Book Title: Anekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 176
________________ अपभ्रंश सुलोचना चरित्र के कर्ता देवसेन १५३ के सुप्रसिद्ध कर्ता प्राचार्य प्रवर कुन्दकुन्द (प्रथम शती यह राजा सामान्यतया 'लोक्य मल्ल नाम से प्रसिद्ध था, ई०) से नितान्त भिन्न, तन्नाम कोई पर्याप्त उत्तरवर्ती बडा प्रतापी था । दक्षिण भारत का बहुभाग उसके अधीन गुरू है, जो कोई भट्टारक भी हो सकते है। प्रतिष्ठा पाठ- था, मामल्लपुरम् नगर भी उसके राज्य में ही था। प्रतकार जयसेन अपरनाम वस्तुविद के गुरु भी एक कुन्दकुन्द एब, गंडविमुक्त रामभद्र का समय भी लगभग १०४०मुनि थे जो सम्भवतया कुन्दकुन्द श्रावकाचार, अर्हत्सूत्र- १०७० ई० होना चाहिए, और उनकी तीसरी पीढी में वृत्ति, चतुर्दशी महात्म्य आदि के रचयिता है। किन्तु होने वाले देवसेन उससे लगभग ५० वर्ष उपरान्त तो इनका समय १२०० ई० के लगभग होना चाहिए। हुए होने चाहिए। उन्होंने अपने राज्य की रचना का कुन्दकुन्द नाम के और भी कई मुनि एव भट्टारक हुए है। समय राक्षस सवत्सर की श्रावण शुक्ल १४ बुधवार के हमारा अनुमान है कि प्राकृत सुलोचनाचरित्र के रचयिता दिन की थी, जो एक गणना के अनुसार ११३२ वि० स० 'श्री कुन्दकुन्दगणि' प्राकृित वैद्यगाहा के कर्ता में अभिन्न अर्थात् १०७५ ई० में पड़ता है। जिसे प० परमानन्द जी है जो हवी शती के अन्त के लगभग हए प्रतीत होते है। ने स्वीकार किया है। परन्तु अन्य गणना के अनुसार 'णव मम्मल हो पुरि णिवसते, चारुटाणे गुणगणवते' राक्षस संवत्सर १०६२-६३ ई० ११२२-२३ ई० तथा रूप में रचनास्थान का जो वर्णन किया है वह तमिल ११८२-८३ ई० में पड़ता है। इनमें से प्रथम उनके परउपदश का माम्मलपुरम् नामक नगर ही प्रतीत होता है, दादा गुरु क समय क अत्याधक निकट मार तृताय पयाप्त जिसका निर्माता महामल्ल गल्लव था। दूर पडती है अतएव ११२२-२३ ई० की तिथि ही अधिक ग्रन्थकर्ता स्वय को 'धर्माधर्म का विशेष जानने वाले सगत प्रतीत होती है। भविजन-कमल-प्रवोधन-मूर्य गणि देवसेन मनि प्रवर' बताते यह सभव है कि अपभ्रश के सावयधन दोहा और संबोधपचाशिका के कर्ता भी यही देवसेन हो, किन्तु है, जो विमलसेन मलघारि के शिप्य और णिवडिदेव दर्शनमार आदि सारत्रय या पचसार के कर्ता देवसेन से के गुरू के विषय में लिखा है - वह सर्वथा भिन्न है, और भावसग्रह के कर्ता सभवतया गड विमुक्त सीस तहो केरइ, रायभट्टणाये तकसारउ । चालुक्किय वंस हो निलउल्लंड, होतउ परवइ चार मल्लउ। इन दोनो से ही भिन्न है। जिमसे स्पष्ट है कि इन गुरू का नाम गडविगक्त प्रशस्ति मे स्मृति पूर्वकवियो-वाल्मीकि, व्यास, रामभद्र था जो चालुक्य वशी त्रैलोक्य मल्ल नाम के श्रीहर्ष, कालिदास, वाण मयूर, हनिय, गोविद, चतुर्मुख, नपति द्वारा सम्मानित हा थे। ऊपर यह भी कह पाये स्वयंभु, पुष्पदत और भूपाल में से अतिम चार के नाम कि यह गडविमुक्त रामभद्र याचार्य प्रवर वीरमेन-जिनसेन भी कालक्रमानुसार ही है और इनमे से पुष्पदत को की सन्तान परम्परा में होने वाले होटलमुक्त नामक उन निश्चित तिथि ६५६ ई० है तथा भूपाल कवि भूपालमुनिवर के शिष्य थे जिनके रावण प्रभति अन्य अनेक चतुर्विशति स्तोत्र के रचयिता गोल्लाचार्य अपरनीम चतुविशात शिष्य थे । अस्तु इस विषय में कोई सन्देह नही कि प्रस्तुत ' भूपालकवि प्रतीत होते है जो सभवतया १०वी शती के सुलोचना चरिउ के रचयिता सेन सघ के गुरू थे और अतिम पाद हुए थे। दक्षिणात्य थे। कल्याणि के उत्तरवर्ती चालुक्य वश में गडविमुक्त आदि उपाधियाँ इन गुरुओं का कर्णाटक गडावमुक्त। जयसिह प्रथम (१०११-.-.१०४२ ई०) का उत्तराधिकारी देशीय होना सूचित करती है और जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण सोमेश्वर प्रथम त्रैलोक्य मल्ल' पाहवमल्ल था जिसका उल्लेख है वह तत्कालीय नरेश त्रैलोक्यमल्ल का है। शासनकाल लगभग १०४२-१०६६ ई०) था और उसके आधार से अपभ्रश सुलोचना चइित्र के कर्ता देवजिसका उत्तराधिकारी सोमेश्वर द्वितीय भवनकमल्ल सनगा' सेनगणि का समयादि निर्धारण सरलता से हो जाता है। (१०६८-१०७५ ई.) था। सोमेश्वर प्रथम नामक

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