Book Title: Anekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 204
________________ कविवर वादीभसिंह सूरि और उनकी बारह भावनाएँ इसके ऊर्ध्व-मध्य और अघ' तीन भेद है। यह घनोदधि तो उनका पाना भी व्यर्थ है। जैसे खेत वगैरह अच्छे भी वातवलय, धनवातवलय और तनुवातवलय से वेष्टित है। रहें पर उनमें बीज बोने पर अनाज की उत्पत्ति न हो तो जन्म मृत्योः पदे ह्यात्मन्नसंख्यात प्रदेशके । उनकी अच्छाई से क्या लाभ । लोके नायं प्रदेशोऽस्ति यस्मिन्नाभूरनन्तशः॥ तदात्मन्दुर्लभं गात्रं धर्मार्थ मूढ ! कल्प्यताम् । हे पात्मन् । यह लोक असख्यात प्रदेशी है, इसका भस्मने दहतो रत्नं, मूढः कः स्यात्परो जनः ।। कोई ऐसा प्रदेश बाकी नही है, जिसमे प्राणी ने अनन्त हे पात्मन् ! जैसे भस्म के लिए बहुमूल्य रत्न को बार जन्म मरण धारण न किया हो । जलाने वाला मनुष्य अत्यन्त मूर्ख समझा जात है, उसी सत्यज्ञाने पुनश्चात्मन् ! पूर्ववत्संसरिष्यति । प्रकार केवल सासारिक सुखो के हेतु भोगोपभोग मे शरीर कारणे जन्मभावेऽपि नहि कार्य परिक्षयः॥ को नष्ट कर देने वाला मनुष्य भी महान् मूर्ख है। इसहे आत्मन् । स्व पर का यदि विज्ञान न होने पर । लिए धार्मिक कार्य करके नर देह को सफल बनाता चाहिए। तू हमेशा की तरह इस मंसार में परिभ्रमण करेगा। भव्यस्या बाह्यचित्तस्य सर्व सत्वानुकम्पिनः । क्योकि कार्य उत्पादक सामग्री के रहने पर कार्य का प्रा करणत्रय शुद्धस्य तवात्मन् बोधिरेताम् ॥ दुर्भाव अवश्य ही होता है। इसलिए तु स्व-पर के भेद हे प्रात्मन् ' भव्य बाह्य, पदार्थों से उदासीन, अहिंता विज्ञान को प्राप्त कर, जिससे संसार के दुःखो से मुक्त प्रेमी और अध करण अपूर्व करण तथा अनिवृत्ति करण रूप हो सके। परिणामो से निर्मल तेरे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और यतस्व तत्तपस्यात्मन्, मुक्त्वा मुग्धोचितं सुखम् । मम्यक्चारित्र की वृद्धि होवे । चिर स्थाय्यन्धकारोऽपि प्रकाशे हि विनश्यति ॥ धर्मानुप्रेक्षा हे पात्मन् ! जैसे प्रकाश के होने पर चिरकाल देवता भविता श्वापि, देवः श्वा धर्म पापतः । स्थित रहने वाला अन्धकार भी कूच कर जाता है उसी तं धर्म दुर्लभं कुर्या, धर्मो हि भुवि कामतः ॥ प्रकार तप के करने से प्राणी का मसार परिभ्रमण भी है अात्मन् । पाप के प्रभाव से देव भी कुत्ता हो नष्ट हो जाता है । अतएव मसार से नाता तोड़ने के लिए जाता है और धर्म के प्रभाव में कुना भी देव हो जाता तुझे तप करना उचित है । है इसलिए ऐसे दुर्लभ धर्म को धारण करना प्राणिमात्र बोधि दुर्लभानुप्रेक्षा का कर्तव्य है। धर्म करने से निश्चय ही सर्व मनोरथ पूर्ण भव्यत्वं कर्मभूजन्म मानुष्यं स्वङ्गवश्यता। हो जाते है । दुर्लभं ते क्रमादारगन् ! समवायस्तु किम्पुनः॥ पश्यात्म-धर्म माहात्म्य, धर्मकृत्यो न शोचति । हे आत्मन् । रत्नत्रय के आविर्भावजनक शक्तिरूप, विश्वविश्वस्यते चित्र सहि लोक द्वये सुखी ॥ भव्यपाना, कर्मभूमि में जन्म, मनुष्यपर्याय मुन्दर शरीर और उत्तम कुल में उत्पत्ति। इन पाँचो मे से एक-एक वाला मनुष्य शोक और अविश्वास का भाजन नहीं होता को प्राप्ति होना भी कठिन है, तब एक साथ पांचो का इस भव और पर भव में सुख एव शान्ति प्राप्त करता है। मिलना तो अत्यन्त कठिन वात है। तवात्मन्नात्मनीनेऽस्मिन् जनयतिनिमले। व्यर्थः सः समवायोऽपि तवात्मन्धर्मधीनचेत् । स्थवीयसी रुचिः स्यादामुक्तेर्मुक्तिदायिनी॥ कणि शोद्गम वैधुर्ये केदारादि गुणेन किम् ॥ हे पात्मन् । जबकि धर्मादिक कार्यों के करने से हे आत्मन् । कदाचित् भव्यत्व आदि पाँचो की एक आत्मलाभ प्रत्यक्ष स्पष्ट है, तब इस पवित्र और मुक्तिसाथ प्राप्ति भी हो जावे पर यदि धर्म में रुचि नही हो दायक जैनधर्म में मुक्ति प्राप्ति पर्यन्त मेरा अटल प्रेम रहे।

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