और आविही भिन्न भिन्न प्रकार के मानने की तरफदारी नही करता र्भाव मानने की बाबत मे प्रकृतिवादी विचार प्रबाह के था; परन्तु मूल मे सभी परमाणु एक समान प्रकृति के है साथ मिलता था और दूसरी ओर कार्य तथा उत्पत्ति की यह मानता था और परमाणुवाद स्वीकार करने पर भी बाबत मे परमाणुवादी दूसरे विचार-प्रवाह से मिलता था। उसमे से केवल विश्व उत्पन्न होता है यह नही मानता यह तो बाह्य विश्व के सम्बन्ध में चतुर्थ विचार था । वह प्रकृतिवादी की तरह परिणाम और आविर्भाव
प्रवाह की मान्यता हुई। परन्तु आत्मतत्त्व के सम्बन्ध में मानता था, इसलिए वह यह कहता था कि परमाणुपुञ्ज तो इसकी मान्यता ऊपर के तीनो विचारप्रवाहो की अपेक्षा मे से वाह्य विश्व अपने आप परिणमता है इस प्रकार
भिन्न थी। वह मानता था कि देह भेद से प्रात्मा भिन्न इस चौथे विचार प्रवाह का झुकाव परमाणुवादी की भूमि है। परन्तु ये सब प्रात्माएँ देशदृष्टि से व्यापक नहीं है का के ऊपर प्रकृतिवाद के परिणाम की मान्यता की तथा केवल तटस्थ भी नही है। वह यह मानता था ओर था।
कि जिस प्रकार बाह्य विश्व परिवर्तनशील है उसी प्रकार उसकी एक विशेषता यह भी थी कि वह समग्र बाह्य आत्माएं भी परिवर्तनशील है और प्रात्मतत्त्व सकोचविश्व को प्राविर्भाव वाला न मान करके उसमे के कितने विस्तारशील है । इसलिये यह देहप्रमाण है। ही कार्यों को उत्त्पत्तिशील भी मानता था। वह यह कहता यह चतुर्थ विचार प्रवाह ही जैन तत्त्वज्ञान का प्राचीन था कि बाह्य विश्व मे कितनी ही वस्तुएं ऐसी है कि जो मूल है। भगवान महावीर से बहुत समय पहले से यह किसी पुरुष के सिवाय अपने परमाणुरूप कारणो मे से विचार प्रवाह चला आता था और वह अपने ढग से विकउत्पन्न होती है। वैसी वस्तुएं तिलमे से तैल की तरह सित होता तथा स्थिर होता जाता था। आज इस चतुर्थ अपने कारण मे से केवल आविर्भूत होती है। परन्तु विचार प्रवाह का जो स्पष्ट विकसित और स्थिर रूप बिलकुल नवीन उत्पन्न नही है । जव कि बाह्य विश्व मे हमको प्राचीन या अर्वाचीन उपलब्ध जैनशास्त्रों मे दृष्टि बहुत सी वस्तुएं ऐसी भी है जो अपने जड़ कारणो मे से गोचर होता है वह अधिक अंश में भगवान महावीर के उत्पन्न होती है परन्तु अपनी उत्पति में किसी पुरुष के चिन्तन का प्राभारी है। जैन मत की श्वेताम्बर और प्रयत्न की अपेक्षा रखती है। जो वस्तुए पुरुष के प्रयत्न दिगम्बर दो मुख्य शाखाएं है। दोनो का साहित्य भिन्नकी सहायता से जन्म लेती है, वे वस्तुएं जड़ कारणो मे भिन्न है; परन्तु जैन तत्त्वज्ञान का जो स्वरूप स्थिर हुआ तिल मे तेल की तरह छिपी हुई नही रहती है परन्तु वे है वह दोनो शाखाओं मे थोड़े से फेरफार के सिवाय एक तो विलकुल नवीन ही उत्पन्न होती है। जिस प्रकार कोई समान है। यहाँ एक बात खास अङ्कित करने योग्य है और बढ़ई विभिन्न काष्ठखण्डो को एकत्रित करके उनसे एक वह यह कि वैदिक तथा बौद्धमत के छोटे बड़े अनेक फिरके घोड़े का निर्माण करता है तब वह घोड़ा काष्ठखण्डो में है। उनमे से कितने ही तो एक दूसरे से बिलकुल विरोधी