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कवि
कुल
कृवि धनपाल 'वकेटवंश' नामक वैश्य मे उत्पन्न हुआ था। इसके पिता का नाम माएसर और माता का नाम घनसिरि (धन श्री देवी था । प्रस्तुत धर्कट या धक्कड़ वश प्राचीन है। यह वश १ वी शताब्दी से १३ वी शताब्दी तक
,
धनपाल बहुत प्रसिद्ध रहा है और इस वश मे अनेक प्रतिष्ठित श्री सम्पन्न पुरुष और अनेक कवि
हुए हैं। भविष्य दन्त कथा का कर्ता प्रस्तुत धनपाली पावन वश में उत्पन्न हुआ था । जिसका समय १० वीं शताब्दी है। घम परीक्षा (सं० २०४४) के कर्ता हरिपेरण इसी वंश में उत्पन्न हुए थे। जम्बूस्वामि चरित्र के कर्ता वीर कवि (स० १०७६) के समय मालव देश मे षक्कड़ वंश के मधुसूदन के पुत्र तक्खडु श्रेष्ठी का उल्लेख मिलता है । जिनकी प्रेरणा से जम्बूस्वामि चरित्र रचा गया है । २ स० १२८७ के देलवाड़ा के तेजपाल वाले शिलालेख में 'धर्केट' जाति का उल्लेख है। इससे इस वंश की महत्ता और प्रसिद्धि का सहज ही बोध हो जाता है । धनपाल अपभ्रंश भाषा के अच्छे कवि थे और उन्हे सरस्वती का वर प्राप्त था। जैसा कि कवि के निम्न वाक्यों से चितिय
धरण वालि वरिण वरेण, सरसइ बहुलद्ध महावरेण ।' प्रकट है । कवि का सम्प्रदाय दिगम्बर या यह उनके भजि विजेख हियं वारि लायउ (सन्धि ५-२० ) के वाक्य से प्रगट है । इतना ही नहीं किन्तु उन्होने १६ वे स्वर्ग के रूप मे मच्युत स्वयं का नामोल्लेख किया है, यह दिगम्बर मान्यता है। धाचार्य कुन्दकुन्द की मान्यतानुसार सहलेखनाको चतुर्थ शिक्षाव्रत स्वीकार किया है। कवि के मूल गुणों का कथन १० वीं शताब्दी के प्राचार्य प्रमृतचन्द्र के पुरुषार्थ सिध्युपाय के निम्न लिखित पद्य से प्रभावित है:
प० परमानन्द जैन शास्त्री
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मद्यं मांसं क्षौद्रं पञ्चोदुम्बर फलानि यत्नेन ।
हिंसा ब्युपरतिकार्म मोक्तव्यानि प्रथममेव ।। (३-६१) 'ममं पंचुंबराई सतिए जम्मंतर समाई।"
प्राचार्य प्रमृतचन्द्र की इस मान्यता को उत्तरवर्ती विद्वान् प्राचार्यों ने (सोमदेव,
धक्कड
सि माएसर हो समु० मवि ।
सिरिदेवि सुरण विरइउ सरसइ संभविरण |
( अन्तिम प्रशस्ति)
२ -- ग्रहमालयम्मि धरण- करणदरसी, नयरी नामेरा सिंधु वरिसी । तहि स-तिल, यह बस बंद गुसलिलउ रामेण सेट्ठि लक्खवसई, जस पउहु जामु तिहूमरिण रसइ । (vig safer) सहोदुम्बर पञ्चकैः । ग्रहावेते गृहस्थानामुक्ता मूल गुला ( उपासका २२ २७० )
श्रुतौ । महू मज्भुमंत विरईचिता श्री पुरण उंबराता पंचव्हं । मूलगुला हवंति फुड, बेस विरयम्मि योनीमा हिंसामा
मद्य मांस-मधुन्धुज्भेत पंचझीरो फलानि च ।
( वा० २५६)
(सा० २-२ )